Saturday, 22 August 2020

देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार- 11

 

 विद्याचरण शुक्ल या वी.सी. के बारे में लिखते हुए बहुत से प्रसंग एक के बाद स्मृति पटल पर उभरते आ रहे हैं जैसे किसी फिल्म की रील चल रही हो। 1980 में अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद की एक घटना है। मित्र प्रकाशन की अंग्रेजी पत्रिका 'द प्रोब' की एक रिपोर्टर रायपुर दौरे पर आईं। उन्होंने अन्य बातों के अलावा बाबूजी से शुक्ल बंधुओं के बारे में भी चर्चा की। इसमें कहीं बाबूजी ने कहा- 'श्यामाचरण इज मोर ह्यूमेन' अर्थात श्यामाचरण अधिक उदार या संवेदनशील हैं। कुछ दिन बाद प्रतिष्ठित नागरिक व कांग्रेस के निष्ठावान कार्यकर्ता रतिलाल भाई शाह के निवास पर वी.सी. के सम्मान में दोपहर का भोज था। मैं भी आमंत्रित था। शुक्ल जी ने मुझे देखते साथ तंज कसा- तो मायाराम जी हमें मनुष्य नहीं मानते! मैंने तत्काल प्रतिवाद किया- उन्होंने जो कुछ कहा, आपके बारे में कुछ नहीं, बल्कि  श्यामाचरण जी के बारे में कहा है। और उसका वह अर्थ नहीं है जो आप निकाल रहे हैं। कहने का मतलब यह कि श्री शुक्ल छोटी-छोटी बातों का भी जल्दी बुरा मान जाते थे। उनकी मन की न हुई तो वे प्रतिशोध की भावना से भी कदम उठा लेते थे। अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रथम धमतरी आगमन पर शुक्ल समर्थकों ने सड़क पर जो हंगामा किया, वह इसी मनोभाव का उदाहरण है। भोपाल के कांग्रेस नेता अजीज कुरैशी को रायपुर स्टेशन पर उनके समर्थकों द्वारा जूतों की माला पहनाना ऐसी एक और घटना थी।

दूसरी ओर, अपने भक्तों, समर्थकों, चमचों या कृपापात्रों के लिए वे किसी भी सीमा तक जा सकते थे। रायपुर का एक कुख्यात गुंडा फरार चल रहा था। शायद हो कि उनके ही संरक्षण में छुपा हो! सरबजीत सिंह जिला पुलिस अधीक्षक यानी कि एसपी थे। वी.सी. दिल्ली से रायपुर आए। कलेक्टर, एसपी, उनकी अगवानी के लिए विमानतल पर मौजूद थे। वह गुंडा भी कहीं से प्रकट हुआ। 'भैया' को माला पहनाने आगे बढ़ा। तभी शुक्ल जी ने सबको सुनाते हुए कहा- एसपी साहब, यह रहा आपका अपराधी। सारे उपस्थित लोग सुनकर अवाक रह गए। गुंडे को ऐसा संरक्षण! कानून की ऐसी अवज्ञा! इस मौके पर एसपी करते भी तो क्या करते? उन्होंने व्यथित हृदय से जल्दी ही रायपुर से अपना तबादला भोपाल करवा लिया। इसी रायपुर विमानतल पर एक और दृश्य हमने देखा जब उनके कृपापात्र नवनियुक्त कुलपति रामकुमार पांडे ने सबके सामने उनके चरणस्पर्श किए। पुराने लोगों को याद आया कि द्वारिका प्रसाद मिश्र के समय रायपुर के प्रथम कुलपति डॉ बाबूराम सक्सेना ने सीएम की अगवानी हेतु विमानतल जाने से इंकार कर दिया था। उन्हें कोई चर्चा करना होगी तो सर्किट हाउस बुला लेंगे।

विद्याचरण शुक्ल के दो-तीन हल्के-फुल्के प्रसंग भी याद आते हैं। एक बार दिल्ली में उन्होंने मुझसे पूछा- ललित! तुम नहीं सोचते कि मायाराम जी को पद्मश्री मिलना चाहिए। मैंने कहा- सोचना तो आपको है। लेकिन सोच रहे हों तो पद्मभूषण के बारे में सोचिए। पद्मश्री तो हास्य कवियों तक को मिल जाती है। राष्ट्रपति एस्टेट वाले बंगले में हुए इसी वार्तालाप में उन्होंने एक और झांसा दिया- तुम्हारा नाम मध्यप्रदेश की टेलीफोन उपभोक्ता सलाहकार समिति में भेजा है। किसी और का भी करना है? मैंने सहज रूप से अपने अनन्य मित्र प्रभाकर चौबे का नाम दे दिया। कुछ दिन बाद सूची आई तो दोनों नाम गायब थे। शुक्ल जी के फार्म हाउस से दूध डेयरी चलती थी। उनका मन हुआ कि बोतलबंद पानी की फैक्टरी डालना चाहिए। दूध भी दस रुपए लिटर, पानी की बोतल भी दस रुपए की। उनका तर्क सुन लिया। गनीमत कि इस विचार को उन्होंने आगे नहीं बढ़ाया। बंगलौर में उद्योगपति मित्र डॉ. रमेश बाहेती की बेटी के विवाह में एक बार हम मिले। वे अगली सुबह पुट्टपर्थी सत्यसाईं के दर्शन हेतु जा रहे थे। ऐसे लोगों से भी मिलना चाहिए। तुम भी चलो। उनका सोचना सही था। लेकिन मेरी कोई रुचि भगवान के कलियुगी अवतारों में नहीं रही है। उनके साथ न जाकर एक नए अनुभव से वंचित रह गया।

वी.सी. कभी-कभार हास्य बोध याने सेंस ऑफ ह्यूमर का खासा परिचय देते थे। किसी दिन रात्रिभोज में उन्होंने एक मज़ेदार बात की। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री कंधे पर 'गमोछा' लेकर चलते हैं। अपनी तरफ अंगोछा या गमछा न जाने कब से प्रचलित है। तो इसी गमछे को लेकर बात चल पड़ी। गमछा बहुत काम की चीज है। दौरे पर निकले हैं, गर्मी के दिन हैं, पसीना पोंछ लो। बरसात के दिन हैं, सिर भीगने से बचा लो और पानी भी पोंछ लो। ठंड के दिनों में सिर-कान ढांक लो। गांव जाते हैं तो अनेक बार ग्रामीण कार्यकर्ता चूल्हे पर चढ़ी चाय गमछे से पकड़ कर ही उतारते हैं, और उसी से छान भी लेते हैं। यहां तक तो ठीक था। क्लाइमेक्स अभी बाकी था। जुकाम से नाक बह रही हो तो उसी गमछे से नाक सुड़क लो। और उसी से छनी चाय हो तो पीने से मना नहीं कर सकते। कार्यकर्ता का दिल कैसे दुखाएं! यह वर्णन सुन हंसते- हंसते दम फूल गया।

सन् 2000 के प्रारंभ में ही तय हो गया कि मध्यप्रदेश का विघटन होकर छत्तीसगढ़ एक नया प्रदेश बनने जा रहा है। देशबन्धु की सहज रुझान उस समय अजीत जोगी के साथ थी। वे हमउम्र थे। मित्रवत संबंध काफी पुराने थे। हमने मध्यप्रदेश के दिग्विजयी राज में बहुत कष्ट उठाए थे और वही आशंका विद्याचरण जी के मुख्यमंत्री बन जाने पर मेरे मन में थी। ये दोनों ही प्रमुख दावेदार थे। शुक्ल जी के बुलावे पर जुलाई में किसी दिन राधेश्याम भवन अर्थात फार्म हाउस गया। बहुत लंबी चर्चा चली। दो घंटे से ऊपर। आप बूढ़ापारा छोड़ यहां रहते हैं। कार्यकर्ताओं को मिलने आने में तकलीफ होती है। पैसा भी लगता है। जवाब मिला- हमें भी आराम की जरूरत है। समय बदल गया है, आदि। खैर, मुद्दे की बात तो दूसरी ही थी। वे चाहते थे कि मुख्यमंत्री पद की दावेदारी में देशबन्धु उनका खुलकर समर्थन करे। मैंने चर्चा को मोड़ देने की कोशिश की। 'हम पेपर वाले क्या कर सकते हैं? फैसला तो कांग्रेस विधायक दल और हाईकमान को करना है। उसके पहले आप दोनों बैठकर समझौता क्यों नहीं कर लेते?' वे मेरा मंतव्य सुनकर प्रसन्न हुए। 'ठीक है, तुम जोगी से बात करो। उसे हम पीसीसी चीफ बना देंगे।' जाहिर था कि शुक्ल जी अभी भी वास्तविकता से अनजान हवा के घोड़े पर सवार थे। कुछ देर इधर-उधर की बातें कर मैं वापस आ गया। इस मुलाकात का जिक्र भी किसी से नहीं किया।

इसके पश्चात 31 अक्तूबर 2000 की शाम फार्म हाउस पर मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के साथ जो अभद्र बर्ताव, यहां तक कि मार-पीट तक की गई, वह छत्तीसगढ़ के राजनीतिक इतिहास में एक शर्मनाक घटना के रूप में दर्ज है। इसके ब्यौरे अन्यत्र देखे जा सकते हैं। इन सारी स्मृतियों को समेटते हुए कहना होगा कि विद्याचरण शुक्ल अदम्य जिजीविषा के धनी थे। 25 मई 2013 को नृशंस नक्सली हमले में बुरी तरह घायल होने के बाद भी आखिरी सांस तक जीवन जीने की लड़ाई लड़ते रहे। उस दुर्गम घाटी में तत्काल चिकित्सीय सहायता मिलना संभव नहीं था। अगर आपात सहायता मिल जाती तो शायद उस दिन भी वे मौत को हराकर वापस आ सकते थे। (अगले सप्ताह जारी)


#देशबंधु में 20अगस्त 2020 को प्रकाशित

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