Monday, 13 July 2020

कविता: दिन गुजर गए



चितकबरे दिनों की लम्बी कतार
ही रह गई है गुजर जाने के लिए
इसके गुजर जाने पर क्या रहेगा शेष?

वे दिग-दिगन्त की यात्रा पर
निकले सार्थवाह थे
उत्सव और आमोद से भरपूर
नदी-नद की छाती को चीरते पोत
क्षितिज को चूमती उनकी पताकाएँ
वन-नगर-प्रान्तरों से गुजरते
गजारोही-अश्वारूढ़-रथासीन
दर्प से बैठे तने
वे अजित यौवन के प्रतीक
चपल वेग से धरा को रौंदते
धूल को विक्षुब्ध करते चले गए

वे श्रेष्ठ थे, नायक थे
सूर्य उनके मुकुट पर जड़ा
वे वैशाख की धूप से प्रचंड थे
उन्होंने हर उस रात की प्राचीर तोड़ी
जिसके आँगन में दु:स्वप्न खेलते थे
साँसों पर छाये कोहरे को
अपनी एक दृष्टि से उन्होंने छितराया
हिमखण्डों को पिघलाया
वे मुदित उत्सवरत यौवन से दिन
लेकिन.................लेकिन
किसने यात्रा के एक अभागे पल में
उनको रोका और कहा
सिकन्दर  ! तुम लौट जाओ
कौन था वह : साधु या
या छद्मवेशधारी
स्वयं था काल ही
श्राप देकर चला गया वह
चक्रवर्ती, तुम शेष हो जाओ...... 
और
भूकम्प नहीं आया : जलप्लावन भी नहीं
कोई अनहोनी नहीं : कोई अचम्भा नहीं
बस जैसे मंच पर अंक बदल गया
दर्शकों के लिए था सामने नया दृश्य
पात्र नये आ गए और उनकी भाषा भी

हो जाने दो सर्वत्र अन्धकार
किसने निर्देश दिया.......
यह नाटक नहीं, तुम्हारी यात्रा...नाटक नहीं....
किसने सहसा याद दिलाया

हाँ  यात्रा जारी रही : वे रुके नहीं
लेकिन ध्रुवों पर मौसम बदल गए और
उनके सारे संकल्प जल गए
अपने ही अहम् की उष्मा में
सार्थ तो उनका चलता ही रहा पर
छूट गए कौमुदी महोत्सव सब
छूट गया राजधानी का विश्राम
डूब गए महानद पर खेलते चपल
लहरों पर बजरों के  पल
और चूके वनानियों में मदमन्त
घूमते अहेरी के शर ।

कहाँ खो गए वे महाकाव्यों के नायक
कहाँ खोयीं उनकी  प्राण वल्लभाएँ
जिनके पाद प्रहार से अशोक पुष्पित हुआ:धन्य हुआ
क्या सच ही सब कुछ शेष हुआ
क्या सच ही सब कुछ शेष हुआ ।
1972


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