मैने बच्चों को पढ़ने भेजा
कान्वेन्ट स्कूल में,
पत्नी से कहा-
पढ़ लेंगे अंग्रेज़ी तो
नौकरी मिल जाएगी ठीक से,
मैने कोशिश की कि
बच्चे सीख लें अच्छे मैनर्स,
घर आए अंकल-आंटी को
सुनाएं नर्सरी राइम्स और
कहना सीख लें
पड़ौसी के बच्चों की तरह
गुड मार्निग और गुड नाइट,
मैने पूछा बच्चों से-
पाकिट मनी कितनी चाहिए,
मैं उन्हें पैसे देता हूँ
चॉकलेट और थम्सअप
खरीदने के लिए,
बड़े होगे कुछ दिन बाद
तो लूना खरीद दूंगा,
मना नहीं किया मैने
उन्हें वीडियो पर फिल्म देखने से,
चाहता इतना ज़रूर हूं
देखा करें वे रामायण
और इतवार को महाभारत,
सुनाई नहीं कभी कहानियाँ
बचपन में दादी से सुनी हुई,
बच्चों को किया
टेलीविजन के हवाले,
कहा उससे- हो तुम ही
अब धाय मां इनकी,
मैं लेकर कभी गया नहीं
बच्चों को बागीचे में,
देखें पत्तियों का रंग बदलना
और कली का फूल में बदलना,
वे पहिचान लें पेड़ों-झाड़ियों को,
ज़रूरत कभी समझी नहीं ऐसी,
रात गए कभी आँगन में
बैठा नहीं मैं बच्चों के साथ,
दिखाया नहीं उन्हें ध्रुवतारा
पहिचान सप्तर्षि से करवाई नहीं
उन्हें दिखाई नहीं आकाशगंगा
और न दिन में इन्द्रधनुष,
साथ उन्हें लेकर रुका नहीं
चीटियों की बांबी के पास,
दिखाए नहीं बया के घोंसले
न मधुमक्खी के छत्ते कभी,
समझाया मैने हमेशा उनको
करें नहीं दोस्ती मोहल्ले के
गंदे आवारा बच्चों के साथ,
बसते हैं चोर-उचक्के वहाँ
जाएं न वे झोपड़ियों की तरफ,
सीख उन्हें दी इसके साथ
ईश्वर पर रखें भरोसा,
और याद रखें
भाग्य बहुत बड़ी चीज़ है,
भाव उन्हें सब्जी के मालूम नहीं
लेकर कभी गया नहीं मंडी तक,
अभी ज़रूरत भी है क्या ऐसी
खेलने-कूदने के दिन हैं उनके,
मैं कहता हूूं उनसे
पढ़ें -लिखें मस्त रहें,
जब तक हम हैं
फिक्र करें न किसी बात की,
आखिर मां-बाप
होते किसलिये हैं?
1989
नोट: इस कविता के बिंब तीस साल पहले के हैं लेकिन मैं उम्मीद करता हूँ कि आधुनिक भावबोध को व्यक्त करने में ये सक्षम सिद्ध होंगे।
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