Sunday 16 August 2020

कविता: 1) एक अकेला बसंत 2) एक विदा गीत

 एक अकेला बसंत 


मेरी आँखों में
एक सच था
जिसे मैंने
तुम्हारे चारों ओर
बिखरा दिया
उसके बाद भी
तुम मुझमें नहीं हो

वह सच आज
एक कोहरे का जाल है
अब हमारे बीच
एक दीर्घ अन्तराल है
हमारे नेत्रों में कोई
जलता सपना भी नहीं है
जिसकी प्रतीक्षा में
मैने बहुत दिन गुजार दिये
(और शायद तुमने भी )

सड़कों, बाग़ों और
घाटियों में जब
उदास पत्तों का
झड़ना प्रारंभ हुआ
सड़कों पर टहलता
मैं अकेला था
(और शायद तुम भी)

मौसम बदल चुका है
पर मैं अभी भी
प्रतीक्षा कर रहा हूँ
सड़कों,
बाग़ों और
घाटियों के ऋतु
उत्सव देखते हुए
मैं अकेला हूँ 
(और शायद तुम भी)

मौसम का बदलना
अनिवार्यता है
पर मेरा प्रतीक्षाक्रम
अनवरत रहेगा
अगली बार फिर, जब
परिप्रेक्ष्य बदल चुके होगे
तब भी
सड़कों पर टहलता
घाटियों में भटकता
सपने को तलाशता
मैं अकेला ही रहूंगा
(और शायद तुम भी)
1967
............


एक विदा गीत

यह चौराहा
शायद इसलिये था
कि हम बिछुड़ जाएं
थोड़ा रुक कर
अपने रास्तों को
हम पहिचान लें
विदा के क्षण में
आखरी सिगरेट पियें
अैर अपने आप को
यह अ्नुभव करने का
अवसर दें कि
हम कितने आत्मीय हैं
और हम
महज कोई 
फर्ज़ अदा करने
इतनी देर साथ नहीं
 रहे

हम लोगों की
एक जैसी आवश्यकताएं हैं
और एक ही जैसे अभाव
और अपने-अपने
लोक संबंधों में
शायद एक ही जैसे
तनाव को हमने सहा है इसलिए
रात के इस उतरते पहर में
जब हम अलग हो रहे हैं
लग रहा है कि
हम खुद ही टूट गये हैं

अब तक बिताया
निरर्थक समय और
निरर्थक उपक्रम
हमें सुखकर लगे हैं
इसलिये नहीं कि
वे सचमुच ऐसे थे
बल्कि इसलिए कि
उन्हें मैने या तुमने
अलग-अलग नहीं भोगा

उन क्षणों में लगा है कि
तुम भी मेरे साथ
इस व्यापार  में सचेष्ट हो
और हमारे इस सोचने से
हमारे संबंधों में
हर बार एक
नई कड़ी जुड़ी है

लेकिन इस क्षण के उपरान्त
हम साथ नहीं होंंगे 
समय को बांधने वाली
हमारी हथेलियां भी
परस्पर जुड़ी न होंगी

और जब हम आगे बढेंगे
अगला हर चौराहा अजनबी होगा
और तब कोई भी क्षण इतना
भावुक न होगा
जो हमारी खुली हथेलियों पर
निमन्त्रण  के फूल रख दे
1967
........

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