Saturday 18 July 2020

कविता: सत्ता के जंगल में





(1)

आज फिर समय ने
मुझे उन्हीं अंधेरे वनों में
आवास दे दिया है जहाँ
उदासी के चिर-परिचित वल्कल सिवा
मेरी कोई अन्य सम्पत्ति नहीं,
ये वही सारा परिवेश-
जिसको त्याग कर मैंने
सहजता के दुकूल बुनने का
किया था कभी संकल्प।

(2)

यद्यपि मैं नहीं था बुनकर
न थी मकड़ी-सी दक्षता
फिर भी वह लोक था प्रिय
जहाँ हर व्यक्ति की आँखों को
स्वप्न बुनने का हक मिले,
मैं एक वीभत्स पथराई दृष्टि
से बचना चाहता था और
सपनों के रंग यद्यपि
नहीं थे इन्द्रधनुषी, तब भी
एक उज्ज्वल स्वस्ति रंग था
मेरे लिए और थीं
सीधी व गहरी रेखाएँ
उस नवप्रांत की हथेली पर,

(3)

इसीलिए मैंने एक पूर्व-संकल्प
को निश्चित बहाव दे दिया
चट्टानों के गर्भ में छुपी
नदी में भागते आते हुए,
वह मरण से निष्कृति थी
या थी दुर्दम्य आकांक्षा
निरन्तर चलने की नवभूमि में
मैं नहीं जानता-पर थी विरक्ति
इतिहास या कैलेंडर से
तिथि और मिति का ज्ञान भी
भूलने की ही बात थी-तब भी
कोई अनाकर्षण नहीं था उनमें
कभी-कभी बहुत मोह के साथ मैंने
भेंट भी किए तारीखों वाले कैलेंडर।

(4)

लेकिन आज मैं जहाँ आ गया हूँ
वहाँ मुझे कोई समय नहीं बताता
नक्षत्रों की बदलती स्थिति को
ज्योतिष दृष्टि नहीं पहचान पाती
और जबकि जरूरत नहीं है उसकी
मैं चाहता हूं- कोई मुझे
सुन्दर रेखाचित्रों वाला
कैलेंडर भेंट दे।

(5)

मैं तारीखों के उन शवों को
आखिरी सलामी देना चाहता हूं
जिन्होंने गिनने के बीच ही
मेरी अँगुलियों पर दम तोड़ दिया
और फाँसी बनाना चाहता हूं
उन बहुत से दिनों माहों को
जिन्होंने गुंजलक मारकर
अवरुद्ध  कर दी हैं रक्तवाहिनियाँ
इस बेतारीख देश में जीते हुए
मुझे अफसोस है कि
मेरी अँगुलियों ने हो क्यों न दम तोड़ा
मैं किस परखनली की तलाश करूँ
जो यह बतायें कि
शिराएं क्यों न फटीं
लहू का विस्फोट क्यों न हुआ ।

 (6)

काश ! वैसा ही होता कि
मेरी नियन्ता अंगुलिमाल की
उपााधि धार बैठता सिंहासन पर
और महामहिम के लहलहाते उद्यान में
होता एक खूबसूरत खूनी फव्वारा
या फिर
वनांतरों का रक्त सरोवर
होता राजधानी में
उबाल बनने से पहले
रक्त खींच लेने का प्रदर्शन
होता कितना मोहक
 कितने धैर्यवीर हैं वे
आह ! देखिए तो
उपाधियों  के सारे पद्म
कितने सुर्खरू खिलते हैं
रक्त सरोवर में ।

(7)

लेकिन यहाँ
यहाँ तो कोई देख पाता नहीं
वैसे कुछ लोग होते हैं अराजक
निषेधाज्ञा का किया उन्होंने उल्लंघन
किन्तु नहीं बच पाए वे
उन पैनी निगाहों से वनरक्षकों की
जो वन-सम्पत्ति के
अवैध निष्क्रमण पर सहमत होती है
जिनका कर्तव्य शेष सबको
सीमा पर ही रोक देना है,
अन्तत: शासन की
मर्यादाभूमि और लीलाभूमि में
भेद तो होता ही है।

(8)
इसीलिए वे सब दुस्साहसी
एक कृतज्ञतापूर्ण अन्त तक पहुँच गए
सौभाग्यशाली थे वे
लेकिन मैं एक प्रदीप्त निष्ठा और
एक बुझते विश्वास के बीच
झुलसने के लिए छोड़ दिया गया हूं
अजीब है यह गोरखधन्धा
देह लपटों में घिरी है पर
वल्कल पर आँच नहीं आती
मैं शायद इसी तरह
भस्म हो जाऊँगा
और अधर में छूट जाएगा
वल्कल यह जो मेरे बाद
किसी और को पहिला दिया जायेगा
जो भी चेष्टा करेगा
मुखबिर बनने की ।

1969


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