Wednesday, 28 October 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 21

 


अविभाजित मध्यप्रदेश में तीन बार गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं, क्रमश: 1967, 1977 और 1990 में । इनके बाद 2003 में मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में फिर एक बार जो गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं तो कुछ इस तरह कि अगले पंद्रह साल तक कांग्रेस उन्हें हिला नहीं पाई। दोनों प्रदेशों में फर्क यही रहा कि जहां छत्तीसगढ़ में इस अवधि में एकमात्र डॉ रमन सिंह को लगातार तीन बार मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला, वहीं मध्यप्रदेश ने उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराजसिंह चौहान इस तरह तीन-तीन मुख्यमंत्रियों का राज देख लिया। 2018 के विधानसभा चुनावों में लंबी प्रतीक्षा के बाद कांग्रेस को सत्ता में आने का मौका मिला, लेकिन मध्यप्रदेश में कमलनाथ बमुश्किल तमाम मिली इस जीत को सम्हाल कर नहीं रख सके। इसके कारण जो भी रहे हों। वैसे अधिकतर प्रेक्षकों की राय है कि नाम भले ही कमलनाथ का रहा हो, सरकार कोई और ही चला रहा था। दो साल पूरे होने के पहले ही उनकी कुर्सी चली गई तथा शिवराजसिंह के नेतृत्व में वहां पांचवीं बार गैर-कांग्रेसी सरकार सत्ता में आ गई। गौरतलब है कि जहां 1967 में संविद नामक गठबंधन ने सत्ता हथियाई थी, वहीं 1977 में सरकार बनाने का मौका जनता पार्टी को मिला था, जबकि 1990 और 2003 तथा उसके बाद अन्य कोई दल न होकर एकमेव भारतीय जनता पार्टी ही सत्तासीन रही है।

1967 में लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव आखिरी बार साथ-साथ संपन्न हुए थे। लोकसभा में कांग्रेस को कामचलाऊ बहुमत मिला था, गो कि विधानसभा में सर्वत्र उसे विजय मिली थी। इस दौर में डॉ राममनोहर लोहिया द्वारा दिए गए गैरकांग्रेसवाद के नारे ने सारे विपक्षी दलों को बेहद आकर्षित किया था। उनके मन में बैठ गया था कि अगर सत्ता सुख भोगना है तो उन सबको कांग्रेस के खिलाफ़ साथ आना ही पड़ेगा। इस सोच के तहत अनेक राज्यों में संविद अर्थात संयुक्त विधायक दल का गठन हुआ। जहां कांग्रेस के खिलाफ़ संख्या बल में कमी थी, वहां दलबदल को प्रोत्साहित किया गया तथा अभूतपूर्व उत्साह के साथ खिचड़ी सरकारें बनाईं गईं। शेर और बकरी एक घाट पर आ मिले। उत्तर प्रदेश की संविद सरकार में जनसंघ के साथ समाजवादी दल ही नहीं, भाकपा और माकपा के विधायक भी मंत्री बने। भाकपा के झारखंडे राय तथा माकपा के रुस्तम सैटिन के नाम मुझे अभी तक याद हैं। डॉ लोहिया के इस कांंग्रेस विरोधी प्रयोग की परिणति धुर दक्षिणपंथी जनसंघ/ भाजपा के दिनोंदिन मजबूत होने व समाजवादी तथा साम्यवादी दलों के उसी अनुपात में अशक्त होते जाने में हुई। यह हम और आप आज देख ही रहे हैं।

मध्यप्रदेश में भी श्रीमती विजयाराजे सिंधिया के उत्कट परिश्रम व संसाधनों की बदौलत बड़े पैमाने पर दलबदल हुआ। इन दलबदलुओं में कुछ पुरानी रियासतों के वारिस थे तो कुछ उनके दरबारी या सेवक। ये सभी सामंती परंपरा व  शिष्टाचार के चलते स्वाभाविक रूप से श्रीमती सिंधिया के दवाब में थे। इस तरह संविद सरकार बनी। कहने को यह गैर-कांग्रेसी सरकार थी लेकिन इसके मुखिया एक पूर्व कांग्रेसी और विंध्यप्रदेश के छोटे-मोटे सामंत गोविंद नारायण सिंह बनाए गए। मंत्रियों में भी अनेक पूर्व कांग्रेसी थे। लोहियावादी सोच का प्रतिनिधित्व करने वालों में मुझे अनायास एक मंत्री का ध्यान आ रहा है जो समाजवादी पार्टी के कोटे से लिए गए थे। इंदौर के आरिफ बेग आगे चलकर भाजपा में शामिल हो गए और पार्टी द्वारा यथेष्ट रूप से पुरस्कृत किए गए। दलबदल का पुरस्कार उन्हें खाद्य मंत्री बना कर दिया गया था। रायपुर के विधायक पूर्व कांग्रेसी शारदाचरण तिवारी इस सरकार में वरिष्ठ मंत्री थे। उन्होंने एक नए दल के बैनर पर चुनाव लड़ा व जीता था। इसलिए तकनीकी रूप से वे दलबदलू नहीं थे। संविद सरकार के दौरान प्रदेश का प्रशासन तंत्र पूरी तरह लुंज-पुंज हो गया था। इस सरकार की रीति-नीति का विरोध करने के कारण देशबंधु को जो कष्ट झेलना पड़े, उनका उल्लेख इस लेखमाला के पहले खंड "देशबन्धु के साठ साल" में हो चुका है। गनीमत थी कि यह सरकार दीर्घावधि नहीं चली। 

1977 में एक ओर जहां जनता पार्टी ने केंद्र से कांग्रेस को अपदस्थ किया, वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश में भी संविद के इस नए अवतार को बहुमत हासिल करने का अवसर मिला। लगभग एक दशक के अंतराल के बाद दूसरी बार एक गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। इसमें जनसंघ के अलावा मुख्यत: समाजवादी पार्टी ही दूसरा घटक दल था। मुख्यमंत्री का पद बड़े घटक जनसंघ के वरिष्ठ नेता कैलाश जोशी को मिला, लेकिन अपने दल के भीतर चल रही खींचतान के कारण वे लगभग सात माह ही इस पद पर रह पाए। उल्लेखनीय है कि जनसंघ का प्रभाव मालवा अंचल यानी कि पश्चिमी मध्यप्रदेश में ही अधिक था। लगभग तीन साल की अवधि में पार्टी के जो तीन मुख्यमंत्री  बने वे सभी मालवा से थे। कैलाश जोशी को अल्पावधि में ही पद त्याग करना पड़ा तो उसका मुख्य कारण मेरी राय में यही था कि सत्ता पाने या सत्ता में बने रहने के लिए जो कुटिलता और निर्ममता दरकार होती है, वे उससे कोसों दूर थे। इसके विपरीत वे संबंधों को निभाने में विश्वास रखते थे। मैंने इस लेखमाला के पहले खंड में जिक्र किया है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद जब वे पहली बार रायपुर आए तो विमानतल पर हमारे संवाददाता से उन्होंने पूछा कि मायारामजी कहाँ है। यह जानकर कि वे जबलपुर में हैं, जोशीजी ने कहा कि हम तो उनके घर भोजन करने आए थे। परिणाम यह हुआ कि उनके अगले रायपुर दौरे के समय बाबूजी ने अपने सारे कार्यक्रम स्थगित कर दिए और जोशीजी हमारे घर भोजन हेतु आए। 

ऐसे निश्छल, उदार व्यक्तित्व के धनी राजनेता के साथ उनकी पार्टी ने सामान्य समय में भी कैसा सुलूक किया, उसका एक उदाहरण मेरे सामने का है। 1997-98 में हमने मायाराम सुरजन फाउंडेशन के अंतर्गत स्वाधीनता की स्वर्ण जयंती पर एक व्याख्यानमाला का आयोजन किया था। इसमें जोशीजी को भी आमंत्रित किया तो सहज भाव से उन्होंने स्वीकार कर लिया। कार्यक्रम के एक दिन पहले मालूम हुआ कि रायपुर में भाजपा का अपने वरिष्ठतम नेता के स्वागत का कोई इरादा नहीं है। तब मैंने नगर विधायक बृजमोहन अग्रवाल से कहा कि कम से कम उन्हें तो स्वागत हेतु स्टेशन चलना चाहिए।बृजमोहन ने मेरी बात का मान रखा। अगले दिन छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पर भाजपा की ओर से अकेले वे ही जोशीजी की अगवानी के लिए उपस्थित थे। एक लंबा समय बीत गया। जोशीजी भोपाल से भाजपा टिकट पर लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। छोटे भाई पलाश ने उनसे मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के पुस्तकालय हेतु सांसद निधि से सहयोग का निवेदन किया। जोशीजी ने तुरंत समुचित धनराशि का आबंटन कर दिया। आज जब राजनीति में हर तरफ संकीर्णता बढ़ती जा रही है, तब कैलाश जोशी जैसे व्यक्ति की अनुपस्थिति पहले से कहीं अधिक खटकती है।

मध्यप्रदेश में जनता पार्टी या जनसंघ की सत्ता के इस दौर में कैलाश जोशी के बाद वीरेंद्र कुमार सकलेचा व उनके बाद सुंदर लाल पटवा मुख्यमंत्री बने। सकलेचाजी को एक साल और पटवाजी को एक माह से भी कम समय मिला। सुंदरलाल पटवा 1990 में मुख्यमंत्री बनकर लौटे व इस बार तीन साल सत्तारूढ़ रहे। सकलेचाजी के बारे में मैं पहले लिख चुका हूं। पटवाजी के संबंध में मेरा अनुभव है कि दलीय सीमाओं के बावजूद वे एक व्यवहारकुशल व्यक्ति थे। उनके कार्यकाल में ही सरगुजा में भूख से मौत की खबर एकमात्र देशबंधु में छपी जिसकी देशव्यापी प्रतिक्रिया हुई किंतु पटवाजी ने उसे भी अन्यथा नहीं लिया। वे जब केंद्र में मंत्री बने तब भी मेरी उनसे दो-एक बार मुलाकात हुई और हर बार सौजन्यपूर्ण वातावरण में। सुश्री उमा भारती ने 2003 में मध्यप्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनकर एक रिकॉर्ड स्थापित किया। उन दिनों हमने बालाघाट में बतौर प्रयोग अखबार की फ्रेंचाइजी किसी को दी थी। चुनाव अभियान के दौरान बालाघाट संस्करण में देशबंधु की स्थापित नीति की अनदेखी कर सुश्री उमा भारती के विरुद्ध एक रिपोर्ट छप गई। मैंने जैसे ही अखबार देखा, फ्रेंचाइजी तुरंत निरस्त की और किसी खंडन-मंडन की प्रतीक्षा किए बिना अपनी ओर से अखबार में वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हुए सुश्री भारती से क्षमा याचना की। वैसे उनके साथ पहले या बाद में मेरा कोई संपर्क नहीं रहा। उनके उत्तराधिकारी बाबूलाल गौर से हमारा परिचय 1974 से था जब वे पहली बार चुनाव मैदान में उतरे थे। उनके बाद शिवराजसिंह चौहान से मुख्यमंत्री बनने के कुछ दिन बाद जो एक औपचारिक मुलाकात हुई, वह पहली और अब तक की आखिरी भेंट सिद्ध हुई।  (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 29 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित

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