- लैंगस्टन ह्यूज़
(1902-1967)
विख्यात अफ्रीकी-अमेरिकी कवि
अमेरिका को फिर अमेरिका बनने दो,
बनने दो उसे स्वप्न जो वह कभी था,
कहो कि वह पहल करे, आगे बढ़े और
तलाश करे वह घर जहां वह खुद आज़ाद हो।
(मेरे लिए अमेरिका कभी अमेरिका नहीं था)
ओह! मेरी धरती को बनने दो वह धरती,
जहाँ स्वतंत्रता की देवी पर न चढ़ाए जाते हों
झूठी राष्ट्रभक्ति के पुष्पहार
लेकिन जहाँ अवसर हों सचमुच में,
और जीवन हो मुक्त,
समता हो उस हवा में
जिसे हम पीते हैं।
(यहाँ मेरे लिए समता कभी नहीं थी,
और न स्वतंत्रता, स्वाधीनता के इस अपने घर में)
कहो तो, कौन हो,
तुम जो अंधेरे में बुदबुदा रहे हो?
कौन हो, तुम जो सितारों को ढांप रहे हो?
मैं गरीब श्वेत हूँ, छला गया और ढकेला गया,
मैं नीग्रो हूँ, गुलामगिरी के निशान ढोता हुआ,
मैं आदिवासी हूँ, अपनी धरती से बेदखल,
मैं अप्रवासी हूँ, मुठ्ठी में आशा का बीज दबाए,
लेकिन घटित होते देखता हूँ
वही पुराना किस्सा हर रोज़,
एक दूसरे को नोंच खाने और
कमज़ोर पर सितम ढहाने का,
मैं नौजवान हूँ, उम्मीद और शक्ति से लबरेज़
लेकिन जकड़ा हुआ हूँ
उन्हीं पुरानी अंतहीन जंज़ीरों से
मुनाफा, ताकत, संचय और ज़मीन हड़पने की!
या सोना हड़पने की!
या अपने आराम के लिए अवसर हड़पने की!
दफ़्तर में गुलामी की!
वेतन का हिसाब लगाने की!
अपने लालच में सब कुछ हड़प लेने की!
मैं किसान हूँ, अपने गिरवी खेतों का मालिक,
मैं मज़दूर हूँ, मशीन के हाथों बिका,
मैं नीग्रो हूँ, तुम सबका क्रीतदास,
मैं व्यक्ति हूँ, लाचार, भूखा, क्षुब्ध,
भूखा हूँ आज भी, स्वप्न के बावजूद
पिटा हूँ मैं आज भी, हे अग्रगामी!
मैं वह हूँ जो कभी आगे नहीं बढ़ पाया-
बोलियाँ लगती रहीं जिस पर साल-दर-साल
मैं वह कमज़ोर कमिया हूँ ।
फिर भी मैं वही हूँ
जिसने देखा था पहला स्वप्न
उस पुरानी दुनिया में
राजाओं की गुलामी करते हुए,
जिसने देखा था सपना
इतना दृढ़, इतना साहसमय, इतना सच्चा कि
उसका संगीत बहता है आज भी
हर ईंट और पत्थर में,
खेत की हर कतार में,
जिसने अमेरिका को बनाया वह जो आज है।
ओह! मैं वह हूँ जो
सबसे पहले समंदर पार कर
ढूंढने निकला था एक अदद
अपना कह सके ऐसा घर,
मैं वह हूँ जो
आयरलैंड के अंधेरे तटों को
पीछे छोड़ आया था और
पोलैंड के मैदानों को
और इंग्लैंड की रविशों को,
काले अफ्रीका को छोड़ कर आया था मैं
स्वाधीनजनों का अपना घर बसाने,
स्वाधीन?
किसने कहा स्वाधीन? मैंने, नहीं?
मैंने निश्चित ही नहीं?
खैरात पर पलते लाखों ने?
रोज़ी के नाम खाली जेबों वाले लाखों ने?
वे सारे स्वप्न जो हमने देखे
वे सारे गीत जो हमने गाए
वे सारी आशाएं जो हमने जगाईं
वे ध्वज जो हमने फहराए
हम रोज़ी के नाम खाली जेबों वाले लाखों ने
जेब में सिर्फ वह सपना
जो लगभग मर चुका है आज।
ओह! अमेरिका को फिर बनने दो अमेरिका
वह धरती जो अभी तक
बन नहीं पाई है,
लेकिन जिसे बनना ही चाहिए- वह धरती
जहाँ हर मनुष्य हो स्वाधीन
वह धरती जो मेरी हो
गरीब की, आदिवासी की, नीग्रो की
हाँ, वह धरती हो मेरी,
मैं, जिसने बनाया अमेरिका,
बनाया अमेरिका
जिसके स्वेद और लहू ने,
जिसके विश्वास और पीड़ा ने,
मशीन पर चले जिसके हाथ,
बरसात में चला जिसका हल,
वही लौटा कर लाएगा हमारा सुनहरा स्वप्न।
मुझे परवाह नहीं, तुम मुझे गालियाँ दो,
किसी भी भाषा में पुकारो,
स्वाधीनता की इस्पाती चादर पर
दाग नहीं पड़ेंगे,
हमारी ज़िंदगी को चूस लिया
जिन्होंने जोंक बन कर,
उनसे वापिस लेना ही है
हमें हमारी धरती
अमेरिका!
हाँ, सचमुच
मैं साफ-साफ कहता हूँ,
अमेरिका मेरे लिए कभी
अमेरिका नहीं था,
लेकिन मैं शपथ लेता हूँ
अमेरिका होगा।
खूनी गिरोहों के विध्वंस और
मौत के नाच के बावजूद,
बलात्कार, झूठ, कदाचार,
षड़यंत्र और रिश्वत की सड़न के बाद भी,
हम, जो जन हैं, लौटा कर लाएंगे
धरती, खदान, वृक्ष, नदियाँ,
पहाड़ और अंतहीन मैदान और
हरियाली के सारे दृश्य
हाँ, वे सारे दृश्य
और अमेरिका को फिर बनाएंगे ।
रूपांतर-
ललित सुरजन