1950 के दशक में नागपुर से 'प्रतिभा' शीर्षक एक बेहतरीन साहित्यिक पत्रिका प्रकाशित होती थी, जिसमें संपादक के रूप में वीरेंद्र कुमार तिवारी का नाम छपता था। तिवारी जी आगे चलकर मध्यप्रदेश में लंबे समय तक कांग्रेस विधायक दल के सचिव का दायित्व संभालते रहे। वीरेंद्र दादा को कांग्रेस के सभी खेमों में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। प्रतिभा में हर माह मुखपृष्ठ पर रायपुर के कलाकार कल्याण प्रसाद शर्मा की लोक जीवन पर आधारित बहुरंगी पेंटिंग प्रकाशित होती थी। यदि मेरी जानकारी सही है तो तिवारी जी एवं शर्मा जी दोनों विद्याचरण शुक्ल के सहपाठी थे। श्री शुक्ल की बड़ी बेटी का नाम भी प्रतिभा था। पत्रिका में शुक्लजी का नाम छपता था या नहीं यह मुझे ध्यान नहीं है। इतना अवश्य याद है कि वर्धा रोड पर प्रतिभा प्रेस की एक बंगलेनुमा इमारत थी। आज उस जगह पर लोकमत के कॉर्पोरेट मुख्यालय का बहुमंजिला भवन खड़ा है।
मैं स्कूल का विद्यार्थी था। उस दरमियान श्री शुक्ल से परिचय होने का कोई सवाल नहीं था। मेरी उनके साथ पहली मुलाकात दिलचस्प अंदाज में हुई। वे 1964 में महासमुंद से लोकसभा उपचुनाव लड़ रहे थे। मैं अपने सहयोगी राघवेंद्र गुमाश्ता के साथ चुनावी माहौल देखने के लिए एक दिन महासमुंद गया। हम सीधे कांग्रेस भवन गए। पता चला कि शुक्ल जी चुनाव प्रचार में गए हैं थोड़ी देर में लौटते होंगे। मैं वहीं कांग्रेस भवन की सीढ़ियों पर बैठकर सिगरेट पी रहा था। इतने में एक जीप आई। उससे श्री शुक्ल उतरे। राघवेंद्र ने परिचय करवाया- ये ललित हैं, भैया जी (बाबूजी) के बड़े बेटे। श्री शुक्ल ने मेरी उंगलियों में फंसी सिगरेट देखी और टिप्पणी की- अभी आपकी उम्र सिगरेट पीने की नहीं है। बात सही थी। अभी-अभी तो मैं बीए की परीक्षा देकर जबलपुर से आया था। मैं लज्जित हुआ और सिगरेट फेंक दी। मेरी इसके अलावा कोई और बात नहीं हुई। राघवेंद्र ही चुनाव की बातें करते रहे।
यह संयोग था कि उसी दिन उनके प्रतिद्वंद्वी पुरुषोत्तम लाल कौशिक से भी पहली बार मेरा परिचय हुआ। याद नहीं आता कि वह किसका घर था लेकिन वहां कौशिक जी के प्रचार हेतु नरसिंहपुर से आए ठाकुर निरंजन सिंह भी ठहरे थे। जुझारू समाजवादी नेता जीवन लाल साव भी वहां थे। सावजी के साथ आने वाले वर्षों में न जाने कितनी बार मुलाकातें हुईं। शुक्ल जी और कौशिक जी के बीच यह पहला मुकाबला था। उनके बीच आने वाले समय में जो राजनीतिक संघर्ष हुआ उसे भी मैंने देखा। जीवन लाल साव को अपने जुझारू तेवरों की जो कीमत चुकानी पड़ी, जिसमें उनकी जान पर तक बन आई, का भी मैं गवाह रहा हूं। विद्याचरण शुक्ल के साथ देशबन्धु के एवं स्वयं मेरे संबंध प्रारंभ में यद्यपि बहुत सहज थे, लेकिन उस सहजता का निर्वाह हमेशा नहीं होता था।
श्री शुक्ल को मैंने सुरुचिपूर्ण साहित्य के अध्येता के रूप में जाना। उन्होंने अपनी एक लाइब्रेरी भी बना रखी थी। लेकिन परवर्ती समय में मैंने पाया कि किताबें तो उनके पास बहुत आती थीं, लेकिन वे रखी रह जाती थीं। पढ़ने में उनकी रुचि समाप्त होने लगी थी। खैर, यह शायद 1969 की बात है, जब रायपुर जेसीज के उद्घाटन समारोह या ऐसे किसी समारोह में मैंने उन्हें मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया। इंडियन कॉफी हाउस के ऊपर वाले हॉल में कार्यक्रम रखा था। शुक्ल जी निर्धारित समय पर आये, उन्होंने उद्घाटन भाषण दिया। इस बीच हमने हॉल में कटलेट और कॉफी की सेवा प्रारम्भ कर दी। कार्यक्रम समाप्त हुआ। नीचे उतरते समय शुक्ल जी ने कहा- ऐसे औपचारिक कार्यक्रमों में चाय- नाश्ता देने की कोई आवश्यकता नहीं होती और नाश्ता करवाना ही है तो कार्यक्रम समाप्त होने के बाद करवाया करो। उनकी यह सीख मुझे आज भी याद है। सिगरेट पीना भी मैंने 2-4 साल बाद छोड़ दिया था।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि श्री शुक्ल मध्यप्रदेश के सबसे प्रभावशाली नेता थे। उनके भक्त तो यहां तक मानते थे कि वे इंदिरा जी के उत्तराधिकारी बनेंगे। श्री शुक्ल के ठाठ भी कुछ ऐसे ही थे। वे केंद्रीय मंत्री थे और जब कभी उनका रायपुर आना होता था तो भिलाई इस्पात संयंत्र की एक इम्पाला कार उनकी सेवा में लगी रहती थी। श्री शुक्ल के पास गाड़ियों की क्या कमी थी लेकिन फिर अपना रुतबा बनाना भी तो जरूरी था! उनकी इस गाड़ी में एक दिन मुझे भी बैठने का मौका मिला। 1971 के आम चुनाव के समय एक दिन फोन पर फोन आये कि विद्या भैया आपको याद कर रहे हैं। मेरे पास गाड़ी नहीं थी। उनकी गाड़ी आई। मैं भी असमंजस में था कि इतने बड़े नेता को मुझसे क्या काम पड़ गया। मैं बूढ़ापारा स्थित शुक्ल निवास पहुंचा जहां नीचे बड़े से हाल में कार्यकर्ताओं का जमघट लगा हुआ था। मुझे ऊपर नाश्ते की टेबल पर बुलाया गया। शुक्ल जी मेरी ओर मुखातिब हुए- यह चिटृठी तुमने क्यों लिख दी? तब मामला समझ आया। मैंने उन्हें एक पत्र लिखा था कि 1967 के आम चुनावों के विज्ञापनों का भुगतान अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है, इस स्थिति में हम आपके नए विज्ञापन नहीं छाप पाएंगे। शुक्लजी ने कहा तुम फोन कर देते। चिटृठी गलत हाथों में पड़ सकती है। मैं नाश्ता करके उसी इम्पाला कार में वापस लौटा। शाम तक विज्ञापनों का चार साल से रुका पैसा भी आ गया।
प्रसंगवश ऐसा ही एक किस्सा 1967 में हुआ। रायपुर लोकसभा क्षेत्र से लखनलाल गुप्ता प्रत्याशी थे, उनके सामने थे आचार्य जे.बी.कृपलानी। गुप्ताजी बूढ़ापारा वाले प्रेस में विज्ञापन लेकर आए, मैंने कुछ धृष्टतापूर्वक ही उनसे कहा कि आपकी तरफ 1962 के विधानसभा चुनाव की रकम बाकी है। गुप्ताजी संपन्न व्यक्ति थे। उन्होंने पिछले बकाया का भुगतान तुरंत कर दिया। हम अखबारवालों के साथ ऐसे प्रसंग अक्सर घटते हैं। चुनाव आए और चले गए, इसके बाद आप नेताजी के पीछे घूमते रहिए। यह दिक्कत उन अखबारवालों के साथ नहीं है, जो नेताओं के साथ पार्टनरशिप में व्यापार करते हैं। अपने आस-पास देखिए तो आपको पता चल जाएगा कि नेता, अफसर और अखबार मालिक किस तरह तीन-ताल में काम करते हैं।
मैं विद्याचरण शुक्ल की कुछेक बातों का कायल रहा हूं। केंद्र और राज्य सरकार में कार्य संस्कृति एक-दूसरे से बिल्कुल अलग है। राज्य में विशेषकर मुख्यमंत्री को बहुत तरह के दबावों से जूझना पड़ता है। जिसके चलते कई बार सही निर्णय भी उल्टी दिशा में चले जाते हैं। इसके विपरीत केन्द्रीय मंत्री को अपनी मनमर्जी से काम करने की छूट कम होती है। उन्हें फाइलों का अध्ययन करना होता है और सचिव इत्यादि की नोटिंग को बिना पर्याप्त कारण खारिज नहीं किया जा सकता। वीसी शुक्ल इसी कार्यशैली में कार्य करने के अभ्यस्त थे। लेकिन अपने क्षेत्र के नागरिकों और मतदाताओं के साथ वे जीवंत संपर्क बनाए रखते थे। आपने उन्हें पत्र लिखा तो टाइप किए गए उत्तर में भी मोटे अक्षरों में आपका नाम खुद लिखेंगे। नीचे अपने हाथ से शुभकामना भी लिखेंगे और हस्ताक्षर भी करेंगे। आपका काम हो या न हो, यह संतोष मन में रहता था कि विद्या भैया ने आपके पत्र का उत्तर स्वयं लिखा है। दूसरी बात, वीसी शुक्ल की राजनैतिक शैली से कोई कितना भी असहमत क्यों न हो, उनके जुझारुपन की प्रशंसा करनी ही होगी।
मैं जानता हूं कि दोनों शुक्ल भाइयों ने राजनीति में बने रहने के लिए कभी आसान रास्ते अपनाना स्वीकार नहीं किया। उन्हें बीच-बीच में राज्यपाल पद के न्यौते भेजे गए, राज्यसभा में जाने की पेशकश भी की गई। लेकिन उन प्रस्तावों को उन्होंने हमेशा ठुकरा दिया। वे इस तरह देश के उन तमाम राजनेताओं से अलग हो गए, जो सत्ता सुख उठाने के लिए जब-तब समझौता कर लेते हैं। वी.सी. की चित्तवृत्ति का इसे अतिरेक माना जा सकता है कि जब कांग्रेस में उन्हें अपने लिए दरवाजे बंद नजर आए तो एक बार वे वी.पी. सिंह के साथ चले गए, दूसरी बार शरद पवार के साथ और तीसरी बार भारतीय जनता पार्टी के साथ। यह शायद उनके व्यक्तित्व का विरोधाभास भी था कि अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए वे युद्धं देही के अंदाज में लड़ने-भिड़ने को तैयार हो जाते थे, फिर चाहे उन्हें जिस भी पक्ष से लड़ना पड़े। अपने इस उतावलेपन पर वे थोड़ा नियंत्रण रख पाते तो यह उनके हित में ही होता। (अगले सप्ताह जारी)
#देशबंधु में 6 अगस्त 2020 को प्रकाशित
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