Saturday, 3 October 2020

कविता: नए साल का चाँद

 


रोशनी का मेला है

चारों तरफ, शहर में

ऊपर-ऊपर

नियोन साइन, ट्यूब लाइट्स,

तेज पॉवर के लट्टू,

मरक्यूरी और सोडियम वैपर लैंप,

और उन सबसे ऊपर टिमटिमाते

लाल रौशनी के बल्ब,

टीवी और टेलीफोन की

मीनारों पर चेतावनी देते हुए,


मेले में बमुश्किल तमाम

अपने लिए जगह खोजता

अमावस से पहिले, किसी दिन,

मुरझाया सा चाँद

यहाँ-वहाँ टकराता, लड़खड़ाता,

रौशनी के सैलाब के नीचे

छाए अंधेरे से जूझता,

कहीं काले बादल

ब्लैककैट कमांडो,

कहीं पॉयलट कार के सिपाही

हवा के झोंके,

उसे धकियाते, दुरदुराते

चाक-चौबंद चकाचौंध में


मेले से बाहर फेंका जाता

रात के आखिरी पहर

थका, फीका, निस्तेज चाँद,


ठिठकता एक क्षण को

जाने के पहिले,

सलेटी चादर पर

वच्चे के धूल भरे पैर के निशान

की तरह,

और फिर

आहिस्ता खो जाता दूर कहीं,

दूर किसी एरोप्लैन की लुप्त होती

बत्ती की तरह,


पास यहीं कहीं तभी

गूंजती रेल के इंजन की सीटी,

फागुन के जाने का सिग्रल

चैत के आने का संकेत,

नए साल के साथ-साथ

नए चाँद आने की उम्मीद,


उम्मीद फिलहाल

अंधेरे और उजाले के बीच

कहीं ठहरी हुई,

चांद की उम्मीद

सुबह के उजाले में लापता,

अमावस की रात

जागती फिर से,


अमावस की रात

कि उम्मीद से कहीं ज्यादा डर,

डर बहुत गहरा,

चैत के चाँद को

हरने की जुगत में

बैठे जो हैं वे

घात लगाए,


वे जिन्होंने

चाँद से बच्चों को मारा,

चाँद सी बहनों-बेटियों को लूटा,

उजाले का किया जिन्होंने खून,

और चाँदनी को आग लगाई,


ले जाएंगे

चैत के चाँद को,

रखेंगे उसे सजाकर

रौशनी के मेले में

अपनी दूकान पर,

करेंगे गर्व के साथ

उसका इश्तिहार, 

चैत के चाँद पर है

उनका एकाधिकार,


पूछती है साल की आखिरी

अमावस की सहमी हुई रात

भोर के तारे से,

शो-केस में जब

कैद होगा उसका उपहार

नए साल का चाँद,

उसे बचाने की

तरकीब क्या होगी?


2003

No comments:

Post a Comment