सूखा पेड़
दीमकों ने
बना लिया है अपना घर
और एक हरा पेड़
सूख गया है
पक्षियों के डेरे
आसपास के पेड़ों पर हैं
हरे-भरे घर से
उड़कर निकलते हैं
हरे तोते और
सूखे पेड़ की
सूखी टहनियों पर
हरी पत्ती बन, झूम जाते हैं
जाड़े की धूप में,
लाल चोंच
बन जाती है
लाल खिला हुआ फूल
दिन चढ़ रहा है,
हरे तोते काम पर
निकल जाते हैं
सूखे पेड़ को
अकेला छोड़ते हुए
माली सूखे पेड़ को
नहीं काटता,
कल सुबह वापिस आएँगे
हरी पत्तियों और
लाल फूलों वाले पक्षी
28.12.1998
दीमकों ने
बना लिया है अपना घर
और एक हरा पेड़
सूख गया है
पक्षियों के डेरे
आसपास के पेड़ों पर हैं
हरे-भरे घर से
उड़कर निकलते हैं
हरे तोते और
सूखे पेड़ की
सूखी टहनियों पर
हरी पत्ती बन, झूम जाते हैं
जाड़े की धूप में,
लाल चोंच
बन जाती है
लाल खिला हुआ फूल
दिन चढ़ रहा है,
हरे तोते काम पर
निकल जाते हैं
सूखे पेड़ को
अकेला छोड़ते हुए
माली सूखे पेड़ को
नहीं काटता,
कल सुबह वापिस आएँगे
हरी पत्तियों और
लाल फूलों वाले पक्षी
28.12.1998
जलगली
सात समुद्रों के बीच
लुक-छुप कहीं बसा है
पृथ्वी का सातवाँ महाद्वीप,
पचमढ़ की पहाड़ियों में
लुक- छुप बसी है जलगली,
सातवें महाद्वीप को
ढूंढ नहीं पाते
गोताखोर और पनडुब्बियाँ,
जलगली का पता नहीं जानते
डाकिए, सिपाही और लाइनमैन,
सातवाँ महाद्वीप
लेखक की कल्पना में है
और जलगली
सूरज की छाया में.
धूपगढ़ की तराई में
बसी है जलगली
और शिखर को पता नहीं,
आदिम बसाहट को समेट
किसी अबूझ कोने में
बसी है जलगली
और शहर को पता नहीं,
समुद्र की तरफ
बढ़ती है जलगली
देनवा, तवा, नर्मदा में रिसते हुए,
शिखर और शहर से डरी-डरी,
अपने निविड़ एकांत में
मनाती है बस यही
बहती रहे वह सदा
जहाँ तक है उसका घर
पचमढ़ी की पहाडियों में,
धूपगढ़ की तराई में
बचे रहें उसके फर्न और फूल
और पानी के कुंड,
मिले भी तो सिर्फ
उन्हीं को मिले उसका पता
समझते हों जो
मेहमान की मर्यादा
16.02.1998
सात समुद्रों के बीच
लुक-छुप कहीं बसा है
पृथ्वी का सातवाँ महाद्वीप,
पचमढ़ की पहाड़ियों में
लुक- छुप बसी है जलगली,
सातवें महाद्वीप को
ढूंढ नहीं पाते
गोताखोर और पनडुब्बियाँ,
जलगली का पता नहीं जानते
डाकिए, सिपाही और लाइनमैन,
सातवाँ महाद्वीप
लेखक की कल्पना में है
और जलगली
सूरज की छाया में.
धूपगढ़ की तराई में
बसी है जलगली
और शिखर को पता नहीं,
आदिम बसाहट को समेट
किसी अबूझ कोने में
बसी है जलगली
और शहर को पता नहीं,
समुद्र की तरफ
बढ़ती है जलगली
देनवा, तवा, नर्मदा में रिसते हुए,
शिखर और शहर से डरी-डरी,
अपने निविड़ एकांत में
मनाती है बस यही
बहती रहे वह सदा
जहाँ तक है उसका घर
पचमढ़ी की पहाडियों में,
धूपगढ़ की तराई में
बचे रहें उसके फर्न और फूल
और पानी के कुंड,
मिले भी तो सिर्फ
उन्हीं को मिले उसका पता
समझते हों जो
मेहमान की मर्यादा
16.02.1998
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