Wednesday, 14 October 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार-19

 


छत्तीसगढ़ की राजनीति के अध्येता जानते हैं कि मोतीलाल वोरा के राजनीतिक जीवन की शुरुआत राजनांदगांव से हुई थी, जब वे वहां एक निजी बस कंपनी में काम करते थे। वोराजी के बारे में सोचते-सोचते अनायास मेरा ध्यान इन बस कंपनियों से संबंधित एक लगभग अनजाने और अचर्चित पक्ष की ओर चला गया। पुराने मध्यप्रांत व बरार में सेंट्रल प्राविंसेज ट्रांसपोर्ट सर्विस  (सीपीटीएस) नामक सार्वजनिक बस सेवा चलती थी जो अपनी उत्तम सेवा के लिए जानी जाती थी। उधर मध्यभारत में भी मध्यभारत रोडवेज़ नाम से सार्वजनिक बस सेवा संचालित होती थी। जब 1 नवंबर 1956 को नए मध्यप्रदेश का गठन हुआ तब भी काफी समय तक ये दोनों सेवाएं विद्यमान रहीं। आश्चर्य का विषय है कि छत्तीसगढ़ को न इसके पहले और न इसके बाद सीपीटीएस की सेवाओं का लाभ मिला! यहां सिर्फ निजी कंपनियों को ही यात्री बस चलाने की अनुमति थी। द्वारका प्रसाद मिश्र ने मुख्यमंत्री बनने के बाद 1964 में छत्तीसगढ़ में निजी कंपनियों के एकाधिकार को तोड़ते हुए सीपीटीएस की सेवा प्रारंभ की, जिसमें रायपुर की सिटी बस सेवा भी शामिल थी। निजी कंपनियों को यह एकाधिकार कैसे मिला, उससे किन राजनेताओं को लाभ मिला, इस पर शायद आज तक कोई रिसर्च नहीं हुई है, जो होना चाहिए थी। 

खैर, वोराजी ने राजनांदगांव बस स्टैंड पर महात्मा गांधी की आवक्ष प्रतिमा लगाने का विचार किया। यह सार्वजनिक जीवन में उनका पहला कदम या एंट्री प्वाइंट था। इसे मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने बस यात्रियों व नागरिकों से आर्थिक सहयोग की अपील की। उनका यह शुभ संकल्प पूर्ण होते देर न लगी। कुछ समय बाद वोराजी शायद उसी कंपनी में तबादले पर ज़िला मुख्यालय दुर्ग आ गए। यहां भी सार्वजनिक/राजनीतिक जीवन में उनका सक्रियतापूर्वक भाग लेना जारी रहा। इस बीच वे डॉ. लोहिया की समाजवादी पार्टी (संसोपा) छोड़ कांग्रेस में आ गए थे। तब तक रायपुर अखबारों के एक नए प्रकाशन केंद्र के नाते विकसित हो चुका था। वोराजी को इनमें से किसी पत्र ने अपना संवाददाता नियुक्त कर दिया था। इसका कुछ न कुछ लाभ होना ही था। उधर बस कंपनी में भी वे प्रगति के सोपान तय कर रहे थे। मैं पहली बार जब वोराजी से उनके कार्यालय में मिला, तब वे कंपनी के प्रबंध संचालक या मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर थे। निश्चित ही वे व्यवसायिक और व्यवहारिक बुद्धि के धनी थे, किंतु उन्हें जो लोकप्रियता हासिल हुई उसका श्रेय उनकी मिलनसारिता, शालीनता व सहज आचरण को देना होगा। 

दुर्ग में मोतीलाल वोरा की राजनीतिक पारी तब की नगरपालिका के पार्षद चुने जाने के साथ हुई थी। उन्होंने नगर के विकास कार्यों के साथ सदन को विधि-विधान के अनुसार संचालित करने में भी गहरी दिलचस्पी ली। यद्यपि अपवाद स्वरूप एक अवसर आया जब उन्होंने नगरपालिका की कार्रवाई पुस्तिका के पन्ने फाड़ दिए। भावावेश में उठाए गए इस कदम के कारण उन्हें सार्वजनिक  आलोचना का सामना भी करना पड़ा। बहरहाल, उनकी छवि एक लोकप्रिय जननेता के रूप में उभर रही थी, जिसका पुरस्कार उन्हें 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस टिकट मिलने और फिर जीत के रूप में मिला। मुख्यमंत्री पी सी सेठी ने नवनिर्वाचित विधायक के व्यवसायिक अनुभव को ध्यान में रख उन्हें राज्य परिवहन निगम का उपाध्यक्ष भी जल्दी ही नियुक्त कर दिया, जहां उन्हें बेदाग छवि के वरिष्ठ विधायक व निगम के अध्यक्ष सीताराम जाजू के साथ काम करने का अवसर मिला। उनको पद दिए जाने के बारे में संभव है कि वरिष्ठ मंत्री किशोरीलाल शुक्ल की अनुशंसा रही हो, जिनकी प्रेरणा से वोराजी कांग्रेस में आए थे! विधायक वोराजी ने अपने विधानसभा क्षेत्र का हर समय ध्यान रखा तथा जनता के विश्वास को टूटने का कोई मौका नहीं आने दिया। फलस्वरूप वे 1990 तक लगातार पांच बार विधायक निर्वाचित होते रहे। 

यह सर्वविदित है कि 1985 में अर्जुनसिंह को एकाएक पंजाब भेजे जाने के बाद मोतीलाल वोरा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। उस समय वे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे और माना जाता है कि वे मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह के विश्वासभाजन थे। उन्हें मुख्यमंत्री का पद सौंपने का निर्णय अंतत: तो राजीव गांधी ने ही लिया होगा, लेकिन उसमें भी श्री सिंह की अनुशंसा या सहमति थी। पी सी सेठी, किशोरीलाल शुक्ल, अर्जुनसिंह- ये सभी कांग्रेस में एक साथ थे व वोराजी को भी उनके खेमे में माना जाता था। इसलिए राजनीतिक प्रेक्षकों को आश्चर्य हुआ जब वोराजी ने सिंधियाजी के साथ मिलकर मोती-माधव एक्सप्रेस चला दी। क्या माधवराव सिंधिया मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनना चाहते थे? शायद हां, जैसा कि कुछ साल बाद स्पष्ट हुआ। क्या वोराजी सिंधियाजी की राजीव गांधी से मित्रता का लाभ लेकर राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी पहचान स्थापित करना चाहते थे? क्या उन्हें आशंका थी कि अर्जुनसिंह के वापस आने पर उनका सितारा धूमिल हो सकता है? क्या इसके पीछे नरसिंह राव और शुक्ल बंधुओं की अप्रत्यक्ष भूमिका थी? जो भी हो, वस्तुस्थिति तो तभी पता चलेगी जब स्वयं वोराजी उसे प्रकट करना चाहेंगे!

मोतीलाल वोरा ने मुख्यमंत्री बनने के बाद छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण से संबंधित दो निर्णय लिए जो मुझे निजी तौर पर नहीं जंचे। एक तो मेरे प्रस्ताव पर जो पशुपालन महाविद्यालय बिलासपुर में स्थापित होना था, उसे वोराजी अपने विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत अंजोरा गांव में ले आए। वैसे यह कोई बड़ी बात नहीं थी। सब नेता ऐसा करते हैं। दूसरे, प्राधिकरण का कार्यालय भोपाल से हटाकर रायपुर ले आया गया। उसके उद्घाटन के समय महज एक बैठक हुई, तत्पश्चात प्राधिकरण को ही समाप्त कर दिया गया। इससे वोराजी को क्या लाभ हुआ, वे ही बता सकते हैं। दूसरी ओर उन्होंने अपने कई ऐसे परिचितों को सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया, जिनके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ संबंध छुपे हुए नहीं थे। अभी यह अध्ययन होना भी बाकी है कि उनके कार्यकाल में बस्तर में नक्सलवाद या माओवाद का जो फैलाव हुआ, उसके पीछे उनकी सरकार की नीतियां किस सीमा तक जिम्मेदार थीं! 

शुरुआत में देशबन्धु के प्रति वोराजी का रुख न जाने क्यों किसी हद तक उपेक्षा का था। उनके साथ बरसों से जो सौहार्द्रपूर्ण संबंध चले आ रहे थे, उसमें एकाएक बदलाव आ गया। क्या यह अचानक उच्च पद पर पहुंच जाने का अहंकार था या फिर उनके कोई सलाहकार इस हेतु जिम्मेदार थे? जो भी हो, यह स्थिति लंबे समय तक नहीं खिंची और जल्दी ही पूर्ववत संबंध कायम हो गए। जबलपुर में प्रेस को आबंटित भूखंड हमने अर्जुनसिंह के आग्रह पर लौटा दिया था, क्योंकि जबलपुर-2 विधानसभा क्षेत्र के प्रत्याशी ललित श्रीवास्तव को उस स्थान पर भवन निर्माण से समुदाय विशेष के वोट कटने की आशंका थी। श्री सिंह ने सुरेश पचौरी को यह संदेश देने मेरे पास रायपुर भेजा था। वोराजी के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद नया भूखंड मिलने में समय तो लगा लेकिन अंतत: काम हो गया। वोराजी ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कोषाध्यक्ष के अलावा राज्यसभा सदस्य रहते हुए भी हमारे हितों का ध्यान रखा व मेरे अनुरोधों की रक्षा की।

वोराजी एक कर्मठ व्यक्ति हैं। वे कठोर परिश्रम कर सकते हैं और परिस्थिति के अनुसार नई बातें सीखने तत्पर रहते हैं। इन गुणों का परिचय उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद मिला। एक चुटकुला चल गया था कि वोराजी सुबह छह बजे तैयार होकर बैठ जाते हैं और स्टाफ को निर्देश देते हैं कि कोई मिलने आया हो तो बुलाओ। इसमें समझने लायक सच्चाई यही है कि वे अठारह घंटे काम कर सकते थे और बढ़ती आयु के बावजूद अभी दो साल पहले तक वाकई कर रहे थे। दूसरे, हम जानते हैं कि वोराजी की औपचारिक शिक्षा अधिक नहीं हुई है, लेकिन स्वाध्याय से उन्होंने इस कमी को दूर किया है। वोराजी ने गांधीजी पर विशद अध्ययन किया है तथा गांधी दर्शन पर एक पठनीय पुस्तक की रचना भी की है। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहते समय उन्होंने राजभवन में एक गांधी संग्रहालय की भी स्थापना की। अपने इन गुणों के बल पर वे सत्ता और संगठन दोनों में सम्मानपूर्वक लंबी पारी खेलने में सफल हुए हैं। आज तिरानवें वर्ष की आयु में जब वे सार्वजनिक जीवन से लगभग विदा ले चुके हैं, तब मुझे वह शाम याद आती है जब भारत-सोवियत मैत्री संघ द्वारा आयोजित लेनिन जयंती कार्यक्रम में हमने विधायक वोराजी को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया और वे दुर्ग से अपना स्कूटर चलाते हुए रायपुर आ गए थे। ऐसी सहजता आज दुर्लभ और अकल्पनीय है। (अगले सप्ताह जारी) 

#देशबंधु में 15 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित

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