माधवराव सिंधिया का नाम मैंने पहले-पहल 1958 में ग्वालियर में सुना, जहां वे ऊपर किले में स्थापित सिंंधिया स्कूल में विद्यार्थी थे। मैैं कुछ समय पूूर्व ही नागपुर से ग्वालियर पहुंचा था और बुआजी के बेटे अनुपम भैया के साथ नीचे नगर में स्थित जीवाजीराव इंटर कॉलेज में दाखिला लिया था। याद नहीं कि उनका नाम कब किनसे सुना लेकिन आखिरकार वे ग्वालियर रियासत के युवराज थे और अनुमान लगाना गलत न होगा कि छात्रों के बीच अपने इस हमउम्र किशोर के बारे में कौतूहल पूर्ण चर्चाएं होती होंगी! यह तो बहुुत बाद में पता लगा कि नागपुर के हमारे स्कूल मित्र बालेंदु शुक्ल ने भी उसी समय सिंधिया स्कूल में प्रवेश लिया था। वे आगे चलकर राजनीति में आए। उनकी एक खास पहचान माधवरावजी के बालसखा के रूप में बनी। हम जब ग्वालियर आए तब नए मध्यप्रदेश के गठन को मात्र दो साल हुुए थे। पूर्व महाराजा जीवाजीराव सिंधिया, मध्यप्रदेश में विलीन तत्कालीन बी क्लास मध्यभारत राज्य, के राजप्रमुख पद से निवृत्त हो चुके थे। पूर्व महारानी विजयाराजे सिंधिया यद्यपि कांग्रेस टिकट पर गुना से लोकसभा सदस्य थीं लेकिन मेरी स्मृति में दोनों की राजनीतिक सक्रियता का कोई प्रसंग मौजूद नहीं है। ग्वालियर में उन दिनों दो बड़े सालाना जलसे होते थे- ग्वालियर मेला और तानसेन समारोह। इनमें ये कभी आए हों तो मुुझे ध्यान नहीं है। विभिन्न पार्टियों से नरसिंह राव दीक्षित, रामचंद्र सर्वटे, राजा पंचमसिंह पहाड़गढ़, नारायण कृष्ण शेजवलकर, रामचंद्र मोरेश्वर करकरे, सरदार जाधव जैसे कुछ नाम ही सुनने मिलते थे। भिंड से विधायक दीक्षितजी काटजू सरकार में गृहमंत्री थे और शायद उस दौर में ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के सबसे प्रभावशाली नेता थे।
श्रीमती विजयाराजे सिंधिया 1962 में दुबारा कांग्रेस की ओर से ग्वालियर सीट से लोकसभा के लिए चुनी गईं थीं। पाठकों को संभवत: याद हो कि डॉ. राम मनोहर लोहिया ने उनके विरुद्ध सफाई कामगार समुदाय की सुक्खो नामक महिला को मैदान में उतारा था। बहरहाल, उनकी राजनीतिक सक्रियता यहां से लगातार बढ़ती गई। 1967 में उन्होंने पहली बार दलबदल कर स्वतंत्र पार्टी उम्मीदवार के रूप में लोकसभा चुनाव जीता लेकिन चंद दिनों बाद उन्होंने एक बार फिर दल बदला व जनसंघ की ओर से चुनाव लड़ विधानसभा में प्रवेश किया। उनके पदचिन्हों पर चलते हुए चार साल बाद अर्थात 1971 में संपन्न आम चुनाव में माधवराव सिंधिया भी जनसंघ टिकट पर जीत दर्ज कर राजनीति में आ गए। इसके पश्चात तीन आम चुनाव और बीत गए जिनमें श्री सिंधिया एक बार निर्दलीय और दो बार कांग्रेस टिकट पर विजयी हुए किंतु न जाने क्यों उनके साथ परिचय या संवाद का कोई संयोग लंबे समय तक नहीं बना। सन् 1985 में फोन पर ही पहली बार उनसे बात हुई जिसका माध्यम बने उनके मित्र और सहयोगी महेंद्र सिंह कालूखेड़ा। एक साल पहले राजीव गांधी की नितांत अभिनव पहल व व्यक्तिगत रुचि से इनटैक (इंडियन नैशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज) अर्थात भारतीय सांस्कृतिक निधि की स्थापना की गई थी। राजीवजी को इसका विचार इंग्लैंड के नेशनल ट्रस्ट को देखकर आया था जो वहां सांस्कृतिक/ सामाजिक/ शिल्पगत/ ऐतिहासिक महत्व की लाखों इमारतों का संरक्षण करता है। राजीव गांधी के साथ माधवराव सिंधिया इनटैक के संस्थापक सदस्यों में एक थे।
इस नवगठित प्रतिष्ठान के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए देश के सभी प्रदेशों व जिलों में उसके अध्याय स्थापित करने की योजना बनी। अनेक स्थानों पर पूर्व सामंत, आईएएस अधिकारी आदि जिला अध्याय के संयोजक मनोनीत किए गए। लेकिन रायपुर की जिम्मेदारी मुझ पर डाल दी गई, जिसकी अनुशंसा संभवत: महेंद्र सिंह जी ने ही की होगी! यहां सिंधियाजी के साथ जो संबंध बने उनका निर्वाह राजनीति से परे निजी स्तर पर अंत तक होता रहा। मेरी पहली प्रत्यक्ष भेंट उनसे तब हुई जब वे मंत्री भी नहीं बने थे। देशबन्धु के तत्कालीन दिल्ली ब्यूरो प्रमुख को किसी निजी प्रसंग में सिंधियाजी की सहायता से काम बन जाने का भरोसा था सो उनके आग्रह पर मैंने उनसे मिलने का समय लिया, उन्हें काम बताया और उन्होंने उदारता का परिचय देते हुए मदद कर दी। इधर इनटैक के समस्त संयोजकों का तीन-दिनी पहला सम्मेलन 1986 में भुवनेश्वर में आयोजित करना तय हुआ। इसमें रायपुर से संभागायुक्त शेखर दत्त व मैंने भागीदारी की। शेखर भाई कुछ माह पहले रायपुर पदस्थ हुए थे तथा इनटैक मुख्यालय ने संयोजक का दायित्व उन्हें सौंप दिया था। इस बीच सिंधियाजी केंद्र में स्वतंत्र प्रभार के साथ रेल राज्यमंत्री बन चुके थे। उन्होंने इनटैक सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में शिरकत करने के अलावा अनेक विभागीय कार्यक्रमों में भी भाग लिया जिनमें रेल मंत्रालय की राजभाषा समिति की भी एक बैठक थी। मंत्रीजी ने भांति-भांति के हिंदीसेवियों के साथ सुप्रसिद्ध कवि (स्व) चंद्रकांत देवताले तथा मुझे भी इस समिति का सदस्य हमारे बिना जाने ही मनोनीत कर दिया था। जैसी कि अधिकांश सरकारी कमेटियों की बैठकें होती हैं वैसी ही यह बैठक भी निबट गई।
लेकिन मैं नोट करना चाहूंगा कि यह मनोनयन मेरे प्रति सिंधियाजी के सद्भाव का एक उदाहरण था। श्री सिंधिया के साथ मेरी इक्का-दुक्का मुलाकातें चलती रहीं। एक बार रेल भवन के उनके कक्ष में भेंट हुई तो वे दीवाल पर लगे बड़े से मानीटर पर रेलगाड़ियों की आवाजाही का अवलोकन कर रहे थे। कहना न होगा कि तब रेल मंत्रालय के कामकाज को आधुनिक तकनीकी के उपयोग से व्यवस्थित रूप देने के लिए इस युवा मंत्री की खूब सराहना होने लगी थी। वे बातचीत कर रहे थे, फाइलें निबटा रहे थे और स्क्रीन पर भी नजर रख रहे थे। इसी बीच साथी मंत्री सलमान खुर्शीद आ गए तो उनसे भी मेरा परिचय करवाया। यह घटना यूं ही याद आ गई। इस मुलाकात के कुछ सप्ताह बाद ही उनकी सुपुत्री चित्रांगदा का विवाह दिसंबर 1987 में डॉ. कर्ण सिंह के सुपुत्र अजातशत्रु के साथ संपन्न हुआ। इस शाही विवाह की चर्चा भारत तो क्या, विदेशों तक में हुई। यह वही समय था जब मध्यप्रदेश की राजनीति में मोतीलाल वोरा- माधवराव सिंधिया की जोड़ी अर्जुनसिंह के खिलाफ़ खुलकर सामने आ गई थी। कांग्रेस के भीतर सिंधिया विरोधियों को अच्छा मौका मिला कि जनतांत्रिक व्यवस्था में एक मंत्री के द्वारा राजसी ठाट-बाट के साथ अपनी बेटी का विवाह किए जाने को सार्वजनिक निंदा का मुद्दा बनाएं। श्री सिंधिया स्वाभाविक ही इस घटनाक्रम से व्यथित हुए। उन्होंने मुझे फोन कर आग्रह किया कि मैं वस्तुस्थिति का जायजा लेने किसी पत्रकार को ग्वालियर भेजूं। उसके बाद जैसा ठीक लगे वैसा समाचार देशबन्धु में छप जाए। उन दिनों देश के कई नवधनाढ्यों के बीच वैवाहिक समारोहों आदि में वैभव के उन्मुक्त प्रदर्शन की मानों होड़ लगी थी। इस पृष्ठभूमि का संज्ञान लेते हुए हमने रिपोर्टिंग की। सिंधिया खानदान के तीन सौ साल के इतिहास व ग्वालियर अंचल में रियासती राज खत्म हो जाने के बावजूद उसकी प्रतिष्ठा तथा लोकप्रियता को देखते हुए उक्त विवाह समारोह में जो प्रबंध किए गए उसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था। यद्यपि सादगी बरती जाती तो एक अनुकरणीय आदर्श स्थापित होता।
मेरे निमंत्रण पर सिंधियाजी मायाराम सुरजन फाउंडेशन में व्याख्यान देने 1998 में रायपुर आए। उन्हें देखने-सुनने मेडिकल कॉलेज सभागार में भीड़ उमड़ पड़ी थी। इस कार्यक्रम में अजीत जोगी भी उनके साथ थे। कार्यक्रम के बाद सिंधियाजी हमारे घर भोजन के लिए आए, जहां नगर के अनेक बुद्धिजीवियों से उनका मिलना हुआ। यह दिलचस्प तथ्य है कि एक समय वह भी आया जब अर्जुनसिंह और सिंधिया दोनों नरसिंहराव के खिलाफ़ एकजुट हुए। अभी वह हमारी चर्चा का विषय नहीं है।
सिंधियाजी से मेरी आखिरी भेंट लोकसभा के उनके कक्ष में हुई। वे उस रोज मुझे बहुत उदास लगे। कॉफी पीते-पीते उन्होंने कहा- ललितजी, अब सब तरफ से मन ऊब गया है। लगता है जितना जीवन जीना था जी चुके हैं। मैंने उन्हें टोकते हुए कहा- ऐसा क्यों कहते हैं। आप और हम एक उम्र के हैं। अभी तो हमारे सामने लंबा समय पड़ा है। आपको तो अभी न जाने कितनी जिम्मेदारियां सम्हालना है। यह प्रसंग जून-जुलाई 2001 का है। दो माह बाद ही 30 सितंबर को विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो ग्ई। मैं आज भी सोचता हूं कि क्या उन्हें मृत्यु का पूर्वाभास होने लगा था!! (अगले सप्ताह जारी)
#देशबंधु में 22 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित
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