मैने खींची तस्वीर
जगन्नाथपुरी में
समुद्र पर सूर्योदय की,
तैरती डोंगियों और
हवा में ठहरे जाल की,
लेकिन मछुआरों को
कर दिया मैंने
दृश्य से नदारद,
मैने खींची तस्वीरें
बस्तर और बालाघाट में,
साल और सागौन के जंगलों की
और तेंदूूपत्ते की,
लेकिन दूर हटा दिया मैंने
बीडी पत्ता तोड़ते और
साल बीज बीनते मजदूर को,
मैने खजुराहो-कोणार्क में
हालीबिड-बेलूर में खींची तस्वीरें
यक्ष, किन्नर और देवताओं की,
नृत्य करती रमणियों की,
और मिथुन मुद्राओं की,
लेकिन शिल्पी की,
पचासवीं पीढ़ी की,
कर नहीं पाया मैं तलाश,
मैंने मैसूर में चित्र लिए
राजप्रासाद के और दशहरे के,
हाथी की सवारी के,
चांदी के दरवाज़े
और सोने के छत्र के,
लेकिन अंगरेज बहादुर ने दिए
जो तमगे, खिताब और सनद
उनकी तस्वीरें लिए बिना
ही लौट आया मैं,
जबलपुर से आकर बैठे महादेव
तंजोर के मंदिर में
मैंने उनकी तस्वीर उतारी,
उन्होंने बनाया जो उत्तर से
दक्षिण का पुल,
देखा उसे मंदिर में ही,
बाहर सड़क पर आने पर
हो गया वह
मेरी आंखों से ओझल,
हसदो- बैराज पर खड़े होकर
उतारी मैंने
सूर्यास्त की तस्वीर,
हीराकुड, गंगरेल में भी
लिए मैंने बांध के चित्र,
स्लूस गेट और नहरों के,
लेकिन चले गये जो मजदूर
और इंजीनियर खेमा उखाड़कर
कैमरा पीछा नहीं कर पाया उनका,
मैं आमसभाओं में गया
और जलसों में,
लिए राजपुरुषों के फोटो
शिलान्यास करते हुए
उद्घाटन करते हुए
और भाषण-उपदेश देते हुए,
मैंने उनके चेहरों की
चमक को किया कैद,
कैमरा घुमाया भीड़ पर भी
उसके चित्र भेजे अखबारों में,
लेकिन सामने बैठे लोग
थे निर्विकार या थी
उनके मन में बेचैनी,
मैं पकड़ नहीं पाया,
होता हैं ऐसा मेरे साथ अक्सर
खींचता हूँ फूल और
बागीचों की तस्वीरें
उनमें माली नहीं आ पाता
मंदिरों के चित्रों से
हो जाता है पुजारी गायब,
इमारतें छा जाती हैं
लेकिन कारीगर दिखाई नहीं देता,
इस कैमरे से काम
लेना नहीं आता मुझे,
सौंप दूंगा अपने बच्चों को इसे
वे मुझसे बेहतर और सही
तस्वीरें खींच पायेंगे।
16.09.1989
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