Thursday, 30 July 2020

कविताएं: 1 पेड़ों की ताकत 2 नमकहलाल 3 मायाजाल

पेड़ों की ताकत

नदी की रेत पर बैठे
पास उस झाड़ी की
ओट से झाँकता वह
दूर का सितारा
पहाड़ी सड़क पर
मोड़-दर-मोड़ गुजरती
बत्तियां ज्यों किसी ट्रक की

एक झाड़ी और फिर
उससे बनता हुआ झुरमुट
जिसने सितारे अपनी
हथेलियों में थाम
रेत पर लुढ़का दिए
रोशनी नाव बनकर
पानी की सतह पर तैर आयी

सितारे, जुगनू, हेडलाईट
जंगल की शिराओं में दौड़ते हुए
कि काली चट्टानों के मुखालिफ
रोशनी ट्रक के कन्धों पर सवार
पत्तियों-डालियों के होठों पर
लौटती सहज मुस्कान

झडिय़ों से झुरमुट, फिर
झुरमुटों से जन्म लेता जंगल
बार बार जिसे
नीलाम करने की कोशिश
कि जंगल के पेड़
जड़ से फुनगी तक
दरवाजे-चौखट--खंभे-खिड़की बनें
मालिक के इशारे पर
खड़े-आड़े, खुलते-बंद होते रहें

कलकत्ता की बस
बम्बई की रेलगाड़ी
भिलाई का पावरहाउस
रायपुर का कुन्दरापारा
हर जगह जहाँ
जंगल को तोड़ने की कोशिश
रोशनी रह-रहकर चमकती है।

किसी झाड़ी की ओट से
कभी बादलों को चीर कर
कभी सड़क के मोड़ पर
या छप्पर की सेंध से
कि पेड़ अपने पांवों में
नई ताकत महसूस कर लें
जमीन के नीचे तक धँसी
जड़ों से फिर फिर
उठ खड़े होने के लिए

1978

नमकहलाल

ट्रक पर लदे हुए लोग हैं
लोग आदिवासी हैं

निगम की बस है
बस लाल डिब्बा है
कितना लम्बा सफर है
सतपुड़ा के जंगल हैं
नर्मदा की घाटी है
टेसू की आग है
सागौन की छाया है
इतना लम्बा सफर है
सफर कट तो जायेगा ही

प्रायवेट बस है
ज्यादा दूर नहीं चलती
घाटे में नहीं चलती
रास्ते में नहीं बिगड़ती
ठेंगा दिखाती है
प्रायवेट बस है
उनका सिंहासन है

लोग आदिवासी हैं
बाकी भी कहीं के निवासी हैं
ट्रक उनका रथ है
निगम बस पुष्पक है
कितने अच्छे सारथी
मजे की सवारी है
सड़क के बायीं ओर
ट्रक से उतरे हुए
ट्रक में चढ़ने के लिए
चलते हुए लोग हैं

लोग आदिवासी हैं
लोग श्रवण कुमार हैं
कन्धे पर काँवर है
काँवर में लकड़ी है
तेंदू है, महुआ है
आम के टिकोरे हैं

काँवर खाली है
कंधे पर पोटली है
पोटली में नमक है
नमक खरीदकर लाये हैं
हुजूर का अहसान है

आदिवासी श्रवणकुमार है
लोग नमकहलाल हैं।

1976


मायाजाल

मुट्ठी भर चावल की कीमत
श्लोक भर संस्कृत,
गुरुजी थोक के भाव श्लोक बेचते हैं
या मुट्ठी में भर-भर
अक्षत मन दिमाग निचोड़ते हैं

गुरुजी हों या बाबा
उधर कंठी इधर माला,
कंठी के मनके
बाबा की अँगुलियों पर सरकते हैं,
ज्यों-ज्यों दक्षिणा के थाल में
रुपए-नोट-सिक्के गिरते हैं, खनकते हैं

मनकों का अंकगणित
रामनाम-नोटों की गिनती-भक्तों की संख्या,
रामजी मन्दिर में
नोट थाली से तिजोरी में
भक्त जंगल से श्रीचरणों में
भक्त भले-भोले, उन के
होठों पर श्लोक गोया
आटे में रेत
दिमाग में मसीहा, याने
बालों में जूं,

भक्त वह सागौन तन
जो सतपुड़ा की चोटी पर तना
गुरुजी के पैरों
 
क्यों कर डालियों  झुका?
भक्त वह जंगल मन
आकाश भुज भेंटने का संकल्प
बाबा के आश्रम पहुँच कैसे रुका? 
भक्त-
काँवर खाली ही सही
कंधे पर उठा,
हथेलियाँ खुली हैं 
उलीच दे श्लोक,
पूजा के फूल, 
मसीहा के नाम
दोस्त ! हथेली बंद कर कि
मुटठी में तेरी जकड़ी हुई कुल्हाड़ी हो ।


1978



देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 8



नैनीताल में शहर से लगभग बाहर हनुमानगढ़ी के पास दो कमरों का एक साधारण सा मकान था, जो हमने गर्मी की छुट्टियां बिताने किराए पर ले रखा था। किराया मात्र 5 रुपए प्रतिदिन। यह 1962 की बात है। एक दिन बाबूजी ने एक संदेश लिखा, मुझे आदेश हुआ तारघर जाकर इसे भेज दूं। यह तार प्रकाशचंद सेठी को बधाई देने के लिए था, जिन्हें उस दिन पं. नेहरू ने उपमंत्री के रूप में अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था। बाबूजी का सेठीजी के साथ काफी पुराना परिचय था, शायद तब से जब वे कांग्रेस की ओर से संगठन चुनाव में पर्यवेक्षक बनकर जबलपुर आए थे। खैर बात आई-गई हो गई। 

इंदिरा गांधी के कार्यकाल में उनके राजनैतिक महत्व का पता तब चला, जब 1972 में सेठी जी को अचानक ही मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर भोपाल भेज दिया गया। उनके आने के कुछ दिन बाद ही एक दिलचस्प वाकया हुआ। मध्यप्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी बदस्तूर पचमढ़ी में लगा करती थी। संयोग से कई साल बाद बाबूजी भी पूरे कुनबे सहित पचमढ़ी में छुट्टी बिता रहे थे। मैं रायपुर में था। स्वाभाविक था कि बाबूजी नए मुख्यमंत्री एवं अपने पूर्व परिचित से मुलाकात करते। मुलाकात का समय निर्धारित हो गया। लेकिन दिल्ली से आया स्टाफ शायद बाबूजी को नहीं जानता था। यह पचमढ़ी में बाबूजी का आखिरी दिन था। कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद वे लौट आए और पिपरिया के लिए रवाना हो गए। आधी रात को पिपरिया में घर के बाहर पुलिस की गाड़ी रुकी, सेठीजी के निजी सचिव पिपरिया के थानेदार के साथ ढूंढते-ढांढते हमारे घर आ गए। आप अभी पचमढ़ी वापस चलिए, सुबह सीएम से मिल लीजिए, वर्ना मेरी नौकरी चली जाएगी। उन्हें बाबूजी ने आश्वस्त कर वापस भेजा। सुबह वापस पचमढ़ी गए और सेठीजी से मिलकर वापस लौटे। अगले चार सालों के दौरान उन लोगों के बीच न जाने कितनी मुलाकातें हुईं होंगी।

प्रकाशचंद सेठी की कार्यप्रणाली और व्यक्तित्व अन्य राजनेताओं से अलग ही था। वे विगत 15 वर्षों से केंद्र की राजनीति में थे, जिसमें से 10 वर्ष मंत्री के रूप में काम करते बीत चुके थे। मध्यप्रदेश कांग्रेस में ऐसे कम ही  लोग थे, जो उनसे निकटता का दावा कर सकते थे। नतीजतन उनके इर्द-गिर्द भीड़ इकटठा नहीं होती थी। वे कोई भी विषय हो, निर्णय लेने में विलंब नहीं करते थे। यह तो मैंने देखा है कि सुबह जो फाइलें उनके पास आती थीं, शाम तक उनका निपटारा हो जाता था। वे भोपाल से बाहर जब ट्रेन से जाते थे, तब भी फाइलों का निपटारा करते जाते थे। सेठीजी अपने अफसरों को खुलकर अपनी राय देने के लिए प्रोत्साहित करते थे। जबकि अंतिम निर्णय उनका अपना होता था। उनके भोपाल आने के बाद प्रदेश कांग्रेस में नए सिरे से दो गुट बन गए। एक शुक्ल बंधुओं का, दूसरा सेठी समर्थकों का। छत्तीसगढ़ से एआईसीसी के सदस्य इंदरचंद जैन उनके विश्वस्त लोगों में से थे जिनके साथ उनका पुराना परिचय था। मेरा अनुमान है कि प्रदेश में पार्टी फंड या चुनाव फंड इकटठा करने में इंदरचंद जी की प्रमुख भूमिका होती थी। दूसरी तरफ मैंने यह भी सुना था कि मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने इंदौर में अपने दामाद (शायद अशोक पाटनी उनका नाम था!) को प्रदेश छोड़ बंबई या कहीं और जाकर व्यापार करने की सलाह दी थी, जिससे रिश्तेदारी के चलते उन पर कोई लांछन लगने की नौबत न आए। 

छत्तीसगढ़ में शुक्ल बंधुओं के वर्चस्व के कारण अनेक कांग्रेसजन घुटन महसूस करते थे, उन्हें पार्टी में अपने लिए संभावनाएं नजर नहीं आती थी। ऐसे अनेक लोग स्वाभाविक तौर पर सेठीजी के साथ जुड़ गए थे। मैं इनमें से प्रमुख रूप से रायपुर के अमरचंद बैद का नाम लेना चाहूंगा। वे प्रगतिशील विचारों वाले प्रबुद्ध व्यापारी थे और हमेशा लोगों की मदद के लिए तैयार रहते थे। अमरचंद जी अच्छी किताबें खरीदते व पढ़ते थे। उन्होंने निजी लाइब्रेरी बना रखी थी। सेठीजी के कार्यकाल में उनका काफी दबदबा हो गया था। लेकिन अपनी हैसियत का उन्होंने दुरुपयोग किया हो, ऐसा कोई प्रकरण प्रकाश में नहीं आया। सेठीजी को गुस्सा बहुत जल्दी आता था। ऐसा कहा जाता है कि वे नर्वस ब्रेकडाउन के मरीज थे और बीच-बीच में अपना मानसिक संतुलन खो बैठते थे। इसे लेकर कई किस्से प्रचलित हुए। जितना सच था, उससे ज्यादा उनके विरोधियों द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने जो भी निर्णय लिए, उनमें ऐसी कोई बात नहीं दिखी। मुख्यमंत्री पद संभालने के कुछ दिन बाद रायपुर प्रवास के दौरान उन्होंने वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक केसी बाजपेयी को खड़े-खड़े सस्पेंड कर दिया था, जिसे लेकर उनकी आलोचना हुई थी। इस तरह के कुछ और अन्य प्रसंग भी रहे होंगे। इन प्रसंगों को एक लंबी पारी में अपवाद ही मानना चाहिए। मुझे उनका एक अलग तरह का प्रसंग याद आता है। शायद खंडवा में लोकसभा उपचुनाव होना था। इसके लिए उन्होंने छत्तीसगढ़ के राइस किंग कहे जाने वाले नेमीचंद श्रीश्रीमाल से आर्थिक सहयोग की अपेक्षा की थी। नेमीचंद जी शुक्ल गुट के थे, सो उन्होंने सेठीजी के संदेश की उपेक्षा कर दी। इसके कुछ समय बाद सेठीजी का महासमुंद दौरा हुआ। नेमीचंद जी ने उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया जिसे सेठीजी ने ठुकरा दिया। कुछ देर बाद वे वापसी के लिए हेलीकाप्टर में बैठे और उड़ने के पहले ही अपना टिफिन खोला और भोजन आरंभ कर दिया। हैलीपेड पर उपस्थित लोगों को जो संदेश जाना था, वो चला गया। 

सेठीजी के मुख्यमंत्री काल में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कम से कम दो बार छत्तीसगढ़ आईं। 1972 में अबूझमाड़ और 1973 में कोरबा। इन दोनों अवसरों पर मुझे रिपोर्टिंग का मौका मिला। जबलपुर के लोकसभा सदस्य सेठ गोविंददास का निधन सन् 1974 में हो गया, उसी समय भोपाल के विधानसभा सदस्य शाकिर अली खान भी नहीं रहे। इन दोनों स्थानों पर उपचुनाव होने थे, ये समय था, जब जेपी आंदोलन अपने प्रखर रूप में था। जबलपुर में संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार शरद यादव ने सेठ गोविंददास के पौत्र रविमोहन को पराजित किया। भोपाल में बाबूलाल गौर के हाथों स्वाधीनता सेनानी भाई रतनकुमार जी को हार का सामना करना पड़ा। रतन कुमार जी उस समय देशबन्धु भोपाल के संपादक थे। उन्हें टिकट मिलने का यह भी एक कारण था। 

देशबन्धु का तीसरा संस्करण जुलाई 1974 में भोपाल से प्रारंभ हुआ था, जिसके चलते बाबूजी का समय मुख्यत: भोपाल में ही बीतता था। यह एक वजह थी, जिसके कारण मेरा सेठीजी के साथ प्रत्यक्ष संवाद लगभग नहीं के बराबर था। वे जब भी कभी छत्तीसगढ़ दौरे पर आते थे, तब उन्हें नमस्कार करने की औपचारिकता निभा लेता था। इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल की घोषणा की थी, तब सेठीजी ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उनके निर्देश पर ही संघ का अखबार युगधर्म बंद कर दिया गया था। लेकिन जब बाबूजी ने उनसे मिलकर एक अखबार के बंद होने का विरोध किया तो सेठीजी बाबूजी के तर्कों से सहमत हुए और ठीक 90 दिन बाद प्रतिबंध उठा लिया गया।

किसी अन्य राज्य में आपातकाल के दौरान किसी विपक्षी और खासकर संघी अखबार पर हुई कार्रवाई को पलट देने का शायद एकमात्र प्रशासनिक निर्णय था। इससे यह संकेत भी मिलता है कि इंदिरा गांधी और प्रकाशचंद सेठी के बीच विश्वास कितना गहरा था। 1980 के लोकसभा चुनाव के पहले सेठीजी मध्यप्रदेश के उम्मीदवारों के नाम तय कर रहे थे। उन्होंने बाबूजी को होशंगाबाद लोकसभा सीट से लड़ने का आग्रह किया। बाबूजी ने यह कहकर टाल दिया कि रायपुर में अभी प्रेस का नया भवन बना है। मशीनें आई हैं, काम का बहुत बोझ है, और ललित मुझे मना कर रहे हैं। इसके बाद हुआ यह कि सेठीजी रायपुर आए और विमानतल से सीधे प्रेस। उनके साथ स्वरूपचंद जैन थे। आदेश हुआ मुझे प्रेस दिखाओ। प्रेस का निरीक्षण किया। सब ठीक तो चल रहा है। तुम मायाराम जी को चुनाव क्यों नहीं लड़ने देते। मैंने हाथ जोड़े। आप दो बड़ों के बीच में बोलने वाला मैं कौन होता हूं! सेठीजी समझ गए कि मायारामजी चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं और बात यहीं समाप्त हो गई। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 30 जुलाई 2020 को प्रकाशित

Thursday, 23 July 2020

देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार-7



 आज यह बात शायद बहुत लोगों को पता नहीं होगी कि श्यामाचरण और विद्याचरण दोनों शुक्ल बंधु पत्रकारिता में अपने हाथ आजमा चुके थे। पंडित रविशंकर शुक्ल ने नागपुर से अंग्रेजी दैनिक नागपुर टाइम्स शुरू किया था, जिसके प्रथम संपादक प्रखर बुद्धिजीवी भवानी सेनगुप्ता ने चाणक्य सेन के छद्म नाम से मूल बांग्ला में  'मुख्यमंत्री' शीर्षक चर्चित उपन्यास लिखा था। पुराने मध्यप्रदेश अर्थात सी पी एंड बरार की राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को यह उपन्यास पढ़ना चाहिए।  शुक्लजी ने इसके अलावा 'महाकौशल' टाइटिल से साप्ताहिक पत्र भी स्थापित किया था जिसे आगे चलकर श्यामाचरणजी ने ही दैनिक का स्वरूप प्रदान किया। वे उसके प्रधान संपादक भी थे। 1956 से 58 के बीच महाकौशल छत्तीसगढ़ का एकमात्र दैनिक पत्र था।  इस अखबार में कार्यकारी संपादक के रूप में एक से अधिक प्रबुद्ध संपादकों ने भूमिका निभाई। अनेक रचनाकारों को महाकौशल ने ही लेखक बनाया। लेकिन व्यावहारिक राजनीति में उलझे श्री शुक्ल ने अखबार की ओर यथावश्यक ध्यान नहीं दिया। बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि पत्र को उन्होंने अपनी अहंकार पुष्टि का साधन बना लिया।

रोज दर रोज उन्हीं के फोटो, उन्हीं के बयान, विरोधियों की अनावश्यक आलोचना। पाठक कब तक ऐसे एकपक्षीय पत्र को पसंद करते? एक लंबे समय बाद पत्र जगत में एक लगभग अनहोनी और विचित्र घटना हुई जब श्यामाचरण शुक्ल ने अपने प्रतिस्पर्धी अखबार नवभारत के संपादक गोविंद लाल वोरा को महाकौशल का संपादन एवं प्रबंधन दोनों सौंप दिया। ऐसा उन्होंने क्या सोचकर किया, किसी के पल्ले नहीं पड़ा। वोराजी ने भी यह करतब कैसे संभव किया, यह भी एक पहेली ही है। कुल मिलाकर यही हुआ कि शनै: शनै: महाकौशल पाठकों के दिल-दिमाग से पूरी तरह उतर गया। गुरुदेव चौबे काश्यप जैसे प्रखर व सजग पत्रकार के संपादक के पद पर रहते हुए भी कुछ न हो सका। वे रायपुर छोड़ अपने गृहनगर रायगढ़ चले गए। आपातकाल के दौरान अखबार को राज्य सरकार के विज्ञापन भी मनमाने ढंग से मिल रहे थे। उससे हुई अकूत आमदनी का हिसाब शायद शुक्लजी तक पहुंचा ही नहीं। उन्हें शायद इसकी परवाह भी नहीं थी।

श्री शुक्ल ने 1957 में विधानसभा में प्रवेश किया और 12 वर्ष बाद मुख्यमंत्री बने। उस दौरान देश-प्रदेश की राजनीति में यह निरापद समय था। उनकी महत्वाकांक्षा और नेतृत्व के सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं थी। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के दो खेमे अवश्य थे जिसमें शुक्लजी डीपी मिश्र के खेमे में थे। यह सामान्य अपेक्षा थी कि वह अपने पिता के सहयोगी मिश्रजी के मार्गदर्शन में आगे बढ़ेंगे किंतु स्वयं श्री शुक्लजी को यह रास्ता मंजूर नहीं था। 1967 के विधानसभा चुनाव के पहले डीपी मिश्रा ने अपने कुछ भावी मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के नामों की घोषणा कर दी थी। इनमें छत्तीसगढ़ से दो प्रमुख नाम थे। राजनांदगांव के किशोरी लाल शुक्ल और रायपुर के बुलाकी लाल पुजारी। पुजारीजी बड़े वकील और रायपुर नगरपालिका अध्यक्ष थे। मिश्रजी के नेतृत्व में बनने वाली सरकार में वे प्रदेश के अगले विधि मंत्री होंगे, यह बात जगजाहिर थी।

कांग्रेस के दूसरे खेमे में पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष और निवर्तमान विधायक शारदा चरण तिवारी थे। वे सेठियाई ग्रुप के साथ थे। उनका जब टिकट कट गया तब उन्होंने एक नई पार्टी का सहारा लिया। शुक्ल बंधुओं को पुजारीजी के नेतृत्व के उभार से अपना भविष्य संकटमय नजर आने लगा। वे पार्टी उम्मीदवार का सीधा विरोध तो कर नहीं सकते थे। लेकिन स्थानीय प्रशासन की मदद से ऐसा खेल खेला गया जिसमें शारदा चरण तिवारी को जनता की सहानुभूति प्राप्त हुई और वे चुनाव जीत गए। डीपी मिश्र जैसे कूटनीतिज्ञ भी इस दुरभिसंधि  को समय रहते नहीं समझ पाए।

कांग्रेस की प्रादेशिक राजनीति में भी श्यामाचरण शुक्ल और अर्जुन सिंह लगातार विपरीत ध्रुवों पर बने रहे। शुक्लजी ने अर्जुनसिंह को कभी अपने मंत्रिमंडल में स्थान नहीं दिया। जब 1980 में कांग्रेस का मुख्यमंत्री बनने की स्थिति बनी तो श्री शुक्ल ने आदिवासी कार्ड खेलते हुए शिवभानु सिंह सोलंकी को अपने खेमे से उम्मीदवार घोषित किया, यद्यपि हाईकमान की मर्जी के अनुसार अर्जुनसिंह ही अंतत: चुने गए। शुक्लजी इस हार को नहीं पचा पाए। उनके लगातार विद्रोही तेवरों को देखते हुए हालात यहां तक पहुंचे कि उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। वे इसके बाद लगभग ग्यारह साल तक राजनैतिक बियाबान में भटकते रहे। लेकिन यह लिखना आवश्यक होगा कि वे इस पूरे दौरान कांग्रेस वापसी की कोशिश में ही लगे रहे। किसी अन्य दल का दामन थामना उन्हें स्वीकार नहीं हुआ।

श्यामाचरण शुक्ल सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी तो थे ही, उनमें एक नफासत भी थी। अनेक वर्ष पहले मैंने मौलाना आज़ाद का एक ललित निबंध पढ़ा था, जिसमें बड़े दिलचस्प अंदाज में बताया गया था कि चाय कैसे पी जाना चाहिए। बोन चाइना के बारीक ओंठों जैसी किनार, केटली में गरम पानी, उसमें चाय की पत्ती निश्चित रंग आते तक उबलती हुई, शक्कर के क्यूब आदि। श्यामाचरणजी का चाय पीने-पिलाने का अंदाज भी कुछ ऐसा ही था। साथ में घर के बने नमकीन। मुझे उनके साथ कई बार चाय पीने का मौका मिला। मैं कह सकता हूं कि उनके जैसे सलीके से चाय पिलाने वाले सिर्फ एक ही अन्य नेता को देखा। वे थे इंद्र कुमार गुजराल।

एक जननेता होने के नाते शुक्लजी को प्रतिदिन सैकड़ों लोगों से मिलना होता था लेकिन इसके लिए उनका कोई टाइम टेबल नहीं था। उनके निवास पर मजमा लगता था और दर्शनार्थियों को 3-3 घंटों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। फिर भी कुछ तो उनके व्यक्तित्व में चुंबकीय आकर्षण था कि लोग इस अराजकता को खुशी-खुशी बर्दाश्त कर लेते थे। श्री शुक्ल जब दौरे पर जाते थे तो उनके कुर्ते या जैकेट की जेब में थ्रेप्टिन बिस्किट की डब्बी बिला नागा रहती थी। यहां-वहां भोजन करने की बजाय वे इन प्रोटीन-रिच बिस्किटों से अपनी क्षुधा शांत कर लेते थे। श्री शुक्ल एक प्रशिक्षित पायलट भी थे। उन्हें लोगों ने छोटा हवाई जहाज़ उड़ाते देखा है। उन्हें जब नियमित विमान सेवा से रायपुर से दिल्ली अथवा भोपाल जाना होता था तो वह घर पर प्रतीक्षा करते रहते थे। विमान की लैंडिंग हो जाने के बाद उनका काफिला घर से निकलता था। इस कारण से फ्लाइट लेट होती हो तो हो और यात्री परेशान हो तो अपनी बला से। इसके बावजूद वे उदार हृदय के व्यक्ति थे, जिसकी जेब से आप आखिरी रुपया तक निकलवा सकते थे।

प्रदेश के विकास के लिए वे तार्किक और योजनाबद्ध तरीके से सोचा करते थे। केंद्र सरकार की नई औद्योगिक नीति के एक प्रावधान का लाभ उठाते हुए उन्होंने रायपुर के निकट धरसीवा गांव को विकास खंड बना उसे पिछड़े क्षेत्र का दर्जा देकर रायपुर के औद्योगिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया। जहां तक मुझे ध्यान है प्रदेश के तमाम बड़े शहरों के मास्टर प्लान भी उनके पहले कार्यकाल में बने। रायपुर के मास्टर प्लान का अध्ययन करने का मौका मुझे मिला। ऐसा नहीं कि उसमें कमियां नहीं थीं, फिर भी वह एक अग्रगामी सोच का दस्तावेज था। अंत में यही कहूंगा कि श्यामाचरण शुक्ल के अवदान का विधिवत मूल्यांकन होना अभी बाकी है। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 23 जुलाई 2020 को प्रकाशित

Wednesday, 22 July 2020

कविता: आतिथ्य का दु:ख



कल तक लगा कि
माला में एक फूल और जुड़ा,
आज लग रहा है
डाली से एक फूल और झरा।

कुछ होते हैैं ऐसे महानुभाव
जिनकी बातों में होती है
सुगंध फूलों की, और
जब फूटते हैं बोल तो
महमहाकर झरते हैं फूल ही,

हम अभागों की बात क्या
बातों में न चुभन होती, न तुर्शी,
हम न काँटों के हुए, न फूलों के
झर जाते हैं शब्द भी
हम बटोर पाते नहीं।

उनके लिए शब्द होते हैं श्रृंगार,
हमारे लिए शब्द नमक हैं,
शब्दों का टूटना और
क्षणों का रीतना हमें
एक से दर्द में भिगो देता है
क्षण उनके कर्जदार हैं
वाजिब है कि वे क्षणों को
रौंदें, कुचलें या अपमानित करें ।

लेकिन हम अतिथि हैं
समय की कुटी में,
विश्राम की कीमत हम
महज शब्दों से अदा करते हैं,
हर नया दिन होता है
रुकने की इजाजत का नवीनीकरण,
इसलिए फूलों सा मोहक होता है।

बीतने पर अफसोस करते हैं-
आज फिर समय के ऋणी हो जायेंगे
ब्याज में जाने  कितने शब्द चुकाने होंगे ।
1975

Monday, 20 July 2020

कविता: बाईसवीं सदी




मैं बाईसवीं सदी में
एक वृक्ष के नीचे खड़ा था
इसे बीसवीं सदी में
किसी सीमेंट कंपनी ने रोपा था
दुनिया के तमाम वृक्ष
कट जाने के बाद
यह अकेला पेड़ बचा था
जिसे साल-बोरर
छेद नहीं पाया था
बाईसवीं सदी के
ध्वस्त महानगर में यह वृक्ष
बीसवीं सदी में हासिल
उन्नति का प्रमाण था

पेड़ की अनगिनत मंज़िलों में
असंख्य कमरे थे और
उनमें एक भी खाली नहीं था
थे असंख्य दरवाज़े लेकिन
उनमें एक भी  खुला नहीं था,
बाईसवीं सदी में
जी रहे थे
बीसवीं सदी के सयाने,
बाईसवीं सदी की हवा में
सांस ले रहे थे

वे बहुत बुद्धिमान थे
पवित्र विचारों से ओतप्रोत
और उन्हें अपने पर गर्व था,
वे भविष्य पढ़ लेने का
दावा करते थे और
समय की नदी में वे
उल्टे लौट सकते थे
सृष्टि के पहिले दशक तक,
वे साहसी आखेटक थे और
अक्सर मृगों का पीछा करते
इतिहास में बिलम जाया करते थे

वे पृथ्वी के कण-कण में
प्रभु की महिमा देखते थे और
सर्वत्र व्याप्त हो जाना चाहते थे,
वे स्वदेश में रहते थे और
उनके वंशधर
प्रवास पर आया करते थे
इस तरह वे
अयोध्या और अमेरिका में
एक साथ जी सकते थे,
बीसवीं सदी की वसुधा में
बहुत छोटा था उनका कुटुंब

वे सचमुच कर्मयोगी थे
उद्यमी और उदार,
उनके स्पर्श में पारस था
चारों तरफ विखरा सोना-ही-सोना
उनकी आत्मा भी कुंदन,
उन्होने बहाई समृद्धि की नदियाँ
केला की बाढ़ में उफनी कालिंदी
बरसे उपहारों पर उपहार
चकित हुए गोवर्धनधारी

बीसीवीं सदी में था
कितना कुछ करने का अवसर
धर्म और धन में था
कितना अद्भुत संबंध!
नूतन और पुरातन का
था कैसा मणिकांचन योग !
पूरब और पश्चिम में
था कैसा अनुपम सौहार्द्र !
बीसवीं सदी के सयाने
बाईसवीं सदी के सपनों में डूबे,
अकेले वृक्ष की छाया से मैं
वर्तमान में लौटा
अपनी सदी से डरा-डरा
1999
......







Saturday, 18 July 2020

कविता: सत्ता के जंगल में





(1)

आज फिर समय ने
मुझे उन्हीं अंधेरे वनों में
आवास दे दिया है जहाँ
उदासी के चिर-परिचित वल्कल सिवा
मेरी कोई अन्य सम्पत्ति नहीं,
ये वही सारा परिवेश-
जिसको त्याग कर मैंने
सहजता के दुकूल बुनने का
किया था कभी संकल्प।

(2)

यद्यपि मैं नहीं था बुनकर
न थी मकड़ी-सी दक्षता
फिर भी वह लोक था प्रिय
जहाँ हर व्यक्ति की आँखों को
स्वप्न बुनने का हक मिले,
मैं एक वीभत्स पथराई दृष्टि
से बचना चाहता था और
सपनों के रंग यद्यपि
नहीं थे इन्द्रधनुषी, तब भी
एक उज्ज्वल स्वस्ति रंग था
मेरे लिए और थीं
सीधी व गहरी रेखाएँ
उस नवप्रांत की हथेली पर,

(3)

इसीलिए मैंने एक पूर्व-संकल्प
को निश्चित बहाव दे दिया
चट्टानों के गर्भ में छुपी
नदी में भागते आते हुए,
वह मरण से निष्कृति थी
या थी दुर्दम्य आकांक्षा
निरन्तर चलने की नवभूमि में
मैं नहीं जानता-पर थी विरक्ति
इतिहास या कैलेंडर से
तिथि और मिति का ज्ञान भी
भूलने की ही बात थी-तब भी
कोई अनाकर्षण नहीं था उनमें
कभी-कभी बहुत मोह के साथ मैंने
भेंट भी किए तारीखों वाले कैलेंडर।

(4)

लेकिन आज मैं जहाँ आ गया हूँ
वहाँ मुझे कोई समय नहीं बताता
नक्षत्रों की बदलती स्थिति को
ज्योतिष दृष्टि नहीं पहचान पाती
और जबकि जरूरत नहीं है उसकी
मैं चाहता हूं- कोई मुझे
सुन्दर रेखाचित्रों वाला
कैलेंडर भेंट दे।

(5)

मैं तारीखों के उन शवों को
आखिरी सलामी देना चाहता हूं
जिन्होंने गिनने के बीच ही
मेरी अँगुलियों पर दम तोड़ दिया
और फाँसी बनाना चाहता हूं
उन बहुत से दिनों माहों को
जिन्होंने गुंजलक मारकर
अवरुद्ध  कर दी हैं रक्तवाहिनियाँ
इस बेतारीख देश में जीते हुए
मुझे अफसोस है कि
मेरी अँगुलियों ने हो क्यों न दम तोड़ा
मैं किस परखनली की तलाश करूँ
जो यह बतायें कि
शिराएं क्यों न फटीं
लहू का विस्फोट क्यों न हुआ ।

 (6)

काश ! वैसा ही होता कि
मेरी नियन्ता अंगुलिमाल की
उपााधि धार बैठता सिंहासन पर
और महामहिम के लहलहाते उद्यान में
होता एक खूबसूरत खूनी फव्वारा
या फिर
वनांतरों का रक्त सरोवर
होता राजधानी में
उबाल बनने से पहले
रक्त खींच लेने का प्रदर्शन
होता कितना मोहक
 कितने धैर्यवीर हैं वे
आह ! देखिए तो
उपाधियों  के सारे पद्म
कितने सुर्खरू खिलते हैं
रक्त सरोवर में ।

(7)

लेकिन यहाँ
यहाँ तो कोई देख पाता नहीं
वैसे कुछ लोग होते हैं अराजक
निषेधाज्ञा का किया उन्होंने उल्लंघन
किन्तु नहीं बच पाए वे
उन पैनी निगाहों से वनरक्षकों की
जो वन-सम्पत्ति के
अवैध निष्क्रमण पर सहमत होती है
जिनका कर्तव्य शेष सबको
सीमा पर ही रोक देना है,
अन्तत: शासन की
मर्यादाभूमि और लीलाभूमि में
भेद तो होता ही है।

(8)
इसीलिए वे सब दुस्साहसी
एक कृतज्ञतापूर्ण अन्त तक पहुँच गए
सौभाग्यशाली थे वे
लेकिन मैं एक प्रदीप्त निष्ठा और
एक बुझते विश्वास के बीच
झुलसने के लिए छोड़ दिया गया हूं
अजीब है यह गोरखधन्धा
देह लपटों में घिरी है पर
वल्कल पर आँच नहीं आती
मैं शायद इसी तरह
भस्म हो जाऊँगा
और अधर में छूट जाएगा
वल्कल यह जो मेरे बाद
किसी और को पहिला दिया जायेगा
जो भी चेष्टा करेगा
मुखबिर बनने की ।

1969


कविता: बहाव.....



मैने आज एक
पूरा दिन जिया है
बधाई नहीं दोगे मुझे?


इसके पहले तक
अब तक
मैं क्षणों को
जीता रहा हूं और
गँवाया है दिनों को मैंने,
लेकिन आज
सचमुच, आज पूरा दिन जिया है
घास चरती गाय से लेकर
पान चबाते प्रभात तक
पूरा एक दिन जिया है मैंने,
अस्पताल की बीमार गंधों से लेकर
स्टेशनरी-शाप के शो केस में सजे
दीपावली कार्डो की खुशबू तक
पूरा एक दिन जिया है मैंने,

रात मैं स्टेशन के
वेटिंग रूम में ठहरा था
सीट नहीं मिलने से
टेबल पर अधजागा-सा सोया था,
और हर दूसरे घंटे छुकछुकाती रेलों से
लगा था मुझे कि
पटरियों पर मैं बहा जा रहा हूं,
और  सुबह स्टेशन से
बाहर आने पर पाया था कि
वेटिंगरूम मेरे पीछे आ रहा है
मैं जहाँ भी रुक सका हूूं
पिछले बरसों में
हर वह जगह
इस वेटिंगरूम ने घेर ली है
जिससे निकलने के बाद
मुझे रेल की पटरियों पर
बढऩा है महज और
थमने पर
इसी वेटिंग
रूम के
किसी दूसरे कोने में
थम जाना है,

जब मेरी पहिली यात्रा
प्रारम्भ हुई थी- तब
थक जाने के बाद
मैंने सिर्फ बसेरा समझा था जिसे
वह वेटिंगरूम अब मेरी
समग्रता बन गया है
एक बहाव के बाद
दूसरा बहाव होने के बीच
मुझे न इतनी आज़ादी है
न इतना समय कि
किसी पेड़ पर जाकर
दो-चार तिनके बुन आऊँ
यह भी नहीं कि किसी
कौये का घौंसला चुरा लूँ
और अपने भावों को
उसमें पक जाने के लिए रख दूं
दोस्तों से उधार मांगे
फुलपैंट और बुश्शर्टों की जेब में ही
इन कच्चे अंडों को लिये
मैं अभी तक घूमता रहा हूं
लेकिन इस फुलपैंट की
एक जेब में अब छेद हो गया है
एक पैसे का सिक्का भी
मुझे मुट्ठी में दबाकर रखना होता है
मैं कभी कोयल नहीं हो सका-

मेरे सारे बसन्त
कुर्सियों की नायलोन केनिंग से
रिस चुके हैं और
कुर्सियों को थामने वाला ढाँचा
एक कटा हुआ बसन्त होता है
या पिघला हुआ लोहा
कोयल के बच्चे
अपनी माँ को नहीं पहिचानते
फिर भी वे कोयल ही होते हैं
लेकिन मेरे पास यह जो कुछ है
जिसे मैंने जेब से निकालकर
हथेलियों में सम्हाल लिया है-
यह क्या हो पायेगा ।
इसे दुश्मनों पर फतह की किसी पार्टी में
आमलेट बना बाँट दिया जायेगा
या वेटिंग रूम की ऐशट्रे में पड़ा
अपने धुआँ हो जाने की गवाही देगा

यों धुएं के छल्ले भी
बहुत दिलकश होते हैं
सगाई की अँगूठी की तरह,
लेकिन नाजुक लकीरों के झूलों पर
आसमान तक पेंगें नहीं भरी जा सकती
और न सगाई की अँगूठी को
राज दरबारों में घुसने की
मुद्रिका बनाया जा सकता है
एक बार ये छल्ले
हवा में उछाल देने के बाद
दुबारा अँगुलियों में लपेटना
सम्भव नहीं रहा है मेरे लिए

अब एक बेतरतीबी
वेटिंग रूम के अकेले वेंटिलेटर पर
गहरा गयी है
पटरियों पर बहते हुए
ऐसे ही बेतरतीब हो जाने का
ख्याल मुझे भी झेलने लगा है

काश ! पटरियाँ
नींद की गोली खा लें
या किसी रेगिस्तान की बालू में दब जायें
चाहे यह बहाव ही
मुझे पटरियों के बीच छोड़ दें
या डगमगा कर किनारे गिरा दें
जहाँ नीचाइयों पर
गाँव की सीमा पर पोखरे हों
जिनके कमल खिलने 
की प्रतीक्षा में
खुद प्रतीक्षा बन गये हों
और कीचड़ एक दुर्विनीत अट्टहास हो
या पटरियों के समानान्तर
टेलीग्राफ केबिल हों
जिन पर अपने समूचे शरीर
और आशंकित अस्तित्व के साथ में
कोई तन्द्रिल राग छेड़ दूं
ये रेल लाइनें, वेटिंग रूम सब कुछ
एक पिटारी में बन्द कर दूं

उफ !  मेरे समूचेपन में
कभी कोई संगीत नहीं रहा
तार पर दबाई हुई एक अँगुली
खुरदुरे अस्तित्व के प्रति
सारे खुफिया पहरेदारों को
सतर्क कर देगी ।

1967


Friday, 17 July 2020

तिमिर के झरने में तैरती अंधी मछलियाँ | ललित सुरजन | #LalitSurjan | Desh...

कविता: अंधी मछलियाँ




मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिए
और ईश्वर के अवतारों को
कि रोज सुबह होती है और
धरती पर उजाला फैलता है,
स्वर्ग के आँगन से उतरी
किरणों से मैंने कहा-स्वागत!
फिर मैं उनके साथ
दुनिया की सैर पर निकल पड़ा,
हमने तय किया-
वहाँ चलें जहाँ
पहिले कभी जाना नहीं हुआ था

कुटुमसर की गुफा तक
हम साथ-साथ गए
गुफा बहुत नीचे थी, बहुत गहरी
किरणें सीढियां उतर नहीं पाई,
और जब मैं अकेला
पेट्रोमेक्स लेकर नीचे उतरा तो
तिमिर के झरने में तैरती
अंधी मछलियों ने कहा
उन्हें रौशनी से तकलीफ होती है

हम फिलिपींस के जंगलों तक गए
भीतर धँस पाना असंभव था
लेकिन मैं सुन सकता था
किसी एक मनुष्य के
दबे पाँव चलने की आहट,
और सूखी पत्तियों ने
फुसफुसा कर मुझसे कहा
वह तुम्हारे समय में नहीं जीता
और उसे अभी अकेले ही रहना है
अपने मुक्तिदाता की प्रतीक्षा में

हम प्राचीन ग्रंथों तक गए
कॉमिक्स की किताबों तक
और उत्तर धुव के सीमांत तक,
सब तरफ थी गुफाएँ
घने जंगलों के बीच जहाँ
किरणों का प्रवेश था वर्जित
सोते हुओं को जगाने की मनाही थी
और जगते हुओं से बात करने पर पाबंदी

हम दिल्ली के सिनेमाघर गए
और मैंने किरणों से कहा
तुम लौट जाओ ईश्वर के घर
मैं अभी फ़िल्म देखना चाहता हूं
वह नई तकनीक से बना थियेटर था
बहुत से परदों पर चल रही थीं
बहुत सी फ़िल्में एक साथ
और बहुत से दर्शक
इत्मीनान से देख रहे थे
अपनी-अपनी पसंद की फ़िल्म

मैं दर्शकों के बीच चला गया
नए सिनेमाघर की नई इमारत में
नई आरामदेह कुर्सी पर
आराम से बैठते हुए मैंने सोचा
मुझे भी चुन लेना चाहिए
अपने लिए एक रजतपट और
अनेक या एक मनपसंद फ़िल्म

मेरे आसपास, आगे-पीछे, चारों तरफ़
दर्शक थे मंत्रमुग्ध, मगनमन, खामोश
और परदों पर थी हलचल
तेज़ी से  दृश्य बदल रहे थे
बदल रहे थे पात्र और घटनाएँ
सिर्फ परदे पर प्रकाश था
और दर्शक अंधेरे में डूबे थे
सबके साथ-साथ मैं भी

परदे पर दूसरे महायुद्ध की फ़िल्म थी
और जनरल तोजो की हार से डर
उसका सिपाही परदे से कूद
आकर कहीं छिप गया
मेरे और दर्शकों के अंधेरे के बीच

रामायण के पन्ने बंद किए रावण ने
और कुंभकर्ण उतर आया नीचे
थियेटर में गूूंज रही थी
उसके खर्राटों की आवाज़

परदे पर अपने कबीले के साथ
रूका रहा गुर्रन- वानर बौना
और मृत्युंजय महाबली
अपने भेड़िए के साथ 
थियेटर से बाहर निकल गया
दुनिया की गश्त पर

अतल की भट्टी में कैद
सुलगता रहा कसमसाता सूरज
किरणें बेख़बर सोयी रहीं
और आकाश की कड़ाही में उफनता
अंधकार बहने लगा चारों ओर
थियेटर के बाहर, धीरे-धीरे
सृष्टि की सड़कों पर

मैं सिनेमाघर में अकेला था
और मुझे डर लग रहा था
यह रात का वक़्त था
और मैं ईश्वर के अवतारों को
याद कर रहा था

महाबली वेताल की सुरक्षा में
अपने-अपने घर की गुफा तक
पहुँच चुके थे सिनेमाघर के दर्शक
और कुटुमसर के झरने में
मज़़े में सो रही थीं अंधी मछलियाँ

लैपलैंड और लंका में सबके लिए
यह एक लंबी नींद लेने का
समय आ गया था
जो पहिले से सोये थे
उन्हें भी उठने की ज़रूरत नहीं थी
और जागा हुआ मैं
अकेला मैं पछता रहा था
मैं न सिनेमा में रुक सकता था
और न बाहर की सड़क पर
कदम रख सकता था
मुझे अभिमन्यु बन जाने का डर था

शायद मुझे इस समय
हनुमान चालीसा का पाठ करना
चाहिए था या मृत्युंजय का जाप
लेकिन पत्थरों को जगाने की कला
मैं सीख नहीं पाया था
मुझे न भेड़ियों से
लड़ना आता था और
न महारथियों से

मैं नहीं जानता था कि
बॉस की मर्जी से बार-बार
ज़िंदा होता है
हिन्दी फ़िल्मों में शेट्टी
और लोथार को ज़रूरत है
जिंदा रहने के लिए
मेनड्रेक के जादू की

मैं घुंघराले बालों वाले बाबा की
शरण में कभी नहीं गया था
और न मैने सीखी थी
ज़मीन से ऊपर
अधर में सोने की क्रिया
मैं सिर्फ जादूगर आनंद को जानता था
और उसकी हाथ की सफाई को

मैं सिनेमाघर और सड़क के बीच
दहलीज पर खड़ा था अकेला
मेरे पास सोने की लंका नहीं थी
और मेरी नसों में दौड़ रहा
रक्त विशुद्ध नहीं था

सृष्टि की लंबी अंधेरी रात में
मुझे अपने को बचा पाने की फ़़िक्र थी
और पूरा जीवन ज़िंदा रहने की
इस कृष्णपक्ष में जब
चाँद और सितारे भी
नज़र नहीं आ रहे थे
मुझे तलाश थी सूरज की
किसी कोने से फिर निकल आने की

मैं किरणों के साथ-साथ
कभी दुनिया घूम आया था
अब  मुझे अंधकार का जाल
कट जाने का इंतज़ार था
लेकिन जब मैं ईश्वर को
धन्यवाद दे रहा था
मुझे पता नहीं था कि
यह जयद्रथ के हँसने का समय है

ललित सुरजन
  (1998)








Thursday, 16 July 2020

देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार-6



श्यामाचरण शुक्ल के अंतर्विरोधों से भरे लेकिन बुनियादी तौर पर उदार व्यक्तित्व की एक घटना का वर्णन कर हम आगे बढ़ेंगे। 1970 में वे मुख्यमंत्री के रूप में जबलपुर आए थे। छात्रों का आंदोलन चल रहा था। छात्रों ने रास्ते में उनका काफिला रोकने की कोशिश की। पुलिस ने भारी बल का प्रयोग किया। शरद यादव व रामेश्वर नीखरा सहित अनेक नेता बुरी तरह जख्मी हुए। शहर में उत्तेजना का वातावरण बन गया। छात्र हित में बाबूजी को आगे आना पड़ा। मुख्यमंत्री के नाम बाबूजी का पत्र लेकर छात्र भोपाल गए। दोषी पुलिस वालों पर कार्रवाई हुई। विद्यार्थियों पर लगे मुकदमे वापस हुए। उनकी अधिकतर मांगें जायज थीं जो मान ली गईं। यही वह क्षण था जहां से शरद यादव व रामेश्वर नीखरा का राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पण हुआ। रामेश्वर नीखरा कांग्रेस से चार बार लोकसभा सदस्य और कांग्रेस सेवादल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने। 

श्री शुक्ल की यह खासियत थी कि उन्हें सारे मध्यप्रदेश में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। एक समय ऐसा आया जब प्रदेश की राजनीति में एक तरह से मध्यभारत का वर्चस्व और महाकौशल का पराभव हो गया। द्वारका प्रसाद मिश्र एक भूली हुई कहानी बन चुके थे। शरद यादव जबलपुर छोड़ चुके थे। रामेश्वर नीखरा और कर्नल अजय मुश्रान को प्रदेशव्यापी स्वीकृति नहीं मिल सकी थी, और कमलनाथ  धनकुबेरोचित अपने फैन क्लब बनाने जैसे चोचलों में ही व्यस्त थे। तब जबलपुर के मित्रों ने मुझसे कहा कि मैं शुक्लजी से जबलपुर आकर चुनाव लड़ने को कहूं ताकि संस्कारधानी को उसकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नेतृत्व मिल सके। शुक्लजी के पास मैं यह संदेश लेकर गया लेकिन तब तक छत्तीसगढ़ अलग प्रदेश बन गया था और वे मध्यप्रदेश जाने तैयार नहीं थे। वे उस समय अपने अनुज से चालीस साल पुराना अलिखित अनुबंध तोड़ महासमुंद से लोकसभा सदस्य थे और इस स्थिति से बहुत प्रसन्न नहीं थे। प्रसंगवश ध्यान आता है कि उन्हें 1967 में टिकटों के वितरण में सोशल इंजीनियरिंग यानी सामाजिक समीकरणों का बखूबी प्रयोग करते हुए भी देखा है। इसके विस्तार में जाने की अभी आवश्यकता नहीं है।

पंडित रविशंकर शुक्ल के सभी पुत्र स्वाधीनता संग्राम के दौर से ही एक के बाद एक राजनीति में आए। उनकी सबसे बड़ी बेटी की बेटी यानी नातिन राजेंद्र कुमारी बाजपेयी भी एक समय कांग्रेस के बड़े नेताओं में गिनी जाती थीं। वे इंदिराजी की विश्वासभाजन थीं। उनके बेटे अशोक बाजपेयी भी उत्तर प्रदेश में विधायक, मंत्री आदि बने; तथापि संसदीय राजनीति में पांच दशक से अधिक समय बिताने का दुर्लभ अवसर श्यामाचरण और विद्याचरण को ही मिला। दोनों भाइयों ने आपस में समन्वय करते हुए अपने-अपने क्षेत्र बांट लिए थे। दोनों को पर्याप्त महत्व एवं सम्मान भी मिला। इसके बावजूद दोनों को अपनी-अपनी सुदीर्घ पारी में अनेक उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ा। कहना कठिन है कि ऐसा अपनी शर्तों पर राजनीति करने के कारण हुआ या कभी परिस्थितियों का सही आकलन न कर पाने के कारण या फिर आत्मविश्वास के अतिरेक के कारण।1969 में संविद सरकार गिरने के बाद जब श्यामाचरण को पहली बार मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला तब किसी ने कल्पना न की थी कि 3 साल के भीतर उन्हें पद छोड़ना पड़ेगा। उनके मंत्रिमंडल में तीन-चार ऐसे सदस्य थे जिनके ऊपर गंभीर आरोप थे। कांग्रेस हाईकमान से उन्हें हटाने के संकेत भेजे गए जिनकी शुक्ल जी ने अनदेखी कर दी। परिणामत: इंदिरा गांधी ने उन्हें हटाकर प्रकाश चंद्र सेठी को मुख्यमंत्री बनाकर मध्यप्रदेश भेज दिया। शुक्ल जी की हठधर्मिता के बावजूद इंदिराजी का यह निर्णय हमें इसलिए पसंद नहीं आया था क्योंकि इसमें कांग्रेस विधायक दल को विश्वास में न लेकर संसदीय परंपरा का उल्लंघन किया गया था। इस पर देशबन्धु में बाकायदा संपादकीय टिप्पणी लिखी गई।

श्री शुक्ल को आपातकाल के दौरान दोबारा मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला जब सेठीजी को इंदिराजी ने केंद्र में दोबारा बुला लिया। इस दौर में अन्य तमाम कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की तरह शुक्लजी ने भी अपने सारे अधिकार मानो केंद्रीय सत्ता के हाथ सौंप दिए। यद्यपि इतना कहना होगा कि उन्होंने नारायण दत्त तिवारी अथवा हरिदत्त जोशी की तरह अपनी गरिमा को ताक पर नहीं रखा। जब 20 सूत्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत चुंगी कर (आक्ट्राय) हटाने का प्रस्ताव रखा गया तो मध्यप्रदेश पहला और इकलौता राज्य था जिस ने आनन-फानन में सबसे पहले चुंगी कर समाप्त कर दिया। इसका राज्य की वित्तीय स्थिति पर क्या असर पड़ेगा इसका विचार ज्यादा नहीं किया गया। इसी तरह नसबंदी कार्यक्रम को सफल बनाने में भी शुक्ल सरकार ने अतिरिक्त उत्साह के साथ भाग लिया। जिन आदिवासी क्षेत्रों में, जिनमें स्वयं मुख्यमंत्री का क्षेत्र शामिल था, यह कार्यक्रम नहीं चलाया जाना था वहां भी अधिकारियों ने नियमों की अनदेखी कर दी।1977 के विधानसभा चुनाव में अपनी परंपरागत सीट राजिम से श्री शुक्ल चुनाव हार गए क्योंकि उस अंचल के आदिवासियों ने नसबंदी की ज़्यादतियों के कारण उनसे मुंह मोड़ लिया। देश प्रदेश में जनता पार्टी सरकार बन जाने के बाद कांग्रेस लगभग एक साल तक सदमे में रही। जब पार्टी ने नए सिरे से खुद को संभालना शुरू किया तब हारे हुए मुख्यमंत्री एक तरह से हाशिए पर चले गए। 

याद आता है कि कांग्रेस ने अखिल भारतीय स्तर पर महंगाई विरोधी आंदोलन का आह्वान किया था। विधानसभा में विपक्ष के नेता अर्जुनसिंह रैली को संबोधित करने में रायपुर आए थे। श्यामाचरण इसमें बेमन से शामिल हुए। रायपुर के कंकालीपारा चौक से अर्जुनसिंह रैली बीच में छोड़कर भाटापारा की रैली में शामिल होने चले गए। उनके पीछे-पीछे बाकी कांग्रेसी भी। बहुत देर तक श्यामाचरण अपने वाहन के इंतजार में अकेले खड़े रहे। किसी ने उनसे बात तक नहीं की। कुछ समय बाद मौजीराम मुरारीलाल फर्म के मोहनलाल अग्रवाल अपने स्कूटर से वहां से गुजरे तो शुक्लजी को देखकर रुके और वहीं पास में शिवकुमार चौधरी के कुमार मेडिकल स्टोर में उन्हें ले जाकर बैठाया। मैं चौक पर खड़े-खड़े यह दृश्य देख रहा था। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 16 जुलाई 2020 को प्रकाशित

Wednesday, 15 July 2020

कविता: मृत्यु-भय




(1)

यह सन्नाटा तो
छाया रहा हमेशा ही
गर्मी की दोपहर
वर्षा की रात और
शीत की सुबह में
कभी भी तो
एक दिन को भी
छोड़कर गया नहीं
लेकिन आज ही इतना क्यों बेचैन !
दूरों तक फैले
बीहड़ से चीखें उठ-उठ कर आती हैं
अघोर प्यासे-सा सोख रहा है उनको
अन्तर में ऐसी जलन कितनी;
मौसम का ज़र्रा-ज़र्रा
थरथरा कर थिर होने की कोशिश में
सिर धुनता है
हवा चल रही है तेज लेकिन
सूखे पत्ते भी
झरने में डरते हैं,
कोन-सा भय उनको
क्या सन्नाटा लीलेगा सब कुछ
अपनी फुफकारों से खींच  खींच
कितना कुछ ग्रास बनाएगा!

(2)

आवाज़़ें सोखी गई हैं पहिले भी
सूखे पत्ते भी निचोड़े हैं उन्होंने
और मौसम की मासूमियत को
थरथराते हुए वे गुजरे हैं पहिले भी
लेकिन माहौल अब की
क्या अजब नहीं है पहले से,
धूल तक जहाँ दुबकी है
वहाँ से हटना नहीं चाहती
ढलानों पर बहता पानी
आजू बाजू सरक गया है एकाएक
और पत्ते तो
पहिले ही ठिठक गए हैं
ये कैसा संगीत है जिसके स्वर
तमसा की सोयी लहरों को
विवश करते हैं
आपाधापी में खोने को
क्या यह काले जादू वाले देश
से आए लोगों का करिश्मा है
या सन्नाटे ने छल किया है
स्वरकार का बाना पहिनकर
हवा कि गोया
उस जादूगर या स्वरकार के
हाथों पर नाचता बैटन हो
शून्य को काटता हुआ कि
सटकारे की आवाज़ों में
दर्शक और स्तब्ध हो जाता है।

(3)

हाँ, उस जादूगर को कहाँ खो दिया हमने
जिसके कौतुक रोमांच-पुलकित कर देते थे,
और क्या मूर्ति बन गए वे स्वरविद्
जिनकी झंकृत तारावलियों से
मन्त्रमुग्ध होने की बातें अब दंतकथाएँ हैं।
हर मकान में ज्यों
सिनेमाघर खुल गए हैं जिनके
प्रोजेक्टरों पर सिर्फ
आतंक की रीलें फिसलती हैं
और हर मैदान : हर खुली जगह
बना दिया गया है नीरोकालीन एरिना
जहाँ से कोई भी एंड्राक्लीज
जिन्दा वापिस नहीं लौट पाता
या
चारों तरफ से उठते भभके
साँसों के साथ-साथ पी
इतना भी भूल गए हैं लोग
कि रहते हैं व्हेल के उदर में
या उस परकोटे में जिसे
कभी दुनिया कहा जाता था।

(4)

या
यह सब कुछ भी सच नहीं है
जिन्हें दीख पड़ता है विपरीत
उनकी भी संज्ञाएँ
राक्षसी सम्मोहन में बँधी हैं
वे जो भी हों- उनका सम्मोहन
किसी को यूँ पालतू बनाता है
तो किसी को स्तब्ध करता है : डराता है
और लोग-
जिनमें  शामिल हैं कवि और पाठक भी
उस एक मोह के लिए-
इस राक्षसी
सम्मोहन के आगे आँखें झुका लेते हैं।
(बहुतों को वह अच्छा भी लगता है)

(5)

लेकिन कब तक चलेगा
हाँ, कब तक होता रहेगा यह सब
कितनी अजीब बात है-
कवि सवाल पूछता है और
उत्तर नहीं देता कोई भी 
तत्ववेत्ता
कहानियों में शब्द चीखते हैं
लेकिन कथाकार स्वयं नहीं जानता उत्तर
आखिर यह सब क्यों
एक जीने के मोह के लिए
कब तक उनके सिहासन पर
हम धोक देते रहेंगे!

(6)

क्या हम वे ही हैं
जिन्हें समरसता नहीं भायी थी और
आडम्बर : पाखण्ड कहते हुए
उठ आये थे उस सभा से
जहाँ कुछ लोग
जो पहिले थे हमसे
शांति और संतोष खोजने की
विस्तृत चर्चाएँ करते थे
जिन्हें पसन्द आता था काव्य और संगीत
अस्वीकृतियां थीं सब हमारी ही
तब आज सहन नहीं होता क्यों
हमने हमारा ही विरस दर्शन?

(7)

उन्होंने तो भुलाया था
आतंक की सत्ता को अपनी
चर्चाओं के कोलाहल को
आतंक के शिकार के लिए
हाँका था : समस्याओं के वन में
लेकिन चूक कहाँ हुई?
वह तो दुबका भी नहीं अपनी माँद में
शायद उलझ गए हैं हम ही बीहड़ में
और अब इन कान्तारों से
नहीं उभरेगी एक भी पगडंडी
घने वृक्षों को चीरकर अब
कौन देखेगा ध्रुव और सप्तर्षि

(8)

रहेंगी सिर्फ आवाज़ें और आवाज़ें
नहीं, वे हमारी आवाज़़ें नहीं होंगी
मर जाता है जिनका अन्तर
उनकी आवाज़ कहीं नहीं होती
वे आवाज़ें नहीं होंगी
उन व्याकुल टेरों की जो
सीमांत पर ठिठक कर
वापिस बुलाती रहीं हमको
म-त-जा-ओ,
फिर भी तो आवाज़ेें होंगी।
(9)

वे होंगी उस सन्नाटे की
वे होंगी उस सम्मोहन की
जीना चुक जाने के बाद भी
जीने का मोह नहीं चुका जिनका
होंगी उनके लिए
उनके लिए : हाँ हमारे लिए
होंगी वे आवाज़ेें:
वे जादुई आवाज़ेें : वे आकर्षक आवाज़ें
जिनकी निर्ममता राह बताएगी
उस अन्धगुफा की
जिसमें वह सम्मोहक
काला जादूगर रहता है
वह सन्नाटे का स्वामी
जिसकी भौंहों के इंगित के बाद
शेष नहीं रहता कुछ भी
आतंक का देवता वह
हमारे जीवन मोहों को पीकर
अपनी उम्र बढ़ाता है।

1971











Monday, 13 July 2020

कविता: शांतिदूत की आँखों से




जोसेफ ब्रूचाक 
(अमेरिकन मूलनिवासी कवि)

(1)

हम देख रहे हैं
पंचायत घर की खिडकियों से,
जहाँ हमारी दादियों* ने
समझ और धीरज के साथ
चुना उन नेताओं को
जिन्हें जनता ने चाहा, विश्वास किया,
और आगे बढ़ाया,
जहाँ आकाश को प्रकंपित करते हुए
डैने फडफ़ड़ाकर चीलों ने
संगीत दिया
शांति के गीतों को,
बच्चों की, बड़ों की और
आने वाली पीढियों को
स्वस्ति के लिए,

हम देख रहे है
उस ठिकाने से, जहाँ दफन किए गए
बंधुद्रोही लड़ाईयों के हथियार और
जहाँ अब खड़ा है
गगनचुंबी वृक्ष देवदार का,
और उस पर बैठी चील
नीचे देखती हुई,

(2)

हम देख रहे हैं
कीवा* के भीतर से,
जहाँ भविष्य बताने वाले पात्र के
थिर जल में आवर्तन उठे और
उभर आए वे सुदूर दृश्य जो
उतने सुदूर नहीं हैं,
टूटे बाण, मौत की वज्र कठोर हवाएं,
काली और जलती हुई बरसात,

(3)

हम देख रहे हैं
जंगल की पनाहगाह से
जहाँ बारहसिंगे अपने सींग
उतार कर धर देते हैं कि
किसी को
धोखे से भी चोट न लगे,
वहां जहां पुरखिन चट्टान की
सुलगती आँखों में
अगिन का वास था जिसके
ताप में हमने स्वयं को पवित्र किया,
अपने तमाम रिश्तों को निभाने के लिए,
और प्रार्थना की
सभी जीवित जनों के लिए,
कि सब हिल-मिल कर रहें
कि सब रहें सलामत,

(4)

हम देख रहे हैं
बादलों को छूती फुनगी के कोटर से
जहाँ बिना अन्न, जल और नींद के
चील करती है अनथक चौकसी,
जहाँ भालू और हिरन आकर
सामने खड़े होते हैं
हमसे कुछ कहने के लिए,
जब हवा और बादल आपस में
कानाफूसी करने के लिए,
करते हैं शरीर ग्रहण,
तभी हम देखते हैं
सुदूर क्षितिज पर
लालच और नफरत की आकृतियाँ,
और लिप्सा जो तब्दील हो जाती हैं
अग्नि के बरछों में,

(5)

हम देखते हैं
बहती हवा के साथ
काँप रहे शिविरों से
भुतहा नृत्य के गोल घेरे से
स्वप्नजीवियों के सिरहाने से,
उड़ते हुए तीरों की दोनों दिशाओं से,
जलपांखियों के भीगे पंखों से,

(6)

हम देख रहे हैं
एना डाकिन्ना* से,
पाहा सापा* से,
सिपापू* से, चैंटा ईस्टा* से,
बड़े घर से,
सातवीं दिशा से,
पृथ्वी के हृदय से,
और उस नाजुक जगह से
जो हमारे अपने हृदय में कहीं है,
जो मुखर होती है सिर्फ तभी
जब अपने आप को
उस रुप में देखते हैं हम,
जैसा विधाता ने हमें बनाया, देखना चाहा,

(7)

हम देख रहे हैं
जिस नज़र से
मसकोगी* बूढ़े ने देखा था
आसन्न तूफान के समय,
जब चक्रवात की शहतीर
खेतों को झिंझोड़ती हुई
उसकी झोपड़ी की तरफ लपकी थी,
जब उसने दोनों हाथों में कुल्हाड़ी उठाई
और चक्रवात को चीर कर रख दिया
दो हिस्सों में,
ज्यों किसी पेड़ का कटा तना,

हम देख रहे हैं
जैसा दादियों ने देखा था,
अपने ठंडे-सर्द 
ट्रेलर में
छोटे रुपहले परदे को,
और आदिम अफसोस में
सिर हिलाया था, जब
न्यायाधीश का काला चोंगा धारण किए लोग
पोशकों में सिल रहे थे पत्थर,
और सियाह जल की अतल गहराईयों से
कर रहे थे
मुखिया की जय-जयकार,

हम देख रहे हैं कि
सफेद पत्थर की तरी
वापिस पश्चिमी घाट पर
आ लगी है,
हम देख रहे हैं कि
सुधीर शांतिदूत और
अयोन्तावाथा* और राष्ट्रों की माता*
नए टाडाडाहो* के आने को
देख रहे हैं,
उनके प्रचंड बूटों के तले
धरती काँपती हैं,
अमानुषी ताकत से उनके शरीर
विकृत होते  हैं,

उनके केशों से
सांप उग रहे हैं,
घृणा के सांप,
लालच के सांप,
ईर्ष्या के सांप,
कपट नीति के सांप,

वे फुफकारते हैं और
कुंडली जमा लेते है
वे तेल के भंडारों के सांप,
वे सोने की खदानों के सांप
वे रक्तरंजित हीरों के सांप,
वे मौत के दस्तों के सांप,
वे महामारियों के सांप

नहीं, कोई जादू नहीं
युद्ध के हथियार नहीं,
मनुष्य का कानून नहीं,
कोई सामूहिक सेना नहीं
जो इन टाडाडाहो को हरा सके
ये विकृत मष्तिष्क और विकृत शरीर,

फिर भी शांतिदूत और अयोन्तावाथा
और राष्ट्रों की माता अविचलित हैं
वे शांति के वृक्ष की
शीतल छाया में खड़े हैं
प्रतीक्षारत,
उनके पीछे खडी है
समूची जनता,
जिन्हें याद है कि
आदि कच्छप ने क्या कहा था,
क्या सिखाया था,
हाथ से हाथ जोड़ते हुए,
कंधे से कंधा मिलाते हुए
वे सुन रहे हैं नगाड़े की आवाज़
अंतरतम से उछलती उसकी लय,
शांति का महान गीत फिर गूंजेगा,
अपने हाथ में लिए
सींग से बनी कंघी, अयोन्तावाथा
करता है घोषणा।

            अंग्रेजी से रुपांतर :ललित सुरजन
            13.04.2009 सुबह 11.00 बजे



अमेरिकन मूलनिवासियों की लोकगाथाओं से नि:सृत
यह कविता आधुनिक संदर्भों को व्यंजित करती है।

-शब्दार्थ एवं संदर्भ-

1.    दादियाँ- देवताओं द्वारा मनोनीत, कबीलोंं को सम्हालने वाली स्त्रियाँ
2    कीवा- उत्खनन में प्राप्त आदिवासियों का उपासना गृह
3.    एना डाकिन्ना- हमारा घर
4.    पाहा सापा- पवित्र पर्वत पृथ्वी का केंद्र
5.    सिपापू- कीवा के भीतर एक गोल छेद, देवताओं के         आगमन द्वार का प्रतीक
6.    चैंटा ईस्टा- हृदय के नेत्र
7.    मसकोगी- एक कबीला
8.    शांतिदूत- शांति स्थापना के लिए भेजा गया देवदूत
9.    अयोन्तावाथा-देवदूत के शांति संदेश का प्रसारक
10.  राष्ट्रों की माता- विभिन्न जन समूहों का नियमन          करने देव-नियुक्त पुरखिन
11.    ताडाडाहो- दुर्दांंत अत्याचारी

-कवि परिचय-

 1942 में जन्मे जोसेफ ब्रूचाक उत्तर-पूर्व अमेरिका के     नुल्हेगान अबेनाकी कबीले से ताल्लुक रखते हैं। वे अपने कबीले के ज्येष्ठ हैं। उन्होंने अनेक उपन्यासों व कविताओं का सृजन किया है





कविता: गैर सरकारी प्रस्ताव




वह जिसे कि
अकेला खड़ा किया है
अदालत में
उसकी भी बात सुनी जाए
या यही है उसका अपराध कि
वह अकेला क्यों रहा
अब तक,
तो कोई जिरहकर्ता जवाब दे
कि उसका साथ
बार बार क्यों छीना
व्यवस्था के प्रहरियों ने

वहाँ एक जीवित रूखापन था
और उसे भिगाने की कोशिश में
कुछ लहरों ने अपने को
बादल बना उड़ा दिया उस ओर
लेकिन किसी टेबिल पर पड़े
ब्लाटिंग पेपर ने सोख लिया
सारा जल और सारा गर्जन-तर्जन
बादल बहुत नम्र हो आए और
दुबारा लहर बनने की कामना
लिए नजदीकी नदी में उतर पड़े
टेबिल पर झुका हुआ एक चेहरा था
जिसने बड़े इत्मीनान से
ब्लाटर को निचोड़ा और
लाल हो गये जल का
पचास प्रतिशत पी लिया
शेष को थर्मस में भर
वह उस चट्टान की ओर चल पड़ा
जहाँ से रूखापन खिसक  कर
नदी में डुबकी लगाना
चाह रहा था

सुबह की जिस किरण ने
उसे अपने कंधों पर लादा था
उसे एक पूरे दस्ते ने
अपनी संगीनों से बींध दिया,
और चट्टान पर पछाड़ दिया
सहमे हुए रुखेपन को
सागर के मुहाने पर
बैरियर लगा
नदियाँ रोक ली गईं और
हर संदिग्ध मछली का
पेट चीरा गया जिनमें
उड़ी हुई  लहरें
छिपी चली आ रही थीं,
लेकिन अब वहाँ जैसे
किसी बहुत अपने की मौत पर
बहता हुआ एक खारापन था
और दूर एक व्याकुल कोशिश
जिसने थर्मस के लाल जल को
पीने से इन्कार कर दिया
और खारापन अपनी अंजुरी में भर
चेहरा  ढाँप लेना चाहा
लेकिन बेअसर यह सब
ट्रिब्यूनल इसे नहीं सुनेगा, ढोंग यह सब
ट्रिब्यूनल न्याय का पुरस्कर्ता है
लेकिन अन्याय के खिलाफ
हर गैर-सरकारी प्रस्ताव दण्डनीय है।

1966

               

कविता: दिन गुजर गए



चितकबरे दिनों की लम्बी कतार
ही रह गई है गुजर जाने के लिए
इसके गुजर जाने पर क्या रहेगा शेष?

वे दिग-दिगन्त की यात्रा पर
निकले सार्थवाह थे
उत्सव और आमोद से भरपूर
नदी-नद की छाती को चीरते पोत
क्षितिज को चूमती उनकी पताकाएँ
वन-नगर-प्रान्तरों से गुजरते
गजारोही-अश्वारूढ़-रथासीन
दर्प से बैठे तने
वे अजित यौवन के प्रतीक
चपल वेग से धरा को रौंदते
धूल को विक्षुब्ध करते चले गए

वे श्रेष्ठ थे, नायक थे
सूर्य उनके मुकुट पर जड़ा
वे वैशाख की धूप से प्रचंड थे
उन्होंने हर उस रात की प्राचीर तोड़ी
जिसके आँगन में दु:स्वप्न खेलते थे
साँसों पर छाये कोहरे को
अपनी एक दृष्टि से उन्होंने छितराया
हिमखण्डों को पिघलाया
वे मुदित उत्सवरत यौवन से दिन
लेकिन.................लेकिन
किसने यात्रा के एक अभागे पल में
उनको रोका और कहा
सिकन्दर  ! तुम लौट जाओ
कौन था वह : साधु या
या छद्मवेशधारी
स्वयं था काल ही
श्राप देकर चला गया वह
चक्रवर्ती, तुम शेष हो जाओ...... 
और
भूकम्प नहीं आया : जलप्लावन भी नहीं
कोई अनहोनी नहीं : कोई अचम्भा नहीं
बस जैसे मंच पर अंक बदल गया
दर्शकों के लिए था सामने नया दृश्य
पात्र नये आ गए और उनकी भाषा भी

हो जाने दो सर्वत्र अन्धकार
किसने निर्देश दिया.......
यह नाटक नहीं, तुम्हारी यात्रा...नाटक नहीं....
किसने सहसा याद दिलाया

हाँ  यात्रा जारी रही : वे रुके नहीं
लेकिन ध्रुवों पर मौसम बदल गए और
उनके सारे संकल्प जल गए
अपने ही अहम् की उष्मा में
सार्थ तो उनका चलता ही रहा पर
छूट गए कौमुदी महोत्सव सब
छूट गया राजधानी का विश्राम
डूब गए महानद पर खेलते चपल
लहरों पर बजरों के  पल
और चूके वनानियों में मदमन्त
घूमते अहेरी के शर ।

कहाँ खो गए वे महाकाव्यों के नायक
कहाँ खोयीं उनकी  प्राण वल्लभाएँ
जिनके पाद प्रहार से अशोक पुष्पित हुआ:धन्य हुआ
क्या सच ही सब कुछ शेष हुआ
क्या सच ही सब कुछ शेष हुआ ।
1972


Sunday, 12 July 2020

कविता: भाषा समाप्त हो चुकी है




भाषा समाप्त हो चुकी है
और बच गये हैें
सिर्फ मुहावरे
इसके बाद भी
कविता लिखी जाती है
और में झल्लाता हूँ
अपने आप पर
आचरण भले ही
बेच दिया हो मैंने
दुनियादारी के हाथों
लेकिन
आत्मा तो जी रही है
और संवेदन भी
मर नहीं पाये हैं अब तक
तो परेशानी क्या है

क्या मैं कवि नहीं रहा कभी भी
और
सिर्फ एक भावुक किशोर
सरगोशियाँ करता रहा यदा-कदा
नहीं तुम्हारा ऐसा सोचना भी गलत है

सच कहूँ
तुमने मुहावरे के अलाव में
शब्दों को पका
कविता तैयार कर ली
लेकिन मुहावरे
मेरे लिए कभी भी
सम्पूर्ण भाषा नहीं रहे
मैं उन्हें जीवित शब्द भी
नहीं मान पाया और
और ऐसी टूटी भाषा
ऐसे मृत शब्दों को लेकर
कविता करना
आज तक सुहाया नहीं मुझे
व्यवस्था से जूझने की
दुस्साहसिक कल्पनाएँ पनपती हैं
मेरे मन में भी
लेकिन हत्यारी व्यवस्था के सामने
मैं शब्दों को फेंक कर
उनका अंत नहीं करवाना चाहता

मुझे बार-बार याद आती है
क्यूबा के क्रांतिकारी की
जिसकी नींदों में रोशनी के सपने रहे
और जिसका मन
पुकारना चाहता था
गुलाब से कोमल शब्दों की भाषा में
लेकिन लड़ने के लिए
उसने हथियार उठाये और
हो गया शहीद भी

अमेरिका में भी एक नीग्रो था
जिसने अपनी वायलिन
हवा में उछाल दी और
सड़क पर आ अकेला खड़ा हो गया
फिर एक दिन उसके पीछे
लम्बा जुलूस था और उसी क्षण
उसके सीने पर थी तनी हुई बंदूक

और एक वह था
जिसने हनोई या कांगों में
बैठकर कविताएँ भी लिखीं
लेकिन प्रस्तुत हुआ
जिस दिन वह युद्ध के लिए
उसो दिन वह
वाणी से लेकर वस्त्रों तक सैनिक था

तुम कह सकते हो-
मेरी कोई तुलना नहीं इनसे
मेरी तुलना तो तुमसे भी नहीं है
मैं न व्यवस्था से
जूझने वाला सिपाही हूं
न शब्दों से
खिलवाड़ करने वाला कवि।

सचमुच मैं वह हूं
जिसने आत्मा को थपकी देकर
सुला दिया है और
दुनिया के कर्मान्तों में
जो चाकरी बजा रहा है
उस सुप्रीमों की जिसका नाम
हर भाषा में दुनियादारी है

लेकिन मैं कविता नहीं लिखता
इसका अर्थ यह नहीं कि
मैंने गुलामी को ही
परिणति मान लिया है अपनी
जिक्र सुनता हूं जिनका बार-बार
लुमुम्बा से लेकर नेरूदा तक
ये सारे नाम
सुबह की किरण हैं मेरे लिए
जिनका स्पर्श पाकर टूटेगी
आत्मा की नींद किसी दिन
और तब
मेरे पास होगी एक सम्पूर्ण भाषा
होंगे हँसते खिलखिलाते शब्द
जिनमें मैं सिर्फ अपनी ही नहीं
तुम सब के संवेदनों की
कविता लिखूंगा।

1974

Saturday, 11 July 2020

देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार-5

उस दिन मैंने सुबह-सुबह बंबई से रायपुर आने के लिए गीतांजलि एक्सप्रेस पकड़ी थी। शायद 78-79 की बात होगी। नई-नई ट्रेन चली थी और आरक्षण मिलना अपेक्षाकृत आसान था। शाम 7 के बजे के आसपास ट्रेन नागपुर पहुंची। ऊंचे-पूरे सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी एक यात्री ने मेरी बोगी में प्रवेश किया। टीटीई उनके पीछे-पीछे आ रहा था। यात्री ने बर्थ के रेक्जीन को छूकर देखा। टीटीई की तरफ प्रश्न उछाला, 'इससे बेहतर बर्थ नहीं है?' 
- 'जी, इस ट्रेन में सभी डिब्बे 3- टियर हैं, और कोई श्रेणी नहीं है।' 
'ठीक है, रायपुर तक जाना है, किसी तरह चले जाएंगे।' 
'सर, टिकट बना दूं?' 
'हां, बना दो।' फिर उन्होंने अपने कुरते और जैकेट की जेब टटोली, खाली थी। 
'तुम रायपुर तक चल रहे हो?' टीटीई से पूछा। 
'जी, बिलासपुर तक जाऊंगा।' 
'तब ठीक है, रायपुर में पैसे ले लेना।' 
रात करीब एक बजे ट्रेन रायपुर पहुंची। उन्हें लेने पांच-सात लोग आए थे, उनमें से किसी ने टिकट के पैसे चुकाए। मैं उन सज्जन को जानता था। वे भी मुझे अच्छे से जानते थे। लेकिन मैं जानबूझ कर दूर बैठा दर्शक बना हुआ था।

वे श्यामाचरण शुक्ल थे। तब तक मध्यप्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रह चुके थे। उनके स्वभाव में एक तरफ नफासत थी, दूसरी तरफ फक्कड़पना भी था। वे नाराज भी जल्दी होते थे और उतनी ही जल्दी पिघल भी जाते थे। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा असीमित तो थी, लेकिन मध्यप्रदेश के आकाश तक। उन्होंने दिल्ली जाने का ख्याल कभी नहीं रखा। उन्हें लोगों से मिलने-जुलने में आनंद आता था, लेकिन जनता को 'दर्शन' देने की सामंती ठसक भी उनमें थी। शुक्ल जी नागपुर के विधि महाविद्यालय में बाबूजी से एक साल जूनियर थे और कम्युनिस्ट नेता ए बी बर्धन उनके सहपाठी थे। रविशंकर शुक्ल के मुख्यमंत्री रहते हुए भी बर्धनजी ने शुक्लजी को विवि छात्रसंघ चुनाव में पराजित किया था। जब श्री बर्धन मुख्यमंत्री के पास छात्रसंघ के शपथग्रहण के लिए मुख्य अतिथि का न्यौता देने गए तो निमंत्रण उन्होंने स्वीकार कर लिया था। यह सीनियर शुक्ल जी की उदारता थी कि बच्चों की राजनीति में बड़े क्यों हस्तक्षेप करें! यह उदारता श्यामाचरणजी में भी किसी न किसी रूप में आई।

मैं अनेक दृष्टियों से श्यामाचरणजी का सम्मान करता रहा हूं- मुख्यमंत्री, आयु, बाबूजी के सहपाठी, निर्मल हृदय आदि। इसके बावजूद उनके साथ कभी-कभार मेरी टकराहट हुई, लेकिन कभी लंबी नहीं खिंची। इस लेख माला के प्रथम खंड में मैं लिख चुका हूं कि 1969 में नगरीय निकायों के चुनाव को लेकर मैंने रायपुर में एक मुहिम छेड़ दी थी, जिसकी शिकायत उन्होंने बाबूजी से की थी कि ललित मेरे खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं। लेकिन इस बात को उन्होंने मन में नहीं रखा। एक लंबे अर्से बाद जब शुक्लजी कांग्रेस से निष्कासित रहने के बाद पार्टी में वापस लौटे, और रायपुर में उनके जोरदार स्वागत की तैयारी शुरु हुई, उसी दिन मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी, जो शुक्ल जी के रिश्तेदार भी थे, ने जाने किस भ्रम में गलत खबर छाप दी कि उनका रायपुर आना स्थगित हो गया है। इस खबर से देशबन्धु की साख पर आंच आनी ही थी, शुक्लजी के स्वागत समारोह के फीके पड़ जाने की आशंका भी थी। बहरहाल, वे निर्धारित समय पर रायपुर आए। मेरी अगले दिन ही शाम को चाय पर मुलाकात तय हुई। हम बातें कर ही रहे थे कि उनके सुपुत्र अमितेश ने कमरे में प्रवेश किया और गलत खबर के बारे में शिकायत की। शुक्लजी ने शांत स्वर में एक वाक्य में बेटे को चुप किया। बड़ों के बीच में नहीं बोलते हैं, तुम बाहर जाओ। मैं जब वर्तमान में राजनेताओं के व्यवहार को देखता हूं तो इस प्रसंग से तुलना करने का अनायास मन हो जाता है।

पं.रविशंकर शुक्ल का निधन 31 दिसम्बर 1956 को हुआ। कुछ ही सप्ताह बाद आम चुनाव होने थे। श्यामाचरण को विधानसभा और विद्याचरण को लोकसभा का टिकट मिला। दोनों ने जीत दर्ज की। 2007 में दोनों भाइयों की राजनीति को 50 साल पूरे हुए। उनके साथ अर्जुन सिंह और जमुना देवी के भी 5 दशक पूरे हुए। मैंने तब दोनों भाइयों के राजनैतिक सफर पर एक लेख लिखा था, जो देशबन्धु लाइब्रेरी में पुरानी फाइलों में देखा जा सकता है। श्यामाचरण जी के बारे में बात करते हुए कुछ बातें याद आती हैं। एक तो छत्तीसगढ़ के प्रखर समाजवादी नेता वी वाय तामस्कर इन दोनों भाईयों को छत्तीसगढ़ की राजनीति के दो राजकुमार कहकर संबोधित करते थे। देशबन्धु के संपादक पं.रामाश्रय उपाध्याय जब-तब अपने कॉलम में इसी उपमा का प्रयोग कर शुक्ल बंधुओं की आलोचना कर देते थे। श्यामाचरणजी ने इस बात का बुरा नहीं माना लेकिन कभी-कभार वे बेहद मामूली बात का भी बुरा मान बैठते थे। मसलन किसी दिन नवभारत में उनका बयान पहले पेज पर या फोटो सहित छपा, दूसरी ओर देशबन्धु में आखिरी पेज पर या बिना फोटो के छपा तो वे मुझे फोन करके शिकायत करते थे। ललित, आजकल तुम्हारे पेपर में ठीक से रिपोर्टिंग नहीं हो रही है।

इसी तरह कभी कम्युनिस्ट विधायक सुधीर मुखर्जी का वक्तव्य प्रथम पेज पर और उनका आखिरी पेज पर छप जाए तो भी वे बुरा मान जाते थे। ऐसे समय में उनसे इतना कहना पर्याप्त होता- ठीक है, देख लूंगा, आगे से गलती नहीं होगी। और वे संतुष्ट हो जाते थे। दिलचस्प तथ्य है कि वे फोन मुझे करते थे लेकिन हमेशा पूछते बाबूजी के बारे में थे। ललित, मायारामजी हैं? जी, वे तो रायपुर से बाहर हैं। बंबई गए हैं, इत्यादि। अच्छा ठीक है, फिर तुमसे ही बात कर लेता हूं। यह बड़प्पन जताने का उनका अपना तरीका था। मैं इस मासूम अदा पर मन ही मन मुस्कुराने के अलावा और क्या कर सकता था? उन्हें अपने राजनीतिक कद का भरपूर अहसास था और इसे व्यक्त करने से वे कभी नहीं चूकते थे। वे तीन बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और बात-बात में कोई बात पसंद न आने पर वे अफसरों को सीधे कहते थे- मैं चौथी बार मुख्यमंत्री बनकर आऊंगा, तब तुम लोगों के दिमाग ठिकाने लगाऊंगा। अफसर भी जानते थे कि इस बात को कितनी गंभीरतापूर्वक लेना चाहिए।

मेरे बुजुर्ग मित्र डॉ. रामचंद्र सिंहदेव ने मध्यप्रदेश के छह मुख्यमंत्रियों के साथ मंत्रिमंडल में काम किया। उनके संस्मरण 'सुनी सब की, करी मन की' देशबन्धु में छपे हैं। वे कहते थे- श्यामाचरण के पास प्रदेश के विकास की जो दृष्टि है, वह किसी अन्य के पास नहीं है। इस आकलन से शायद ही कोई असहमत होगा। श्री शुक्ल जानते थे कि प्रदेश में सिंचाई सुविधाओं के विस्तार के बिना किसान और आम आदमी की आर्थिक बेहतरी का और कोई उपाय नहीं है। उन्होंने अपने कार्यकाल में इस दिशा में भरपूर ध्यान दिया। प्रदेश में जगह-जगह बड़े-छोटे बांध बने। इस मामले में उनकी दृष्टि एक इंजीनियर की थी, यानी जो योजनाएं हाथ में ली गईं, उनका बाकायदा अध्ययन किया गया। कहीं भी  कुछ भी कर देना है, ऐसा नहीं था। इसका एक अपवाद ध्यान में है।

तेजी से बढ़ते इंदौर शहर की जलापूर्ति के लिए उन्होंने नर्मदा का पानी इंदौर पहुंचाने की योजना भी बनाई। इस तरह अपनी ससुराल को एक तोहफा दिया। उनके इस निर्णय से इंदौर को फौरी राहत मिली, लेकिन योजना तकनीकी रूप से दीर्घकालीन लाभदायक सिद्ध नहीं हुई। उनके विचारों में कभी-कभी पुरातनपंथी सोच भी नजर आती थी। छत्तीसगढ़ और झारखंड को सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए जशपुर के आगे शंख नदी पर पुल बनना था, जिसे उन्होंने वर्षों नहीं बनने दिया कि बिहार के लोग मध्यप्रदेश आकर अपराध करेंगे और पुल पार कर भाग जाएंगे। यह पुल न बनने से दोनों तरफ के नागरिकों को कितनी असुविधाएं होती रही होंगी, इस बारे में उन्होंने सोचना जरूरी नहीं समझा।   
(अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 09 जुलाई 2020 को प्रकाशित