Thursday 23 July 2020

देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार-7



 आज यह बात शायद बहुत लोगों को पता नहीं होगी कि श्यामाचरण और विद्याचरण दोनों शुक्ल बंधु पत्रकारिता में अपने हाथ आजमा चुके थे। पंडित रविशंकर शुक्ल ने नागपुर से अंग्रेजी दैनिक नागपुर टाइम्स शुरू किया था, जिसके प्रथम संपादक प्रखर बुद्धिजीवी भवानी सेनगुप्ता ने चाणक्य सेन के छद्म नाम से मूल बांग्ला में  'मुख्यमंत्री' शीर्षक चर्चित उपन्यास लिखा था। पुराने मध्यप्रदेश अर्थात सी पी एंड बरार की राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को यह उपन्यास पढ़ना चाहिए।  शुक्लजी ने इसके अलावा 'महाकौशल' टाइटिल से साप्ताहिक पत्र भी स्थापित किया था जिसे आगे चलकर श्यामाचरणजी ने ही दैनिक का स्वरूप प्रदान किया। वे उसके प्रधान संपादक भी थे। 1956 से 58 के बीच महाकौशल छत्तीसगढ़ का एकमात्र दैनिक पत्र था।  इस अखबार में कार्यकारी संपादक के रूप में एक से अधिक प्रबुद्ध संपादकों ने भूमिका निभाई। अनेक रचनाकारों को महाकौशल ने ही लेखक बनाया। लेकिन व्यावहारिक राजनीति में उलझे श्री शुक्ल ने अखबार की ओर यथावश्यक ध्यान नहीं दिया। बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि पत्र को उन्होंने अपनी अहंकार पुष्टि का साधन बना लिया।

रोज दर रोज उन्हीं के फोटो, उन्हीं के बयान, विरोधियों की अनावश्यक आलोचना। पाठक कब तक ऐसे एकपक्षीय पत्र को पसंद करते? एक लंबे समय बाद पत्र जगत में एक लगभग अनहोनी और विचित्र घटना हुई जब श्यामाचरण शुक्ल ने अपने प्रतिस्पर्धी अखबार नवभारत के संपादक गोविंद लाल वोरा को महाकौशल का संपादन एवं प्रबंधन दोनों सौंप दिया। ऐसा उन्होंने क्या सोचकर किया, किसी के पल्ले नहीं पड़ा। वोराजी ने भी यह करतब कैसे संभव किया, यह भी एक पहेली ही है। कुल मिलाकर यही हुआ कि शनै: शनै: महाकौशल पाठकों के दिल-दिमाग से पूरी तरह उतर गया। गुरुदेव चौबे काश्यप जैसे प्रखर व सजग पत्रकार के संपादक के पद पर रहते हुए भी कुछ न हो सका। वे रायपुर छोड़ अपने गृहनगर रायगढ़ चले गए। आपातकाल के दौरान अखबार को राज्य सरकार के विज्ञापन भी मनमाने ढंग से मिल रहे थे। उससे हुई अकूत आमदनी का हिसाब शायद शुक्लजी तक पहुंचा ही नहीं। उन्हें शायद इसकी परवाह भी नहीं थी।

श्री शुक्ल ने 1957 में विधानसभा में प्रवेश किया और 12 वर्ष बाद मुख्यमंत्री बने। उस दौरान देश-प्रदेश की राजनीति में यह निरापद समय था। उनकी महत्वाकांक्षा और नेतृत्व के सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं थी। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के दो खेमे अवश्य थे जिसमें शुक्लजी डीपी मिश्र के खेमे में थे। यह सामान्य अपेक्षा थी कि वह अपने पिता के सहयोगी मिश्रजी के मार्गदर्शन में आगे बढ़ेंगे किंतु स्वयं श्री शुक्लजी को यह रास्ता मंजूर नहीं था। 1967 के विधानसभा चुनाव के पहले डीपी मिश्रा ने अपने कुछ भावी मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के नामों की घोषणा कर दी थी। इनमें छत्तीसगढ़ से दो प्रमुख नाम थे। राजनांदगांव के किशोरी लाल शुक्ल और रायपुर के बुलाकी लाल पुजारी। पुजारीजी बड़े वकील और रायपुर नगरपालिका अध्यक्ष थे। मिश्रजी के नेतृत्व में बनने वाली सरकार में वे प्रदेश के अगले विधि मंत्री होंगे, यह बात जगजाहिर थी।

कांग्रेस के दूसरे खेमे में पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष और निवर्तमान विधायक शारदा चरण तिवारी थे। वे सेठियाई ग्रुप के साथ थे। उनका जब टिकट कट गया तब उन्होंने एक नई पार्टी का सहारा लिया। शुक्ल बंधुओं को पुजारीजी के नेतृत्व के उभार से अपना भविष्य संकटमय नजर आने लगा। वे पार्टी उम्मीदवार का सीधा विरोध तो कर नहीं सकते थे। लेकिन स्थानीय प्रशासन की मदद से ऐसा खेल खेला गया जिसमें शारदा चरण तिवारी को जनता की सहानुभूति प्राप्त हुई और वे चुनाव जीत गए। डीपी मिश्र जैसे कूटनीतिज्ञ भी इस दुरभिसंधि  को समय रहते नहीं समझ पाए।

कांग्रेस की प्रादेशिक राजनीति में भी श्यामाचरण शुक्ल और अर्जुन सिंह लगातार विपरीत ध्रुवों पर बने रहे। शुक्लजी ने अर्जुनसिंह को कभी अपने मंत्रिमंडल में स्थान नहीं दिया। जब 1980 में कांग्रेस का मुख्यमंत्री बनने की स्थिति बनी तो श्री शुक्ल ने आदिवासी कार्ड खेलते हुए शिवभानु सिंह सोलंकी को अपने खेमे से उम्मीदवार घोषित किया, यद्यपि हाईकमान की मर्जी के अनुसार अर्जुनसिंह ही अंतत: चुने गए। शुक्लजी इस हार को नहीं पचा पाए। उनके लगातार विद्रोही तेवरों को देखते हुए हालात यहां तक पहुंचे कि उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। वे इसके बाद लगभग ग्यारह साल तक राजनैतिक बियाबान में भटकते रहे। लेकिन यह लिखना आवश्यक होगा कि वे इस पूरे दौरान कांग्रेस वापसी की कोशिश में ही लगे रहे। किसी अन्य दल का दामन थामना उन्हें स्वीकार नहीं हुआ।

श्यामाचरण शुक्ल सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी तो थे ही, उनमें एक नफासत भी थी। अनेक वर्ष पहले मैंने मौलाना आज़ाद का एक ललित निबंध पढ़ा था, जिसमें बड़े दिलचस्प अंदाज में बताया गया था कि चाय कैसे पी जाना चाहिए। बोन चाइना के बारीक ओंठों जैसी किनार, केटली में गरम पानी, उसमें चाय की पत्ती निश्चित रंग आते तक उबलती हुई, शक्कर के क्यूब आदि। श्यामाचरणजी का चाय पीने-पिलाने का अंदाज भी कुछ ऐसा ही था। साथ में घर के बने नमकीन। मुझे उनके साथ कई बार चाय पीने का मौका मिला। मैं कह सकता हूं कि उनके जैसे सलीके से चाय पिलाने वाले सिर्फ एक ही अन्य नेता को देखा। वे थे इंद्र कुमार गुजराल।

एक जननेता होने के नाते शुक्लजी को प्रतिदिन सैकड़ों लोगों से मिलना होता था लेकिन इसके लिए उनका कोई टाइम टेबल नहीं था। उनके निवास पर मजमा लगता था और दर्शनार्थियों को 3-3 घंटों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। फिर भी कुछ तो उनके व्यक्तित्व में चुंबकीय आकर्षण था कि लोग इस अराजकता को खुशी-खुशी बर्दाश्त कर लेते थे। श्री शुक्ल जब दौरे पर जाते थे तो उनके कुर्ते या जैकेट की जेब में थ्रेप्टिन बिस्किट की डब्बी बिला नागा रहती थी। यहां-वहां भोजन करने की बजाय वे इन प्रोटीन-रिच बिस्किटों से अपनी क्षुधा शांत कर लेते थे। श्री शुक्ल एक प्रशिक्षित पायलट भी थे। उन्हें लोगों ने छोटा हवाई जहाज़ उड़ाते देखा है। उन्हें जब नियमित विमान सेवा से रायपुर से दिल्ली अथवा भोपाल जाना होता था तो वह घर पर प्रतीक्षा करते रहते थे। विमान की लैंडिंग हो जाने के बाद उनका काफिला घर से निकलता था। इस कारण से फ्लाइट लेट होती हो तो हो और यात्री परेशान हो तो अपनी बला से। इसके बावजूद वे उदार हृदय के व्यक्ति थे, जिसकी जेब से आप आखिरी रुपया तक निकलवा सकते थे।

प्रदेश के विकास के लिए वे तार्किक और योजनाबद्ध तरीके से सोचा करते थे। केंद्र सरकार की नई औद्योगिक नीति के एक प्रावधान का लाभ उठाते हुए उन्होंने रायपुर के निकट धरसीवा गांव को विकास खंड बना उसे पिछड़े क्षेत्र का दर्जा देकर रायपुर के औद्योगिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया। जहां तक मुझे ध्यान है प्रदेश के तमाम बड़े शहरों के मास्टर प्लान भी उनके पहले कार्यकाल में बने। रायपुर के मास्टर प्लान का अध्ययन करने का मौका मुझे मिला। ऐसा नहीं कि उसमें कमियां नहीं थीं, फिर भी वह एक अग्रगामी सोच का दस्तावेज था। अंत में यही कहूंगा कि श्यामाचरण शुक्ल के अवदान का विधिवत मूल्यांकन होना अभी बाकी है। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 23 जुलाई 2020 को प्रकाशित

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