अर्जुनसिंह के बारे में जितने भी सच्चे-झूठे किस्से प्रचलित हैं, उनमें से एक में अनजाने ही उनके एक गुण की प्रशंसा है। आज भी आपको यह बताने वाले कुछेक जन मिल जाएंगे कि उन्होंने विमान या ट्रेन में सफर के दौरान अर्जुनसिंह को दो-दो पुस्तकें एक साथ पढ़ते हुए देखा है। यह सच है कि श्री सिंह का अध्ययन बेहद व्यापक और उतना ही गहन था। उनकी निजी लाइब्रेरी में दुनिया के तमाम विषयों पर पुस्तकें थीं जो उनकी पढ़ी हुईं थीं। मेरी उनसे अक्सर पुस्तकों पर चर्चा होती थी। तब मुझे यह जानकर हैरानी होती थी कि मैं जिस किताब का जिक्र कर रहा हूं, वह उन्होंने पढ़ रखी है तथा उस पर वे साधिकार बात कर सकते हैं। ऐसा एकाध बार ही हुआ कि मैंने किसी पुस्तक की चर्चा छेड़ी और वह उन्होंने नहीं देखी है। तब वे अपने विश्वस्त श्री यूनुस को बुलाकर तुरंत वह पुस्तक खरीदने का निर्देश देते थे। मैंने जब दो-दो पुस्तकें एक साथ पढ़ने का किस्सा उन्हें सुनाया तो उन्होंने मुस्कुरा कर उसका आनंद लिया। कुल मिलाकर अपने समय में वे एक ऐसे व्यक्ति थे जो पूरी तरह राजनीति में डूबे होने के बावजूद साहित्य व ललित कलाओं की गहरी समझ रखते थे तथा संस्कृतिकर्मियों के साथ जिनका सक्रिय संवाद था।
उस दौर के पत्रकारों को याद होगा कि अर्जुनसिंह प्रेस से चर्चा करते हुए या किसी पत्रकार को इंटरव्यू देते समय अपने सामने टेप रिकॉर्डर रख लेते थे कि उनको यदि कहीं गलत उद्धृत किया जाए तो वे उसका प्रतिवाद कर सकें। वे स्वयं नपी-तुली बातें करते थे, इसलिए अपने कथन के सार्वजनिक प्रकाशन के प्रति वे इस सीमा तक सतर्क थे, जिसे अतिरेकपूर्ण मानना गलत न होगा। श्री सिंह के एक उद्यम के बारे में शायद बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि उन्होंने सन् 1957 से लेकर शायद सन् 1988 तक के मध्यप्रदेश विधानसभा में दिए गए भाषणों, हस्तक्षेपों, प्रश्नोत्तरों आदि का सिलसिलेवार संकलन कर दस खंडों के एक वृहत ग्रंथ के रूप में उनका प्रकाशन किया। प्रदेश की राजनीति के अध्येताओं व शोधकर्ताओं के लिए यह एक बहुमूल्य दस्तावेजीकरण है। देश में किसी अन्य जनप्रतिनिधि ने ऐसा काम संभवत: आज तक नहीं किया है। यह एक ओर संसदीय राजनीति में उनकी सक्रिय भागीदारी का प्रमाण है; तो दूसरी ओर इसे भी किसी कदर शब्दों के प्रति उनकी सतर्कता का उदाहरण माना जा सकता है। हमने राजनेताओं को बहुधा अपने वक्तव्यों से मुकरते, उनका खंडन करते, उन्हें गलत समझे जाने जैसे प्रतिवाद करते पाया है। यहां अर्जुनसिंह को इस चलन से अलग देखा जा सकता है।
दो जाने-माने हिंदी पत्रकारों ने अर्जुनसिंह की जीवन यात्रा पर पुस्तकें लिखीं हैं। पहले (स्व) कन्हैया लाल नंदन जिन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया व एक साहित्यिक के नाते भी पहचान बनाई थी। दूसरे रामशरण जोशी जो एक वामपंथी समाजचिंतक के रूप में ख्यातिप्राप्त हैं। अगर मुझे सही याद है तो वह नंदनजी की पुस्तक "मोहि कहाँ विश्राम" थी जिसका लोकार्पण तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने पार्लियामेंट एनेक्सी के सभागार में किया था। संयोग से मैं दिल्ली में था तो कार्यक्रम का आमंत्रण मुझे भी मिल गया था। अनेक नामचीन हस्तियों ने कार्यक्रम में शिरकत की थी। राष्ट्रपति ने अर्जुनसिंहजी के बारे में अत्यंत आदरपूर्वक उद्गार व्यक्त किए थे। फिर भी माहौल में कोई उत्तेजना या गरमाहट नहीं थी। एक तरह से शिष्ट औपचारिकता का ही अनुभव हो रहा था। मुझे दोनों पुस्तकें सौजन्य भेंट मिल गईं थीं। उनका सरसरी तौर पर अवलोकन करने के बाद मैं उलाहना के स्वर में श्री सिंह से यह कहे बिना नहीं रह सका था कि आप अगर प्रकाशन पूर्व इनकी पांडुलिपियां मुझे देखने दे देते तो बेहतर होता। ऊपर मैं शब्दों के प्रति जिस अतिरेकी सतर्कता का उल्लेख कर आया हूं, ये पुस्तकें उसके एकदम विपरीत थीं। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि इन उपक्रमों के पीछे कौन सी प्रेरणा काम कर रही थी!
अर्जुनसिंह को अधिकतर लोग, विशेषत: उनके अधीनस्थ अधिकारी और राजनीतिक कार्यकर्ता, साहब का संबोधन देते थे। अनेक पत्रकार खुशामदी अंदाज में उन्हें कुंवर साहब कहते थे, यद्यपि मुझे शक है कि इसे उन्होंने कभी पसंद किया हो। बघेलखंड के जन समुदाय व नजदीकी लोगों के लिए स्वाभाविक ही वे दाऊ साहब थे, लेकिन उनसे निकटता पाने के अभिलाषी पत्रकारों को जब मैं उन्हें दाऊ साहब कहते सुनता था तो बहुत कोफ़्त होती थी। मजे की बात है कि मुझे उन्हें कभी कोई संबोधन देने की आवश्यकता नहीं पड़ी। 2009 में जब वे मंत्री नहीं रह गए थे, तब मैंने यात्रा वृत्तांत की अपनी नई पुस्तक 'दक्षिण के आकाश पर ध्रुवतारा' उन्हें समर्पित करना तय किया, जिसकी शब्दावली थी-
'जनतांत्रिक राजनीति के प्रखर प्रवक्ता/
साहित्य एवं ललित कलाओं के भावक/
एवं अच्छी पुस्तकों के पाठक/
आदरणीय श्री अर्जुनसिंह के लिए'।
मैंने जब पुस्तक उन्हें भेंट की तो यह अंश पढ़ कर वे फफक-फफक कर रो पड़े। एक-दो मिनट बाद उन्होंने खुद को संयत किया। अपने आप पर सदैव नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति से ऐसे भावोद्रेक की मैं कल्पना नहीं करता था। यह समय था जब राजनीतिक क्षितिज पर उनका सूर्य अस्ताचल की ओर था और वे शायद अपने को एकाकी महसूस कर रहे थे!
श्री सिंह के मितभाषी होने का एक रोचक प्रसंग मेरे साथ घटित हुआ। यह शायद 2008 की बात है। उनके विश्वस्त सहायक श्री यूनुस ने फोन किया। भाई साहब, आप आठ तारीख को दिल्ली आ सकते हैं? यूनुस भाई, उस दिन मेरा पटना में कोई कार्यक्रम है। नौ तारीख को आ जाऊं तो चलेगा? ठीक है, साहब से पूछ कर खबर करता हूं। कुछ ही देर में स्वयं अर्जुनसिंह फोन पर थे- आप नौ तारीख को आने का कह रहे हैं, तब तक तो बहुत देर हो जाएगी। जी, ठीक है, मैं आठ को पहुंच जाऊंगा। सुबह की फ्लाइट पकड़ी। एयरपोर्ट से सीधे उनके निवास। सामान टैक्सी में। कार्यक्रम था कि वे उस दिन एक प्रकाशक के साथ अंग्रेजी में लिखी आत्मकथा "अ ग्रेन ऑफ सैंड इन द आवरग्लास ऑफ टाइम" का अनुबंध कर रहे थे, जिसकी साक्षी में उन्होंने कुल 12-15 जनों को बुलाया था। उनके साथ अनेक वर्षों से जुड़े रहे विभाग के सचिव के अलावा सरकारी अधिकारी एक भी नहीं और न कोई राजनेता। यह मेरे प्रति स्नेह और विश्वास ही था कि इस सीमित आयोजन में मुझे उन्होंने शरीक किया। लेकिन फोन पर निमंत्रण देते समय एक नितांत निजी कार्यक्रम की संक्षिप्त जानकारी भी न देने का क्या कारण रहा होगा?
अर्जुनसिंह के बारे में माना जाता है कि वे बहुत देख परख कर ही किसी पर विश्वास करते थे। यह आकलन कभी सही रहा होगा किंतु परवर्ती घटनाचक्र बताता है कि कुछ ऐसे विश्वासपात्रों ने ही उन्हें वक्त आने पर धोखा दिया। राजनीति क्या, शायद जीवन के हर क्षेत्र में ऐसा ही होता है! इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। लेकिन अर्जुनसिंह के राजनीतिक सफर का अवलोकन करते हुए उस सवाल का ध्यान आता है जो उनके जीवन काल में ही उनकी पत्नी श्रीमती सरोज सिंह ने उठाया था व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को संबोधित था। सोनियाजी के सामने ऐसी क्या मजबूरी थी कि अर्जुनसिंह को प्रधानमंत्री पद न सही, लेकिन राष्ट्रपति पद के लिए भी उपयुक्त क्यों नहीं माना गया? मेरी अपनी समझ में, जैसा कि मैं पहले भी जिक्र कर आया हूं, इसके पीछे अंतरराष्ट्रीय राजनीति के दबाव थे। बहरहाल, मेरे साठ साल के पत्रकार जीवन में ऐसे तीन राजनेता मिले जो वैसे बाबूजी के मित्र व समकालीन थे, लेकिन जिन्होंने मुझ पर स्नेह रखते हुए मेरे साथ मित्रवत संबंध निभाए। अर्जुनसिंह के अलावा अन्य दो थे- इंद्रकुमार गुजराल और ए बी बर्धन। लेकिन मैंने हमेशा सतर्कता बरती कि इन संबंधों का दुरुपयोग न हो। ऐसे तीन-चार मौके आए जब किसी व्यक्ति ने या तो मेरे माध्यम से अर्जुनसिंह के निकट पहुंचना चाहा, या उनसे सीधे मिले तो बतौर जमानतदार मेरा नाम ले लिया। ऐसे हर अवसर पर मैंने उन्हें तटस्थ भाव से अपनी राय दी और किसी तरह से उनका निर्णय प्रभावित करने का प्रयास नहीं किया। इस सिलसिले में एक प्रसंग शायद पाठकों को रुचिकर लगे। देश- विदेश के शासन प्रमुखों को नि:संकोच अपना मित्र घोषित करने के लिए प्रसिद्ध दिल्लीवासी एक हमउम्र पत्रकार ने 1992 में मुझे प्रस्ताव दिया- नरसिंहराव मेरे मित्र हैं, अर्जुनसिंह आपके। हम दोनों मिलकर उनके बीच समझौता करवा देते हैं। मैंने उनको यह कहकर निराश किया कि राव साहब आपके मित्र होंगे लेकिन अर्जुनसिंह से मित्रता का मेरा कोई दावा नहीं है। (अगले सप्ताह जारी)
#देशबंधु में 08 अक्तूबर 2020 को प्रकाशित
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