Wednesday, 22 July 2020

कविता: आतिथ्य का दु:ख



कल तक लगा कि
माला में एक फूल और जुड़ा,
आज लग रहा है
डाली से एक फूल और झरा।

कुछ होते हैैं ऐसे महानुभाव
जिनकी बातों में होती है
सुगंध फूलों की, और
जब फूटते हैं बोल तो
महमहाकर झरते हैं फूल ही,

हम अभागों की बात क्या
बातों में न चुभन होती, न तुर्शी,
हम न काँटों के हुए, न फूलों के
झर जाते हैं शब्द भी
हम बटोर पाते नहीं।

उनके लिए शब्द होते हैं श्रृंगार,
हमारे लिए शब्द नमक हैं,
शब्दों का टूटना और
क्षणों का रीतना हमें
एक से दर्द में भिगो देता है
क्षण उनके कर्जदार हैं
वाजिब है कि वे क्षणों को
रौंदें, कुचलें या अपमानित करें ।

लेकिन हम अतिथि हैं
समय की कुटी में,
विश्राम की कीमत हम
महज शब्दों से अदा करते हैं,
हर नया दिन होता है
रुकने की इजाजत का नवीनीकरण,
इसलिए फूलों सा मोहक होता है।

बीतने पर अफसोस करते हैं-
आज फिर समय के ऋणी हो जायेंगे
ब्याज में जाने  कितने शब्द चुकाने होंगे ।
1975

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