Thursday, 13 August 2020

देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार- 10

 


मेरा छत्तीसगढ़ में जिस राजनेता से सबसे पहला परिचय हुआ वे विद्याचरण शुक्ल ही थे। उनके साथ मेरी औपचारिक- अनौपचारिक मुलाकातें शायद सबसे अधिक हुईं। लेकिन मेरे आकलन में वे ऐसे राजपुरुष थे, जिनमें स्वयं को लेकर श्रेष्ठता का भाव था। वे इंदिरा गांधी जैसे कुछेक लोगों को छोड़कर बाकी सभी से अनुगत या अनुचर होने की अपेक्षा करते थे। छत्तीसगढ़ के अधिकतर पत्रकार उनके चरण छूते थे। विद्या भैया, विद्या भैया कहकर उनकी जी हुजूरी करते थे। चूंकि हमने ये नहीं किया, इसलिए उन्होंने देशबन्धु के संपादकों को कभी पसंद नहीं किया। वे जब भी रायपुर आते थे, प्रेस क्लब में उनकी प्रेस कांफ्रेंस होना अनिवार्य ही था, भले ही कोई विषय हो अथवा न हो। अमूमन यह प्रेस कांफ्रेंस लंच के साथ होती थी। कभी धोखे से चाय-समोसे पर बात खत्म हो गई, तो उन्हें याद दिलाया जाता था कि भैया इस बार लंच नहीं हुआ। देशबन्धु के संपादकीय आलेख में एक बार पंडितजी ( रामाश्रय उपाध्याय) ने उनकी कुछ तीखी आलोचना कर दी थी। इससे वे काफी क्षुब्ध हुए। उन्होंने बाबूजी को आपत्ति दर्ज करते हुए पत्र लिखा। जिसमें संस्कारों को लेकर कुछ टीका की गई। बाबूजी ने इस पत्र का जवाब देते हुए लिखा- संस्कार और संपत्ति तो आपको विरासत में मिली है, हम साधारण लोग, उसे कहां से लाएं। संदेश स्पष्ट था, बात वहीं खत्म हो गई। 


एक बार शुक्लजी ने बूढ़ा तालाब के किनारे शिवाजी महाराज की प्रतिमा लगाने का ऐलान किया। हमने इसका विरोध किया तो अगले दिन उन्होंने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में भाषण देते हुए देशबन्धु की खुलकर निंदा की। ऐसे और भी प्रसंग हैं। आज जो रायपुर में इंडोर स्टेडियम और रवि भवन जैसे निर्माण हुए हैं, हमने इनका भी विरोध किया था। श्री शुक्ल का तर्क था कि रवि भवन से इतनी आमदनी होगी कि उससे रायपुर नगर निगम को विकास कार्यों के लिए इधर-उधर नहीं देखना पड़ेगा। हमारी दृष्टि में ये योजनाएं खर्चीली व अव्यवहारिक थीं। इंडोर स्टेडियम जिस जगह बना था, वह पर्यावरण के मानकों के अनुसार वेटलैंड (दलदली भूमि) था, तथा उसे उसी रूप में संरक्षित रखा जाना था। लेकिन शुक्लजी के आगे किसकी चलनी थी।उन्होंने जो चाहा, वही हुआ।


वीसी शुक्ल जब नरसिंहराव सरकार में मंत्री बने, तो संसद में उनके द्वारा दिए गए एक वक्तव्य का शीर्षक देशबन्धु में कुछ इस तरह छपा- 'जब वीसी ने कावेरी को लड़की समझा।' पत्र के दिल्ली स्थित एक अंशकालिक संवाददाता द्वारा भेजा गया यह समाचार पत्रकार रजत शर्मा द्वारा संपादित एक अन्य पत्रिका में भी इसी रूप में छपा। श्री शुक्ल का इस पर क्षोभ होना स्वाभाविक था। लेकिन उन्होंने कोई खंडन भेजने या स्पष्टीकरण प्रकाशित करने की बजाय सुदूर दंतेवाड़ा में अपने किसी कार्यकर्ता द्वारा मुझ पर मानहानि का मुकदमा दायर करवा दिया। अदालत का समन आया तो मैंने दंतेवाड़ा जाकर जमानत लेने के साथ-साथ आगे की पेशियों में हाजिर न होने की छूट प्राप्त कर ली। जिस कार्यकर्ता ने मुकदमा दायर किया, उसकी कानूनन कोई भूमिका नहीं थी। केस खारिज होना ही था। इसके बाद भी शुक्ल बार-बार दबाव डालते रहे कि इस प्रकरण में माफी मांगें। हम स्पष्टीकरण छापने और खेद व्यक्त करने तैयार थे। लेकिन जब वे इतने पर राजी नहीं हुए तो हमने भी फिर समझौते की कोई कोशिश नहीं की। 


श्री शुक्ल जब 1989 में कांग्रेस छोड़कर वीपी सिंह के राष्ट्रीय मोर्चा में शामिल हुए तो राजनैतिक पर्यवेक्षकों को बहुत हैरानी हुई। उसके कारणों में जाने की आवश्यकता नहीं है। श्री शुक्ल महासमुंद क्षेत्र से प्रत्याशी थे। उनकी जीत को लेकर बढ़-चढ़ के दावे किए जा रहे थे। पर देशबन्धु की रिपोर्ट थी कि इन दावों में कोई दम नहीं है। दो दिन बाद लोकसभा क्षेत्र में मतदान हुआ। मैं अपने साथियों प्रभाकर चौबे और बसंत कुमार तिवारी के साथ माहौल देखने के लिए निकला तो बूढ़ापारा में वीसी शुक्ल अपना वोट डालने मतदान केंद्र की ओर आते हुए दिखाई दिए। हमने गाड़ी रोकी। शुक्लजी को नमस्कार किया। उन्होंने मेरे साथियों से तो बात की और ऐसा दर्शाया मानो उन्होंने मुझे देखा ही नहीं है। मैं समझ गया कि ये महासमुंद की रिपोर्ट छपने से दुखी हैं। रिजल्ट जब आया तो हमारी रिपोर्ट ही सही निकली। श्री शुक्ल चुनाव जीत तो गए, लेकिन जीत का अंतर बहुत कम था। इसके बाद अब उन्हें मंत्री बनने की उम्मीद थी, जो पूरी नहीं हुई। जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने, तब उन्हें मंत्री पद का ऑफर मिला। शुक्ल समर्थक चाहते थे कि उन्हें रेल मंत्रालय या इस्पात मंत्रालय मिले। लेकिन चंद्रशेखर उन्हें विदेश मंत्रालय ही देना चाहते थे। ऐसे समय न जाने क्या सोचकर उन्होंने मेरी राय लेना आवश्यक समझा। मेरी सलाह साफ थी कि आपको विदेश मंत्रालय ले लेना चाहिए। आप सबसे अनुभवी सांसद हैं। विदेश मंत्री के रूप में आप अनावश्यक विवादों से मुक्त रहेंगे। टीवी पर आने के आपको अधिकतम अवसर मिलेंगे। उससे आपकी छवि निखरेगी। मेरी सलाह का कितना महत्व था, यह मुझे नहीं पता, किंतु उन्होंने यह पद स्वीकार कर लिया। इसके तीन-चार दिन बाद उनका रायपुर आने का कार्यक्रम बना। स्वागत की तैयारियां चलीं। अखबारों को भरपूर विज्ञापन जारी हुए, लेकिन देशबन्धु का नाम उन अखबारों की सूची में नहीं था। अगले दिन उनके सम्मान में कहीं रात्रिभोज आयोजित था। मैं भी आमंत्रित था, लेकिन मैंने निमंत्रण ठुकरा दिया। अगर मेरे अखबार को विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं तो मैं भोज पर आकर क्या करूंगा? फिर जो भी हुआ हो, देशबन्धु को देर रात विज्ञापन जारी हुए। मैं रात्रिभोज में भी शामिल हुआ।


श्री शुक्ल के लगभग छह दशक के राजनैतिक जीवन का आकलन करने से एक बात समझ आती है कि उनके इर्द-गिर्द राजनैतिक सलाहकारों की जगह गैर-राजनैतिक सलाहकारों की संख्या दिनों-दिन बढ़ने लगी थी। ऐसा क्यों हुआ, ये तो वही जानते थे। एक बार महासमुंद के पूर्व विधायक और वीसी के निकट सहयोगी दाऊ संतोष कुमार अग्रवाल ने मुझसे साफ कहा कि वे तो बड़े आदमी हैं, जब चाहें जिस पार्टी में चले जाएं, लेकिन उनके साथ-साथ जाने से हमारा क्या होगा, हमें तो अपने मतदाता को जवाब देना होता है। जो पत्रकार शुक्ल जी के दाएं-बाएं रहा करते थे, आपातकाल के बाद जब चुनाव हुए तो रायपुर में कत्ल की रात यानी मतदान के ऐन पहले जनता पार्टी के समर्थक बन गए और सीमित समय में भी मतदान को जितना प्रभावित किया जा सकता था, उन्होंने किया। चुनाव हारने के बाद वीसी शुक्ल अपने भिलाई निवासी भतीजे उमेश और उनकी पत्नी माया के साथ मुझसे मिलने आए। मुझसे कहा कि हमसे दोस्त और दुश्मन को पहचानने में गलती हो गई। लेकिन 1980 में चुनाव जीतने के बाद उन्हें फिर वही लोग अपने दोस्त लगने लगे, जो कल तक उनके विरोधी थे। (अगले सप्ताह जारी)


#देशबंधु में 13 अगस्त 2020 को प्रकाशित

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