Sunday 12 July 2020

कविता: भाषा समाप्त हो चुकी है




भाषा समाप्त हो चुकी है
और बच गये हैें
सिर्फ मुहावरे
इसके बाद भी
कविता लिखी जाती है
और में झल्लाता हूँ
अपने आप पर
आचरण भले ही
बेच दिया हो मैंने
दुनियादारी के हाथों
लेकिन
आत्मा तो जी रही है
और संवेदन भी
मर नहीं पाये हैं अब तक
तो परेशानी क्या है

क्या मैं कवि नहीं रहा कभी भी
और
सिर्फ एक भावुक किशोर
सरगोशियाँ करता रहा यदा-कदा
नहीं तुम्हारा ऐसा सोचना भी गलत है

सच कहूँ
तुमने मुहावरे के अलाव में
शब्दों को पका
कविता तैयार कर ली
लेकिन मुहावरे
मेरे लिए कभी भी
सम्पूर्ण भाषा नहीं रहे
मैं उन्हें जीवित शब्द भी
नहीं मान पाया और
और ऐसी टूटी भाषा
ऐसे मृत शब्दों को लेकर
कविता करना
आज तक सुहाया नहीं मुझे
व्यवस्था से जूझने की
दुस्साहसिक कल्पनाएँ पनपती हैं
मेरे मन में भी
लेकिन हत्यारी व्यवस्था के सामने
मैं शब्दों को फेंक कर
उनका अंत नहीं करवाना चाहता

मुझे बार-बार याद आती है
क्यूबा के क्रांतिकारी की
जिसकी नींदों में रोशनी के सपने रहे
और जिसका मन
पुकारना चाहता था
गुलाब से कोमल शब्दों की भाषा में
लेकिन लड़ने के लिए
उसने हथियार उठाये और
हो गया शहीद भी

अमेरिका में भी एक नीग्रो था
जिसने अपनी वायलिन
हवा में उछाल दी और
सड़क पर आ अकेला खड़ा हो गया
फिर एक दिन उसके पीछे
लम्बा जुलूस था और उसी क्षण
उसके सीने पर थी तनी हुई बंदूक

और एक वह था
जिसने हनोई या कांगों में
बैठकर कविताएँ भी लिखीं
लेकिन प्रस्तुत हुआ
जिस दिन वह युद्ध के लिए
उसो दिन वह
वाणी से लेकर वस्त्रों तक सैनिक था

तुम कह सकते हो-
मेरी कोई तुलना नहीं इनसे
मेरी तुलना तो तुमसे भी नहीं है
मैं न व्यवस्था से
जूझने वाला सिपाही हूं
न शब्दों से
खिलवाड़ करने वाला कवि।

सचमुच मैं वह हूं
जिसने आत्मा को थपकी देकर
सुला दिया है और
दुनिया के कर्मान्तों में
जो चाकरी बजा रहा है
उस सुप्रीमों की जिसका नाम
हर भाषा में दुनियादारी है

लेकिन मैं कविता नहीं लिखता
इसका अर्थ यह नहीं कि
मैंने गुलामी को ही
परिणति मान लिया है अपनी
जिक्र सुनता हूं जिनका बार-बार
लुमुम्बा से लेकर नेरूदा तक
ये सारे नाम
सुबह की किरण हैं मेरे लिए
जिनका स्पर्श पाकर टूटेगी
आत्मा की नींद किसी दिन
और तब
मेरे पास होगी एक सम्पूर्ण भाषा
होंगे हँसते खिलखिलाते शब्द
जिनमें मैं सिर्फ अपनी ही नहीं
तुम सब के संवेदनों की
कविता लिखूंगा।

1974

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