Saturday, 22 August 2020

कविता: एक नया बसंत

 


यह झरती पत्तियों पर
आहिस्ता कदम रखते हुए
बसंत शायद फिर आ गया है
और लाया है साथ में वही दर्शन
हाँ, वही सज्जा अलबेली
वही मनचीता अंकन।

खिल उठी है धूप फिर से
फिर किरणें बिलम गयीं झुरमुटों में
फागुनी वातास का रंगचक्र
फिर भरमाने लगा हर पंक्ति को

यह पलाश मन फिर सुलगता-सा
या बहता तन रेशमी हवाओं में
फिर वही वनश्री के अलस गान
और बीते गीत-सा यह पतझर

सह कुछ वही है: उभरते से
वही सारे भाव : वही सारी मुद्राएँ

लेकिन जो नया है: वह शायद यही
कि अब की बार मैंने बसंत को
जी भर पिया है : सिर्फ देखा नहीं ।

1969


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