Monday 20 July 2020

कविता: बाईसवीं सदी




मैं बाईसवीं सदी में
एक वृक्ष के नीचे खड़ा था
इसे बीसवीं सदी में
किसी सीमेंट कंपनी ने रोपा था
दुनिया के तमाम वृक्ष
कट जाने के बाद
यह अकेला पेड़ बचा था
जिसे साल-बोरर
छेद नहीं पाया था
बाईसवीं सदी के
ध्वस्त महानगर में यह वृक्ष
बीसवीं सदी में हासिल
उन्नति का प्रमाण था

पेड़ की अनगिनत मंज़िलों में
असंख्य कमरे थे और
उनमें एक भी खाली नहीं था
थे असंख्य दरवाज़े लेकिन
उनमें एक भी  खुला नहीं था,
बाईसवीं सदी में
जी रहे थे
बीसवीं सदी के सयाने,
बाईसवीं सदी की हवा में
सांस ले रहे थे

वे बहुत बुद्धिमान थे
पवित्र विचारों से ओतप्रोत
और उन्हें अपने पर गर्व था,
वे भविष्य पढ़ लेने का
दावा करते थे और
समय की नदी में वे
उल्टे लौट सकते थे
सृष्टि के पहिले दशक तक,
वे साहसी आखेटक थे और
अक्सर मृगों का पीछा करते
इतिहास में बिलम जाया करते थे

वे पृथ्वी के कण-कण में
प्रभु की महिमा देखते थे और
सर्वत्र व्याप्त हो जाना चाहते थे,
वे स्वदेश में रहते थे और
उनके वंशधर
प्रवास पर आया करते थे
इस तरह वे
अयोध्या और अमेरिका में
एक साथ जी सकते थे,
बीसवीं सदी की वसुधा में
बहुत छोटा था उनका कुटुंब

वे सचमुच कर्मयोगी थे
उद्यमी और उदार,
उनके स्पर्श में पारस था
चारों तरफ विखरा सोना-ही-सोना
उनकी आत्मा भी कुंदन,
उन्होने बहाई समृद्धि की नदियाँ
केला की बाढ़ में उफनी कालिंदी
बरसे उपहारों पर उपहार
चकित हुए गोवर्धनधारी

बीसीवीं सदी में था
कितना कुछ करने का अवसर
धर्म और धन में था
कितना अद्भुत संबंध!
नूतन और पुरातन का
था कैसा मणिकांचन योग !
पूरब और पश्चिम में
था कैसा अनुपम सौहार्द्र !
बीसवीं सदी के सयाने
बाईसवीं सदी के सपनों में डूबे,
अकेले वृक्ष की छाया से मैं
वर्तमान में लौटा
अपनी सदी से डरा-डरा
1999
......







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