Thursday 30 July 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 8



नैनीताल में शहर से लगभग बाहर हनुमानगढ़ी के पास दो कमरों का एक साधारण सा मकान था, जो हमने गर्मी की छुट्टियां बिताने किराए पर ले रखा था। किराया मात्र 5 रुपए प्रतिदिन। यह 1962 की बात है। एक दिन बाबूजी ने एक संदेश लिखा, मुझे आदेश हुआ तारघर जाकर इसे भेज दूं। यह तार प्रकाशचंद सेठी को बधाई देने के लिए था, जिन्हें उस दिन पं. नेहरू ने उपमंत्री के रूप में अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था। बाबूजी का सेठीजी के साथ काफी पुराना परिचय था, शायद तब से जब वे कांग्रेस की ओर से संगठन चुनाव में पर्यवेक्षक बनकर जबलपुर आए थे। खैर बात आई-गई हो गई। 

इंदिरा गांधी के कार्यकाल में उनके राजनैतिक महत्व का पता तब चला, जब 1972 में सेठी जी को अचानक ही मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर भोपाल भेज दिया गया। उनके आने के कुछ दिन बाद ही एक दिलचस्प वाकया हुआ। मध्यप्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी बदस्तूर पचमढ़ी में लगा करती थी। संयोग से कई साल बाद बाबूजी भी पूरे कुनबे सहित पचमढ़ी में छुट्टी बिता रहे थे। मैं रायपुर में था। स्वाभाविक था कि बाबूजी नए मुख्यमंत्री एवं अपने पूर्व परिचित से मुलाकात करते। मुलाकात का समय निर्धारित हो गया। लेकिन दिल्ली से आया स्टाफ शायद बाबूजी को नहीं जानता था। यह पचमढ़ी में बाबूजी का आखिरी दिन था। कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद वे लौट आए और पिपरिया के लिए रवाना हो गए। आधी रात को पिपरिया में घर के बाहर पुलिस की गाड़ी रुकी, सेठीजी के निजी सचिव पिपरिया के थानेदार के साथ ढूंढते-ढांढते हमारे घर आ गए। आप अभी पचमढ़ी वापस चलिए, सुबह सीएम से मिल लीजिए, वर्ना मेरी नौकरी चली जाएगी। उन्हें बाबूजी ने आश्वस्त कर वापस भेजा। सुबह वापस पचमढ़ी गए और सेठीजी से मिलकर वापस लौटे। अगले चार सालों के दौरान उन लोगों के बीच न जाने कितनी मुलाकातें हुईं होंगी।

प्रकाशचंद सेठी की कार्यप्रणाली और व्यक्तित्व अन्य राजनेताओं से अलग ही था। वे विगत 15 वर्षों से केंद्र की राजनीति में थे, जिसमें से 10 वर्ष मंत्री के रूप में काम करते बीत चुके थे। मध्यप्रदेश कांग्रेस में ऐसे कम ही  लोग थे, जो उनसे निकटता का दावा कर सकते थे। नतीजतन उनके इर्द-गिर्द भीड़ इकटठा नहीं होती थी। वे कोई भी विषय हो, निर्णय लेने में विलंब नहीं करते थे। यह तो मैंने देखा है कि सुबह जो फाइलें उनके पास आती थीं, शाम तक उनका निपटारा हो जाता था। वे भोपाल से बाहर जब ट्रेन से जाते थे, तब भी फाइलों का निपटारा करते जाते थे। सेठीजी अपने अफसरों को खुलकर अपनी राय देने के लिए प्रोत्साहित करते थे। जबकि अंतिम निर्णय उनका अपना होता था। उनके भोपाल आने के बाद प्रदेश कांग्रेस में नए सिरे से दो गुट बन गए। एक शुक्ल बंधुओं का, दूसरा सेठी समर्थकों का। छत्तीसगढ़ से एआईसीसी के सदस्य इंदरचंद जैन उनके विश्वस्त लोगों में से थे जिनके साथ उनका पुराना परिचय था। मेरा अनुमान है कि प्रदेश में पार्टी फंड या चुनाव फंड इकटठा करने में इंदरचंद जी की प्रमुख भूमिका होती थी। दूसरी तरफ मैंने यह भी सुना था कि मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने इंदौर में अपने दामाद (शायद अशोक पाटनी उनका नाम था!) को प्रदेश छोड़ बंबई या कहीं और जाकर व्यापार करने की सलाह दी थी, जिससे रिश्तेदारी के चलते उन पर कोई लांछन लगने की नौबत न आए। 

छत्तीसगढ़ में शुक्ल बंधुओं के वर्चस्व के कारण अनेक कांग्रेसजन घुटन महसूस करते थे, उन्हें पार्टी में अपने लिए संभावनाएं नजर नहीं आती थी। ऐसे अनेक लोग स्वाभाविक तौर पर सेठीजी के साथ जुड़ गए थे। मैं इनमें से प्रमुख रूप से रायपुर के अमरचंद बैद का नाम लेना चाहूंगा। वे प्रगतिशील विचारों वाले प्रबुद्ध व्यापारी थे और हमेशा लोगों की मदद के लिए तैयार रहते थे। अमरचंद जी अच्छी किताबें खरीदते व पढ़ते थे। उन्होंने निजी लाइब्रेरी बना रखी थी। सेठीजी के कार्यकाल में उनका काफी दबदबा हो गया था। लेकिन अपनी हैसियत का उन्होंने दुरुपयोग किया हो, ऐसा कोई प्रकरण प्रकाश में नहीं आया। सेठीजी को गुस्सा बहुत जल्दी आता था। ऐसा कहा जाता है कि वे नर्वस ब्रेकडाउन के मरीज थे और बीच-बीच में अपना मानसिक संतुलन खो बैठते थे। इसे लेकर कई किस्से प्रचलित हुए। जितना सच था, उससे ज्यादा उनके विरोधियों द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने जो भी निर्णय लिए, उनमें ऐसी कोई बात नहीं दिखी। मुख्यमंत्री पद संभालने के कुछ दिन बाद रायपुर प्रवास के दौरान उन्होंने वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक केसी बाजपेयी को खड़े-खड़े सस्पेंड कर दिया था, जिसे लेकर उनकी आलोचना हुई थी। इस तरह के कुछ और अन्य प्रसंग भी रहे होंगे। इन प्रसंगों को एक लंबी पारी में अपवाद ही मानना चाहिए। मुझे उनका एक अलग तरह का प्रसंग याद आता है। शायद खंडवा में लोकसभा उपचुनाव होना था। इसके लिए उन्होंने छत्तीसगढ़ के राइस किंग कहे जाने वाले नेमीचंद श्रीश्रीमाल से आर्थिक सहयोग की अपेक्षा की थी। नेमीचंद जी शुक्ल गुट के थे, सो उन्होंने सेठीजी के संदेश की उपेक्षा कर दी। इसके कुछ समय बाद सेठीजी का महासमुंद दौरा हुआ। नेमीचंद जी ने उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया जिसे सेठीजी ने ठुकरा दिया। कुछ देर बाद वे वापसी के लिए हेलीकाप्टर में बैठे और उड़ने के पहले ही अपना टिफिन खोला और भोजन आरंभ कर दिया। हैलीपेड पर उपस्थित लोगों को जो संदेश जाना था, वो चला गया। 

सेठीजी के मुख्यमंत्री काल में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कम से कम दो बार छत्तीसगढ़ आईं। 1972 में अबूझमाड़ और 1973 में कोरबा। इन दोनों अवसरों पर मुझे रिपोर्टिंग का मौका मिला। जबलपुर के लोकसभा सदस्य सेठ गोविंददास का निधन सन् 1974 में हो गया, उसी समय भोपाल के विधानसभा सदस्य शाकिर अली खान भी नहीं रहे। इन दोनों स्थानों पर उपचुनाव होने थे, ये समय था, जब जेपी आंदोलन अपने प्रखर रूप में था। जबलपुर में संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार शरद यादव ने सेठ गोविंददास के पौत्र रविमोहन को पराजित किया। भोपाल में बाबूलाल गौर के हाथों स्वाधीनता सेनानी भाई रतनकुमार जी को हार का सामना करना पड़ा। रतन कुमार जी उस समय देशबन्धु भोपाल के संपादक थे। उन्हें टिकट मिलने का यह भी एक कारण था। 

देशबन्धु का तीसरा संस्करण जुलाई 1974 में भोपाल से प्रारंभ हुआ था, जिसके चलते बाबूजी का समय मुख्यत: भोपाल में ही बीतता था। यह एक वजह थी, जिसके कारण मेरा सेठीजी के साथ प्रत्यक्ष संवाद लगभग नहीं के बराबर था। वे जब भी कभी छत्तीसगढ़ दौरे पर आते थे, तब उन्हें नमस्कार करने की औपचारिकता निभा लेता था। इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल की घोषणा की थी, तब सेठीजी ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उनके निर्देश पर ही संघ का अखबार युगधर्म बंद कर दिया गया था। लेकिन जब बाबूजी ने उनसे मिलकर एक अखबार के बंद होने का विरोध किया तो सेठीजी बाबूजी के तर्कों से सहमत हुए और ठीक 90 दिन बाद प्रतिबंध उठा लिया गया।

किसी अन्य राज्य में आपातकाल के दौरान किसी विपक्षी और खासकर संघी अखबार पर हुई कार्रवाई को पलट देने का शायद एकमात्र प्रशासनिक निर्णय था। इससे यह संकेत भी मिलता है कि इंदिरा गांधी और प्रकाशचंद सेठी के बीच विश्वास कितना गहरा था। 1980 के लोकसभा चुनाव के पहले सेठीजी मध्यप्रदेश के उम्मीदवारों के नाम तय कर रहे थे। उन्होंने बाबूजी को होशंगाबाद लोकसभा सीट से लड़ने का आग्रह किया। बाबूजी ने यह कहकर टाल दिया कि रायपुर में अभी प्रेस का नया भवन बना है। मशीनें आई हैं, काम का बहुत बोझ है, और ललित मुझे मना कर रहे हैं। इसके बाद हुआ यह कि सेठीजी रायपुर आए और विमानतल से सीधे प्रेस। उनके साथ स्वरूपचंद जैन थे। आदेश हुआ मुझे प्रेस दिखाओ। प्रेस का निरीक्षण किया। सब ठीक तो चल रहा है। तुम मायाराम जी को चुनाव क्यों नहीं लड़ने देते। मैंने हाथ जोड़े। आप दो बड़ों के बीच में बोलने वाला मैं कौन होता हूं! सेठीजी समझ गए कि मायारामजी चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं और बात यहीं समाप्त हो गई। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 30 जुलाई 2020 को प्रकाशित

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