जोसेफ ब्रूचाक
(अमेरिकन मूलनिवासी कवि)
(1)
हम देख रहे हैं
पंचायत घर की खिडकियों से,
जहाँ हमारी दादियों* ने
समझ और धीरज के साथ
चुना उन नेताओं को
जिन्हें जनता ने चाहा, विश्वास किया,
और आगे बढ़ाया,
जहाँ आकाश को प्रकंपित करते हुए
डैने फडफ़ड़ाकर चीलों ने
संगीत दिया
शांति के गीतों को,
बच्चों की, बड़ों की और
आने वाली पीढियों को
स्वस्ति के लिए,
हम देख रहे है
उस ठिकाने से, जहाँ दफन किए गए
बंधुद्रोही लड़ाईयों के हथियार और
जहाँ अब खड़ा है
गगनचुंबी वृक्ष देवदार का,
और उस पर बैठी चील
नीचे देखती हुई,
(2)
हम देख रहे हैं
कीवा* के भीतर से,
जहाँ भविष्य बताने वाले पात्र के
थिर जल में आवर्तन उठे और
उभर आए वे सुदूर दृश्य जो
उतने सुदूर नहीं हैं,
टूटे बाण, मौत की वज्र कठोर हवाएं,
काली और जलती हुई बरसात,
(3)
हम देख रहे हैं
जंगल की पनाहगाह से
जहाँ बारहसिंगे अपने सींग
उतार कर धर देते हैं कि
किसी को
धोखे से भी चोट न लगे,
वहां जहां पुरखिन चट्टान की
सुलगती आँखों में
अगिन का वास था जिसके
ताप में हमने स्वयं को पवित्र किया,
अपने तमाम रिश्तों को निभाने के लिए,
और प्रार्थना की
सभी जीवित जनों के लिए,
कि सब हिल-मिल कर रहें
कि सब रहें सलामत,
(4)
हम देख रहे हैं
बादलों को छूती फुनगी के कोटर से
जहाँ बिना अन्न, जल और नींद के
चील करती है अनथक चौकसी,
जहाँ भालू और हिरन आकर
सामने खड़े होते हैं
हमसे कुछ कहने के लिए,
जब हवा और बादल आपस में
कानाफूसी करने के लिए,
करते हैं शरीर ग्रहण,
तभी हम देखते हैं
सुदूर क्षितिज पर
लालच और नफरत की आकृतियाँ,
और लिप्सा जो तब्दील हो जाती हैं
अग्नि के बरछों में,
(5)
हम देखते हैं
बहती हवा के साथ
काँप रहे शिविरों से
भुतहा नृत्य के गोल घेरे से
स्वप्नजीवियों के सिरहाने से,
उड़ते हुए तीरों की दोनों दिशाओं से,
जलपांखियों के भीगे पंखों से,
(6)
हम देख रहे हैं
एना डाकिन्ना* से,
पाहा सापा* से,
सिपापू* से, चैंटा ईस्टा* से,
बड़े घर से,
सातवीं दिशा से,
पृथ्वी के हृदय से,
और उस नाजुक जगह से
जो हमारे अपने हृदय में कहीं है,
जो मुखर होती है सिर्फ तभी
जब अपने आप को
उस रुप में देखते हैं हम,
जैसा विधाता ने हमें बनाया, देखना चाहा,
(7)
हम देख रहे हैं
जिस नज़र से
मसकोगी* बूढ़े ने देखा था
आसन्न तूफान के समय,
जब चक्रवात की शहतीर
खेतों को झिंझोड़ती हुई
उसकी झोपड़ी की तरफ लपकी थी,
जब उसने दोनों हाथों में कुल्हाड़ी उठाई
और चक्रवात को चीर कर रख दिया
दो हिस्सों में,
ज्यों किसी पेड़ का कटा तना,
हम देख रहे हैं
जैसा दादियों ने देखा था,
अपने ठंडे-सर्द ट्रेलर में
छोटे रुपहले परदे को,
और आदिम अफसोस में
सिर हिलाया था, जब
न्यायाधीश का काला चोंगा धारण किए लोग
पोशकों में सिल रहे थे पत्थर,
और सियाह जल की अतल गहराईयों से
कर रहे थे
मुखिया की जय-जयकार,
हम देख रहे हैं कि
सफेद पत्थर की तरी
वापिस पश्चिमी घाट पर
आ लगी है,
हम देख रहे हैं कि
सुधीर शांतिदूत और
अयोन्तावाथा* और राष्ट्रों की माता*
नए टाडाडाहो* के आने को
देख रहे हैं,
उनके प्रचंड बूटों के तले
धरती काँपती हैं,
अमानुषी ताकत से उनके शरीर
विकृत होते हैं,
उनके केशों से
सांप उग रहे हैं,
घृणा के सांप,
लालच के सांप,
ईर्ष्या के सांप,
कपट नीति के सांप,
वे फुफकारते हैं और
कुंडली जमा लेते है
वे तेल के भंडारों के सांप,
वे सोने की खदानों के सांप
वे रक्तरंजित हीरों के सांप,
वे मौत के दस्तों के सांप,
वे महामारियों के सांप
नहीं, कोई जादू नहीं
युद्ध के हथियार नहीं,
मनुष्य का कानून नहीं,
कोई सामूहिक सेना नहीं
जो इन टाडाडाहो को हरा सके
ये विकृत मष्तिष्क और विकृत शरीर,
फिर भी शांतिदूत और अयोन्तावाथा
और राष्ट्रों की माता अविचलित हैं
वे शांति के वृक्ष की
शीतल छाया में खड़े हैं
प्रतीक्षारत,
उनके पीछे खडी है
समूची जनता,
जिन्हें याद है कि
आदि कच्छप ने क्या कहा था,
क्या सिखाया था,
हाथ से हाथ जोड़ते हुए,
कंधे से कंधा मिलाते हुए
वे सुन रहे हैं नगाड़े की आवाज़
अंतरतम से उछलती उसकी लय,
शांति का महान गीत फिर गूंजेगा,
अपने हाथ में लिए
सींग से बनी कंघी, अयोन्तावाथा
करता है घोषणा।
अंग्रेजी से रुपांतर :ललित सुरजन
13.04.2009 सुबह 11.00 बजे
और आदिम अफसोस में
सिर हिलाया था, जब
न्यायाधीश का काला चोंगा धारण किए लोग
पोशकों में सिल रहे थे पत्थर,
और सियाह जल की अतल गहराईयों से
कर रहे थे
मुखिया की जय-जयकार,
हम देख रहे हैं कि
सफेद पत्थर की तरी
वापिस पश्चिमी घाट पर
आ लगी है,
हम देख रहे हैं कि
सुधीर शांतिदूत और
अयोन्तावाथा* और राष्ट्रों की माता*
नए टाडाडाहो* के आने को
देख रहे हैं,
उनके प्रचंड बूटों के तले
धरती काँपती हैं,
अमानुषी ताकत से उनके शरीर
विकृत होते हैं,
उनके केशों से
सांप उग रहे हैं,
घृणा के सांप,
लालच के सांप,
ईर्ष्या के सांप,
कपट नीति के सांप,
वे फुफकारते हैं और
कुंडली जमा लेते है
वे तेल के भंडारों के सांप,
वे सोने की खदानों के सांप
वे रक्तरंजित हीरों के सांप,
वे मौत के दस्तों के सांप,
वे महामारियों के सांप
नहीं, कोई जादू नहीं
युद्ध के हथियार नहीं,
मनुष्य का कानून नहीं,
कोई सामूहिक सेना नहीं
जो इन टाडाडाहो को हरा सके
ये विकृत मष्तिष्क और विकृत शरीर,
फिर भी शांतिदूत और अयोन्तावाथा
और राष्ट्रों की माता अविचलित हैं
वे शांति के वृक्ष की
शीतल छाया में खड़े हैं
प्रतीक्षारत,
उनके पीछे खडी है
समूची जनता,
जिन्हें याद है कि
आदि कच्छप ने क्या कहा था,
क्या सिखाया था,
हाथ से हाथ जोड़ते हुए,
कंधे से कंधा मिलाते हुए
वे सुन रहे हैं नगाड़े की आवाज़
अंतरतम से उछलती उसकी लय,
शांति का महान गीत फिर गूंजेगा,
अपने हाथ में लिए
सींग से बनी कंघी, अयोन्तावाथा
करता है घोषणा।
अंग्रेजी से रुपांतर :ललित सुरजन
13.04.2009 सुबह 11.00 बजे
अमेरिकन मूलनिवासियों की लोकगाथाओं से नि:सृत
यह कविता आधुनिक संदर्भों को व्यंजित करती है।
-शब्दार्थ एवं संदर्भ-
1. दादियाँ- देवताओं द्वारा मनोनीत, कबीलोंं को सम्हालने वाली स्त्रियाँ
2 कीवा- उत्खनन में प्राप्त आदिवासियों का उपासना गृह
3. एना डाकिन्ना- हमारा घर
4. पाहा सापा- पवित्र पर्वत पृथ्वी का केंद्र
5. सिपापू- कीवा के भीतर एक गोल छेद, देवताओं के आगमन द्वार का प्रतीक
6. चैंटा ईस्टा- हृदय के नेत्र
7. मसकोगी- एक कबीला
8. शांतिदूत- शांति स्थापना के लिए भेजा गया देवदूत
9. अयोन्तावाथा-देवदूत के शांति संदेश का प्रसारक
10. राष्ट्रों की माता- विभिन्न जन समूहों का नियमन करने देव-नियुक्त पुरखिन
11. ताडाडाहो- दुर्दांंत अत्याचारी
-कवि परिचय-
1942 में जन्मे जोसेफ ब्रूचाक उत्तर-पूर्व अमेरिका के नुल्हेगान अबेनाकी कबीले से ताल्लुक रखते हैं। वे अपने कबीले के ज्येष्ठ हैं। उन्होंने अनेक उपन्यासों व कविताओं का सृजन किया है
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