Saturday, 18 July 2020

कविता: बहाव.....



मैने आज एक
पूरा दिन जिया है
बधाई नहीं दोगे मुझे?


इसके पहले तक
अब तक
मैं क्षणों को
जीता रहा हूं और
गँवाया है दिनों को मैंने,
लेकिन आज
सचमुच, आज पूरा दिन जिया है
घास चरती गाय से लेकर
पान चबाते प्रभात तक
पूरा एक दिन जिया है मैंने,
अस्पताल की बीमार गंधों से लेकर
स्टेशनरी-शाप के शो केस में सजे
दीपावली कार्डो की खुशबू तक
पूरा एक दिन जिया है मैंने,

रात मैं स्टेशन के
वेटिंग रूम में ठहरा था
सीट नहीं मिलने से
टेबल पर अधजागा-सा सोया था,
और हर दूसरे घंटे छुकछुकाती रेलों से
लगा था मुझे कि
पटरियों पर मैं बहा जा रहा हूं,
और  सुबह स्टेशन से
बाहर आने पर पाया था कि
वेटिंगरूम मेरे पीछे आ रहा है
मैं जहाँ भी रुक सका हूूं
पिछले बरसों में
हर वह जगह
इस वेटिंगरूम ने घेर ली है
जिससे निकलने के बाद
मुझे रेल की पटरियों पर
बढऩा है महज और
थमने पर
इसी वेटिंग
रूम के
किसी दूसरे कोने में
थम जाना है,

जब मेरी पहिली यात्रा
प्रारम्भ हुई थी- तब
थक जाने के बाद
मैंने सिर्फ बसेरा समझा था जिसे
वह वेटिंगरूम अब मेरी
समग्रता बन गया है
एक बहाव के बाद
दूसरा बहाव होने के बीच
मुझे न इतनी आज़ादी है
न इतना समय कि
किसी पेड़ पर जाकर
दो-चार तिनके बुन आऊँ
यह भी नहीं कि किसी
कौये का घौंसला चुरा लूँ
और अपने भावों को
उसमें पक जाने के लिए रख दूं
दोस्तों से उधार मांगे
फुलपैंट और बुश्शर्टों की जेब में ही
इन कच्चे अंडों को लिये
मैं अभी तक घूमता रहा हूं
लेकिन इस फुलपैंट की
एक जेब में अब छेद हो गया है
एक पैसे का सिक्का भी
मुझे मुट्ठी में दबाकर रखना होता है
मैं कभी कोयल नहीं हो सका-

मेरे सारे बसन्त
कुर्सियों की नायलोन केनिंग से
रिस चुके हैं और
कुर्सियों को थामने वाला ढाँचा
एक कटा हुआ बसन्त होता है
या पिघला हुआ लोहा
कोयल के बच्चे
अपनी माँ को नहीं पहिचानते
फिर भी वे कोयल ही होते हैं
लेकिन मेरे पास यह जो कुछ है
जिसे मैंने जेब से निकालकर
हथेलियों में सम्हाल लिया है-
यह क्या हो पायेगा ।
इसे दुश्मनों पर फतह की किसी पार्टी में
आमलेट बना बाँट दिया जायेगा
या वेटिंग रूम की ऐशट्रे में पड़ा
अपने धुआँ हो जाने की गवाही देगा

यों धुएं के छल्ले भी
बहुत दिलकश होते हैं
सगाई की अँगूठी की तरह,
लेकिन नाजुक लकीरों के झूलों पर
आसमान तक पेंगें नहीं भरी जा सकती
और न सगाई की अँगूठी को
राज दरबारों में घुसने की
मुद्रिका बनाया जा सकता है
एक बार ये छल्ले
हवा में उछाल देने के बाद
दुबारा अँगुलियों में लपेटना
सम्भव नहीं रहा है मेरे लिए

अब एक बेतरतीबी
वेटिंग रूम के अकेले वेंटिलेटर पर
गहरा गयी है
पटरियों पर बहते हुए
ऐसे ही बेतरतीब हो जाने का
ख्याल मुझे भी झेलने लगा है

काश ! पटरियाँ
नींद की गोली खा लें
या किसी रेगिस्तान की बालू में दब जायें
चाहे यह बहाव ही
मुझे पटरियों के बीच छोड़ दें
या डगमगा कर किनारे गिरा दें
जहाँ नीचाइयों पर
गाँव की सीमा पर पोखरे हों
जिनके कमल खिलने 
की प्रतीक्षा में
खुद प्रतीक्षा बन गये हों
और कीचड़ एक दुर्विनीत अट्टहास हो
या पटरियों के समानान्तर
टेलीग्राफ केबिल हों
जिन पर अपने समूचे शरीर
और आशंकित अस्तित्व के साथ में
कोई तन्द्रिल राग छेड़ दूं
ये रेल लाइनें, वेटिंग रूम सब कुछ
एक पिटारी में बन्द कर दूं

उफ !  मेरे समूचेपन में
कभी कोई संगीत नहीं रहा
तार पर दबाई हुई एक अँगुली
खुरदुरे अस्तित्व के प्रति
सारे खुफिया पहरेदारों को
सतर्क कर देगी ।

1967


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