Friday, 17 July 2020

कविता: अंधी मछलियाँ




मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिए
और ईश्वर के अवतारों को
कि रोज सुबह होती है और
धरती पर उजाला फैलता है,
स्वर्ग के आँगन से उतरी
किरणों से मैंने कहा-स्वागत!
फिर मैं उनके साथ
दुनिया की सैर पर निकल पड़ा,
हमने तय किया-
वहाँ चलें जहाँ
पहिले कभी जाना नहीं हुआ था

कुटुमसर की गुफा तक
हम साथ-साथ गए
गुफा बहुत नीचे थी, बहुत गहरी
किरणें सीढियां उतर नहीं पाई,
और जब मैं अकेला
पेट्रोमेक्स लेकर नीचे उतरा तो
तिमिर के झरने में तैरती
अंधी मछलियों ने कहा
उन्हें रौशनी से तकलीफ होती है

हम फिलिपींस के जंगलों तक गए
भीतर धँस पाना असंभव था
लेकिन मैं सुन सकता था
किसी एक मनुष्य के
दबे पाँव चलने की आहट,
और सूखी पत्तियों ने
फुसफुसा कर मुझसे कहा
वह तुम्हारे समय में नहीं जीता
और उसे अभी अकेले ही रहना है
अपने मुक्तिदाता की प्रतीक्षा में

हम प्राचीन ग्रंथों तक गए
कॉमिक्स की किताबों तक
और उत्तर धुव के सीमांत तक,
सब तरफ थी गुफाएँ
घने जंगलों के बीच जहाँ
किरणों का प्रवेश था वर्जित
सोते हुओं को जगाने की मनाही थी
और जगते हुओं से बात करने पर पाबंदी

हम दिल्ली के सिनेमाघर गए
और मैंने किरणों से कहा
तुम लौट जाओ ईश्वर के घर
मैं अभी फ़िल्म देखना चाहता हूं
वह नई तकनीक से बना थियेटर था
बहुत से परदों पर चल रही थीं
बहुत सी फ़िल्में एक साथ
और बहुत से दर्शक
इत्मीनान से देख रहे थे
अपनी-अपनी पसंद की फ़िल्म

मैं दर्शकों के बीच चला गया
नए सिनेमाघर की नई इमारत में
नई आरामदेह कुर्सी पर
आराम से बैठते हुए मैंने सोचा
मुझे भी चुन लेना चाहिए
अपने लिए एक रजतपट और
अनेक या एक मनपसंद फ़िल्म

मेरे आसपास, आगे-पीछे, चारों तरफ़
दर्शक थे मंत्रमुग्ध, मगनमन, खामोश
और परदों पर थी हलचल
तेज़ी से  दृश्य बदल रहे थे
बदल रहे थे पात्र और घटनाएँ
सिर्फ परदे पर प्रकाश था
और दर्शक अंधेरे में डूबे थे
सबके साथ-साथ मैं भी

परदे पर दूसरे महायुद्ध की फ़िल्म थी
और जनरल तोजो की हार से डर
उसका सिपाही परदे से कूद
आकर कहीं छिप गया
मेरे और दर्शकों के अंधेरे के बीच

रामायण के पन्ने बंद किए रावण ने
और कुंभकर्ण उतर आया नीचे
थियेटर में गूूंज रही थी
उसके खर्राटों की आवाज़

परदे पर अपने कबीले के साथ
रूका रहा गुर्रन- वानर बौना
और मृत्युंजय महाबली
अपने भेड़िए के साथ 
थियेटर से बाहर निकल गया
दुनिया की गश्त पर

अतल की भट्टी में कैद
सुलगता रहा कसमसाता सूरज
किरणें बेख़बर सोयी रहीं
और आकाश की कड़ाही में उफनता
अंधकार बहने लगा चारों ओर
थियेटर के बाहर, धीरे-धीरे
सृष्टि की सड़कों पर

मैं सिनेमाघर में अकेला था
और मुझे डर लग रहा था
यह रात का वक़्त था
और मैं ईश्वर के अवतारों को
याद कर रहा था

महाबली वेताल की सुरक्षा में
अपने-अपने घर की गुफा तक
पहुँच चुके थे सिनेमाघर के दर्शक
और कुटुमसर के झरने में
मज़़े में सो रही थीं अंधी मछलियाँ

लैपलैंड और लंका में सबके लिए
यह एक लंबी नींद लेने का
समय आ गया था
जो पहिले से सोये थे
उन्हें भी उठने की ज़रूरत नहीं थी
और जागा हुआ मैं
अकेला मैं पछता रहा था
मैं न सिनेमा में रुक सकता था
और न बाहर की सड़क पर
कदम रख सकता था
मुझे अभिमन्यु बन जाने का डर था

शायद मुझे इस समय
हनुमान चालीसा का पाठ करना
चाहिए था या मृत्युंजय का जाप
लेकिन पत्थरों को जगाने की कला
मैं सीख नहीं पाया था
मुझे न भेड़ियों से
लड़ना आता था और
न महारथियों से

मैं नहीं जानता था कि
बॉस की मर्जी से बार-बार
ज़िंदा होता है
हिन्दी फ़िल्मों में शेट्टी
और लोथार को ज़रूरत है
जिंदा रहने के लिए
मेनड्रेक के जादू की

मैं घुंघराले बालों वाले बाबा की
शरण में कभी नहीं गया था
और न मैने सीखी थी
ज़मीन से ऊपर
अधर में सोने की क्रिया
मैं सिर्फ जादूगर आनंद को जानता था
और उसकी हाथ की सफाई को

मैं सिनेमाघर और सड़क के बीच
दहलीज पर खड़ा था अकेला
मेरे पास सोने की लंका नहीं थी
और मेरी नसों में दौड़ रहा
रक्त विशुद्ध नहीं था

सृष्टि की लंबी अंधेरी रात में
मुझे अपने को बचा पाने की फ़़िक्र थी
और पूरा जीवन ज़िंदा रहने की
इस कृष्णपक्ष में जब
चाँद और सितारे भी
नज़र नहीं आ रहे थे
मुझे तलाश थी सूरज की
किसी कोने से फिर निकल आने की

मैं किरणों के साथ-साथ
कभी दुनिया घूम आया था
अब  मुझे अंधकार का जाल
कट जाने का इंतज़ार था
लेकिन जब मैं ईश्वर को
धन्यवाद दे रहा था
मुझे पता नहीं था कि
यह जयद्रथ के हँसने का समय है

ललित सुरजन
  (1998)








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