(1)
यह सन्नाटा तो
छाया रहा हमेशा ही
गर्मी की दोपहर
वर्षा की रात और
शीत की सुबह में
कभी भी तो
एक दिन को भी
छोड़कर गया नहीं
लेकिन आज ही इतना क्यों बेचैन !
दूरों तक फैले
बीहड़ से चीखें उठ-उठ कर आती हैं
अघोर प्यासे-सा सोख रहा है उनको
अन्तर में ऐसी जलन कितनी;
मौसम का ज़र्रा-ज़र्रा
थरथरा कर थिर होने की कोशिश में
सिर धुनता है
हवा चल रही है तेज लेकिन
सूखे पत्ते भी
झरने में डरते हैं,
कोन-सा भय उनको
क्या सन्नाटा लीलेगा सब कुछ
अपनी फुफकारों से खींच खींच
कितना कुछ ग्रास बनाएगा!
(2)
आवाज़़ें सोखी गई हैं पहिले भी
सूखे पत्ते भी निचोड़े हैं उन्होंने
और मौसम की मासूमियत को
थरथराते हुए वे गुजरे हैं पहिले भी
लेकिन माहौल अब की
क्या अजब नहीं है पहले से,
धूल तक जहाँ दुबकी है
वहाँ से हटना नहीं चाहती
ढलानों पर बहता पानी
आजू बाजू सरक गया है एकाएक
और पत्ते तो
पहिले ही ठिठक गए हैं
ये कैसा संगीत है जिसके स्वर
तमसा की सोयी लहरों को
विवश करते हैं
आपाधापी में खोने को
क्या यह काले जादू वाले देश
से आए लोगों का करिश्मा है
या सन्नाटे ने छल किया है
स्वरकार का बाना पहिनकर
हवा कि गोया
उस जादूगर या स्वरकार के
हाथों पर नाचता बैटन हो
शून्य को काटता हुआ कि
सटकारे की आवाज़ों में
दर्शक और स्तब्ध हो जाता है।
(3)
हाँ, उस जादूगर को कहाँ खो दिया हमने
जिसके कौतुक रोमांच-पुलकित कर देते थे,
और क्या मूर्ति बन गए वे स्वरविद्
जिनकी झंकृत तारावलियों से
मन्त्रमुग्ध होने की बातें अब दंतकथाएँ हैं।
हर मकान में ज्यों
सिनेमाघर खुल गए हैं जिनके
प्रोजेक्टरों पर सिर्फ
आतंक की रीलें फिसलती हैं
और हर मैदान : हर खुली जगह
बना दिया गया है नीरोकालीन एरिना
जहाँ से कोई भी एंड्राक्लीज
जिन्दा वापिस नहीं लौट पाता
या
चारों तरफ से उठते भभके
साँसों के साथ-साथ पी
इतना भी भूल गए हैं लोग
कि रहते हैं व्हेल के उदर में
या उस परकोटे में जिसे
कभी दुनिया कहा जाता था।
(4)
या
यह सब कुछ भी सच नहीं है
जिन्हें दीख पड़ता है विपरीत
उनकी भी संज्ञाएँ
राक्षसी सम्मोहन में बँधी हैं
वे जो भी हों- उनका सम्मोहन
किसी को यूँ पालतू बनाता है
तो किसी को स्तब्ध करता है : डराता है
और लोग-
जिनमें शामिल हैं कवि और पाठक भी
उस एक मोह के लिए-
इस राक्षसी
सम्मोहन के आगे आँखें झुका लेते हैं।
(बहुतों को वह अच्छा भी लगता है)
(5)
लेकिन कब तक चलेगा
हाँ, कब तक होता रहेगा यह सब
कितनी अजीब बात है-
कवि सवाल पूछता है और
उत्तर नहीं देता कोई भी तत्ववेत्ता
कहानियों में शब्द चीखते हैं
लेकिन कथाकार स्वयं नहीं जानता उत्तर
आखिर यह सब क्यों
एक जीने के मोह के लिए
कब तक उनके सिहासन पर
हम धोक देते रहेंगे!
(6)
क्या हम वे ही हैं
जिन्हें समरसता नहीं भायी थी और
आडम्बर : पाखण्ड कहते हुए
उठ आये थे उस सभा से
जहाँ कुछ लोग
जो पहिले थे हमसे
शांति और संतोष खोजने की
विस्तृत चर्चाएँ करते थे
जिन्हें पसन्द आता था काव्य और संगीत
अस्वीकृतियां थीं सब हमारी ही
तब आज सहन नहीं होता क्यों
हमने हमारा ही विरस दर्शन?
(7)
उन्होंने तो भुलाया था
आतंक की सत्ता को अपनी
चर्चाओं के कोलाहल को
आतंक के शिकार के लिए
हाँका था : समस्याओं के वन में
लेकिन चूक कहाँ हुई?
वह तो दुबका भी नहीं अपनी माँद में
शायद उलझ गए हैं हम ही बीहड़ में
और अब इन कान्तारों से
नहीं उभरेगी एक भी पगडंडी
घने वृक्षों को चीरकर अब
कौन देखेगा ध्रुव और सप्तर्षि
(8)
रहेंगी सिर्फ आवाज़ें और आवाज़ें
नहीं, वे हमारी आवाज़़ें नहीं होंगी
मर जाता है जिनका अन्तर
उनकी आवाज़ कहीं नहीं होती
वे आवाज़ें नहीं होंगी
उन व्याकुल टेरों की जो
सीमांत पर ठिठक कर
वापिस बुलाती रहीं हमको
म-त-जा-ओ,
फिर भी तो आवाज़ेें होंगी।
(9)
वे होंगी उस सन्नाटे की
वे होंगी उस सम्मोहन की
जीना चुक जाने के बाद भी
जीने का मोह नहीं चुका जिनका
होंगी उनके लिए
उनके लिए : हाँ हमारे लिए
होंगी वे आवाज़ेें:
वे जादुई आवाज़ेें : वे आकर्षक आवाज़ें
जिनकी निर्ममता राह बताएगी
उस अन्धगुफा की
जिसमें वह सम्मोहक
काला जादूगर रहता है
वह सन्नाटे का स्वामी
जिसकी भौंहों के इंगित के बाद
शेष नहीं रहता कुछ भी
आतंक का देवता वह
हमारे जीवन मोहों को पीकर
अपनी उम्र बढ़ाता है।
1971
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