Sunday, 29 November 2020

कविता: युद्ध करता है अनथक मेहनत

 


देखो, सचमुच कितना

भव्य है युद्ध!

कितना तत्पर और

कितना कुशल!

अलस्सुबह वह

साइरनों को जगाता है और

एंबुलेंस भेज देता है

दूर-दराज़ तक,

हवा में उछाल देता है

शवोंं को और

घायलों के लिए

बिछा देता है स्ट्रेचर.


वह माताओं की आँखों से

बुलाता है बरसात को,

और धरती में गहरे तक धँस जाता है

कितना कुछ तितर-बितर कर,


उधर खंडहरों में,

कुछ एकदम मुर्दा और चमकदार

कुछ मुरझाए हुए लेकिन

अब भी धड़कते हुए

वह बच्चों के मष्तिष्क में

उपजाता है हज़ारों सवाल,

और आकाश में

राकेट व मिसाइलों की आतिशबाजी कर

देवताओं का दिल बहलाता है,


खेतों में वह बोता है

लैंडमाइन और फिर उनसे

लेता है जख़्मों व नासूरों की फसल,

बह परिवारों को बेघर-विस्थापित

हो जाने के लिए करता है तैयार,

पंडों-पुरोहितों के साथ होता है खड़ा

जब वे  शैतान पर लानत

फेंक रहे होते हों

(बेचारा शैतान,उसे हर घड़ी देनी होती है

अग्नि परीक्षा)


युद्ध काम करता है निरन्तर

क्या दिन और क्या रात,

वह तानाशाहों को

लंबे भाषण देने के लिए

प्रेरित करता है,

सेनापतियों को देता है मैडल

और कवियों को विषय,

वह कृत्रिम अंग बनाने के कारखानों को

करता है कितनी मदद,

मक्खियों तथा कीड़ों के लिए

जुटाता है भोजन,

इतिहास की पुस्तकों में

जोड़ता है पन्ने व अध्याय,

मरने और मारने वालों के बीच

दिखाता है बराबरी,


प्रेमियों को सिखाता है पत्र लिखना

व जवाँ औरतों को इंतज़ार,

अखबारों को भर देता है

लेखों व फोटो से,

अनाथों के लिए बनाता है नए घर,


कफन बनाने वालों की कर देता है चाँदी

कब्र खोदने वालों को देता है शाबासी,

और नेता के चेहरे पर

चिपकाता है मुस्कान,


युद्ध अनथक मेहनत करता है बेजोड़,

फिर भी क्या बात है कि

कोई उसकी तारीफ में

एक शब्द भी नहीं कहता।


ईराकी कविता- दुन्या मिखाइल


(Dunya Mikhail)

 

अंग्रेज़ी से रूपांतर-ललित 

जुलाई 2009

Wednesday, 25 November 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 25

 धर्मवीर भारती का लोकप्रिय उपन्यास 'गुनाहों का देवता' निम्नलिखित वाक्य के साथ प्रारंभ होता है- 'अगर पुराने जमाने की नगरदेवता की और ग्रामदेवता की कल्पनाएं  आज भी मान्य होतीं तो मैं कहता कि इलाहाबाद का नगरदेवता जरूर कोई रोमेंटिक कलाकार है।' मैं उनकी ही तर्ज पर सोचता हूं  कि अगर भूतबंगले की मान्यता आज भी कायम है तो कहना होगा कि रायपुर कलेक्टर बंगले में अवश्य कोई भविष्य देवता निवास करता है। इसका पहला प्रमाण कम से कम सौ साल पुराना है। सी डी देशमुख नए-नए आईसीएस की प्रथम पदस्थापना 1910-20 के बीच कभी रायपुर में हुई थी। वे कलेक्टर नहीं, लेकिन ईएसी यानी डिप्टी कलेक्टर थे। जिलाधीश बंगले पर वे जाते ही होंगे। भविष्य देवता ने उनके बिना जाने उन पर कृपा की। वे आगे चलकर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पहले भारतीय गवर्नर बने। फिर राजनीति में आकर नेहरू सरकार में वित्तमंत्री रहे। प्रसंगवश, उन्होंने रायपुर में रहते हुए यूनियन क्लब की स्थापना की थी, क्योंकि छत्तीसगढ़ क्लब में सिर्फ गोरे साहब जा सकते थे। दिल्ली में उन्होंने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की स्थापना कर एक विश्वस्तरीय बौद्धिक केंद्र बनाया।

उनके बाद किसी समय आर के पाटिल रायपुर के जिलाधीश बनकर आए। महात्मा गांधी से प्रभावित होकर उन्होंने आईसीएस के रुतबेदार ओहदे से इस्तीफा दे दिया व स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। सी पी एंड बरार के मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल ने स्वतंत्र देश में अपने मंत्रिमंडल में खादीधारी पाटिलजी को शामिल किया। रायपुर के स्वाधीनता सेनानी कन्हैयालाल बाजारी 'नेताजी' के प्रयत्नों से स्टेशन चौक पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मूर्ति स्थापित हुई तो पाटिलजी के करकमलों से उसका लोकार्पण हुआ। उनके पश्चात 1959-60 में सुशील चंद्र वर्मा जिलाधीश बनकर उसी बंगले में रहने आए। उन्होंने अनेक कल्याणकारी कामों के साथ गुढ़ियारी मोहल्ले में एक कुआं खुदवाया, जिसकी चर्चा कुछ साल पहले तक होती थी। आगे चलकर वे प्रदेश के मुख्य सचिव बने और अवकाशप्राप्ति के उपरांत राजनीति में आ गए। अत्यंत साफ सुथरी छवि के धनी वर्माजी ने लोकसभा में  तीन या चार बार भाजपा की ओर से भोपाल का प्रतिनिधित्व किया। भविष्य देवता के अदृश्य वास वाले इसी बंगले में पहले अजीत जोगी और उनके तुरंत बाद नजीब जंग का आशियाना बना। जोगी को छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य मिला तथा जंग दिल्ली के उपराज्यपाल नियुक्त किए गए। इस तरह इस बंगले के इतिहास में प्रशासन से शासन में जाने के कम से कम पांच उदाहरण हमारे सामने हैं।

अजीत जोगी जिलाधीश का पद सम्हालने रायपुर आए, उसके कुछ माह पहले वे एक अन्य घटना के चलते रायपुर में चर्चित हो गए थे। रायपुर की एक फुटबॉल टीम किसी टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए वर्ष 1978 में शहडोल गई। वहां किसी कारण से रायपुर के खिलाड़ियों का मेजबान टीम के खिलाड़ियों के साथ झगड़ा हो गया। मारपीट की नौबत आ गई। रायपुर के कुछ खिलाड़ी घायल हो गए और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। उस समय शहडोल ज़िले के युवा कलेक्टर ने अस्पताल पहुंच कर उन नौजवानों की मिजाजपुर्सी की तथा स्वस्थ होने के बाद उन्हें रायपुर भेजने का प्रबंध किया। यह किस्सा एक रोज मेरे मित्र व लोकप्रिय अस्थिरोग विशेषज्ञ डॉ शंकर दुबे ने सुनाया। उस युवा कलेक्टर का नाम अजीत जोगी था। यह रोचक संयोग था कि कुछ माह बाद उन्हीं जोगी का तबादला रायपुर हुआ। वैसे रायपुर उनके लिए नई जगह नहीं थी। 1967 में वे शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय में व्याख्याता के रूप में कुछ समय तक सेवाएं दे चुके थे। फिर वे 1969 में आईपीएस और उसके एक साल बाद आईएएस के लिए चुन लिए गए। वे जब सन् 2000 में तीसरी बार लौटे तो मुख्यमंत्री के लिए कोई और आलीशान भवन चुनने के बजाय उन्होंने उस सौ साल से अधिक पुराने कलेक्टर बंगले में ही रहना पसंद किया जहां वे पहले लगभग ढाई साल रह चुके थे। इस बार उन्हें यहां तीन साल का समय मिला। फिर भविष्य देवता एकाएक डॉ. रमनसिंह पर मुस्कुराए और बढ़ाते-बढ़ाते उन्हें पंद्रह साल की लीज़ दे दी। बंगला पुराण यहां समाप्त होता है।

मुझे इस बात का कोई इल्म नहीं है कि जोगीजी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा उस वक्त तक जागृत हुई थी या नहीं, लेकिन उनकी कार्यप्रणाली तथा सोच के दो स्पष्ट उदाहरण मेरी समझ में आए। एक दिन किसी काम से मैं उनके निवास पर मिलने गया तो सुबह नौ बजे के आसपास ही एक बड़ा हुजूम अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए वहां मौजूद था और वे शांतिपूर्वक बल्कि प्रसन्नचित्त होकर जनता से मिल रहे थे। 1980 में एक शाम वे मेरे आमंत्रण पर रोटरी क्लब ऑफ रायपुर मिडटाउन में व्याख्यान देने आए। विषय मेरा ही सुझाया था- कलेक्टर ऑर द किंगपिन। इस पर लगभग एक घंटे उन्होंने बात की। उनकी साफ राय थी कि जनतांत्रिक राजनीति में तीन पदों का ही महत्व है- पी एम, सी एम और डी एम अर्थात प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट यानी जिलाधीश। क्या यह उनकी इसी सोच का कमाल था कि वे रायपुर से इंदौर गए तो वहां जिलाधीश के पद पर ही पांच साल गुजार दिए? वे सचिव अथवा संभागायुक्त पद के पात्र हो चुके थे, लेकिन पदोन्नति नहीं ली और 1986 की मई में एकाएक कांग्रेस से राज्यसभा के उम्मीदवार घोषित कर दिए गए। चर्चा चली कि उनके नामांकन के पीछे अर्जुनसिंह का हाथ है, किंतु उस समय मध्यप्रदेश में मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री थे। तो क्या उनकी इस मामले में नहीं चली? वैसे कांग्रेस में तार्किक आधार पर टिकटों या पदों का वितरण कम ही होता है, या कम से कम राजनीतिक प्रेक्षकों को ऐसा ही लगता है। इसलिए इस बारे में सिर खपाने का कोई लाभ नहीं है।

अजीत जोगी के रायपुर जिलाधीश रहते हुए हमारे उनसे उस सीमा तक ही सौजन्यपूर्ण संबंध थे, जितने कि किसी अखबार के प्रशासनिक अधिकारियों के साथ होना चाहिए। इंदौर चले जाने के बाद मेरा उनके साथ कोई खास संपर्क भी नहीं रहा। मेरे एक इंदौर प्रवास पर अवश्य उन्होंने मुझे अपने आवास पर भोजन हेतु आमंत्रित किया था जो शायद ऐसा पहला अवसर था। इसलिए मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि भोपाल में नामांकन दाखिल करने के बाद उसी दिन वे बाबूजी से मिलने के लिए गए कि उनके आशीर्वाद से ही टिकट मिला और आकांक्षा प्रकट की कि इस नई भूमिका में आशीर्वाद मिलते रहेगा। ऐसा नहीं कि यह भावना उन्होंने निजी भेंट में व्यक्त की, बल्कि आगे भी कई बार सार्वजनिक तौर पर दोहराई। मैं इस बारे में अनुमान लगाने की कोशिश करता हूं तो पहली बात समझ आती है कि छत्तीसगढ़ में ही अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने के इरादे से उन्होंने उस अखबार से समर्थन सुनिश्चित करना चाहा होगा जिसकी विश्वसनीयता असंदिग्ध व पहुंच छत्तीसगढ़ के हर कोने में थी!राज्यसभा में पहुंचना तो अंतत: उनके राजनीतिक सफर का पहला कदम था। उनकी महत्वाकांक्षा निश्चय ही यथासमय मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की रही होगी। अपने मनोभाव को जोगीजी ने कभी छिपाया नहीं, अपितु जब-तब उसका सार्वजनिक प्रदर्शन करने में भी संकोच नहीं किया। (तब पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्मित होने की दूर दूर तक कोई स्थिति नहीं थी)। दूसरी बात, वे शायद मन ही मन इस बारे में भी आशंकित थे कि मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा के परिवार द्वारा संचालित अखबार का उनके प्रति मैत्रीपूर्ण रवैया नहीं होगा! उनकी आशंका गलत नहीं थी। उक्त समाचारपत्र में उनके विरुद्ध छपी खबरों का बाज वक्त उन्होंने खिन्न मन से मुझसे उल्लेख भी किया।

मेरे अपने लिए इस संस्मरण का एक रोचक तथ्य यह है कि जिस दिन उनकी उम्मीदवारी घोषित हुई, हम कुछ मित्र इनरव्हील डिस्ट्रिक्ट- 326 की सालाना डिस्ट्रिक्ट असेंबली में शामिल होने सपरिवार सिवनी आए हुए थे। इस मंडली में रायपुर विधायक स्वरूपचंद जैन भी थे। उन्हें याद था कि राज्यसभा उम्मीदवारों की घोषणा उसी दिन होना है। स्वाभाविक उत्सुकतावश स्वरूपजी ने भोपाल किसी परिचित को फोन लगाया तो यह सूचना मिली। हम सबको ही इस खबर पर अचरज हुआ। बहरहाल, वे बाबूजी का आशीर्वाद लेने गए थे, यह जानकारी मुझे दो दिन बाद मिली, जब मैं सिवनी का कार्यक्रम संपन्न होने के पश्चात जबलपुर पहुंचा। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 26 नवंबर 2020 को प्रकाशित


डॉ परिवेश मिश्र से निम्नलिखित पूरक जानकारी प्राप्त हुई है।

इस बंगले का आशीर्वाद पाये कम से कम दो और कलेक्टरों का उल्लेख जोड़ा जा सकता है। 

1. वाय.एन. (यशवंत नारायण) सुखठणकर 1929-30 में कलेक्टर थे। वे 1921 में ICS में चयनित हुए थे। यह वही बैच था जिसमें सुभाष चन्द्र बोस भी चुने गये थे (उन्होंने हालांकि नौकरी जाॅईन करने से पहले ही इस्तीफा दे दिया था।) आज़ाद भारत में कैबिनेट सेक्रेटरी के पद से रिटायर होने के बाद उड़ीसा के राज्यपाल बने थे। दूसरी पंचवर्षीय योजना बनाने में उनकी भूमिका प्रमुख मानी जाती है। 

2. इसी काल में कुछ आगे-पीछे, सी.एम. (चन्दूलाल माधवलाल) त्रिवेदी भी कलेक्टर रहे। वे सी.पी. एंड बरार के मुख्य सचिव भी बने। आज़ादी और विभाजन के बाद जब पूर्वी पंजाब का हिस्सा भारत को मिला तो इन्हें वहां पहला राज्यपाल बना कर भेजा गया। शिमला में काम काज शुरू हुआ। न घरों के लिये स्थान था न कार्यालयों के लिये। (पंजाब, हिमाचल और हरियाणा के इलाके बाद में विभाजित हुए।) बाद में वे आंध्र प्रदेश के पहले राज्यपाल, योजना आयोग के डिप्टी चेयरमैन आदि भी बनाये गये। 

Tuesday, 24 November 2020

कविता: मांगपत्र

 


हुज़ूर ! 

क्या मुझे इजाज़त है

कि मैं अपने दिल की खिड़कियाँ

रौशनी के कोमल स्पर्श के लिए खोल सकूँ?

और फिर, दूर से ही सही,

जीवन की खूबसूरत नेमतों को निहार सकूँ?


हुज़ूर!

तीन सौै पैंसठ दिन में

सिर्फ एक दिन के लिए,

क्या मैं

आपकी हर वक्त की

यह करो और यह न करो

से मुक्त हो,

अपने आपको पा सकती हूूँ 

अपने औरत होने को?


हुज़ूर !क्या मुझे इजाज़त है

कि मैं हरी घास पर  लेटने की

अपनी आज़ादी हासिल कर सकूँ,

और प्रतीक्षा करती धरती को

अपनी देह और आत्मा की

गरमाहट से सहला सकूँ

सूरज की किरणों से कुछ ज्यादा

मुरव्वत के साथ,

या फिर सुदूर मैदानों में

किसी अकेले पेड़ की डाल पर बैठ

पक्षियों के सुर में सुर मिलाकर गा सकूँ,

या नदियों से एकाकार हो

तैर लूँ उल्लास में भीगी मछलियों के साथ,

और बारिश के साथ अपनी

कानाफूसियाँ याद करते हुए

समर्पित कर दूँ खुद को

अपनी जन्म-जन्मांतर से प्रतीक्षित 

स्वतंत्रता के सामने?


हुज़ूर!

क्या मुझे इजाज़त है

भले ही एक क्षण के लिए, कि

आपकी बनाई चौहद्दी के भीतर

रहते हुए मैं राहत पा सकूँ

बात करो, रुक जाओ, ऐसा नहीं,

और कभी नहीं के आदेशों के दर्द से ?


आला हुज़ूर !

अगर आपकी कृपा हो जाए तो

क्या मैं प्रेम का स्वप्न देख लूँ?

बगावत की पुरानी कविताओं की तड़प,

और एक गहरे चुंबन की उत्तेजना तथा

आज़ादी की खिलती चमक के बीच

घरेलू कामकाज की थकावट

जो औरतजात पर ही थोपी जाती है,

अपने आपको कहीं दूर ले जाऊँ?


हुज़ूर!

क्या मुझे इजाज़त है कि

चंद लम्हों के लिए मैं

सुई और धागे से,

कपड़ों और इस्तरी से

चूल्हे और चौके से

छूट्टी पा लूं,

और प्यार के अनंत आकाश तले

अपने होने को विलीन कर दूँ

भावना और बुद्धि के उन प्यार क्षणों में

जिनकी इजाज़त आपकी संहिता ने मुझे कभी नहीं दी?


हुज़ूर!

हुज़ूर!

क्या मुझे इजाज़त है कि

किसी दिन मैं पड़ौसी से

दुआ-सलाम कर सकूँ

या फिर अपने दबे हुए आँसुओं की लड़ी से

किसी मुसाफिर के लिए

बुन सकूँ एक मफलर?

और क्या मुझे इजाज़त है कि

बिना किसी परमिट के

गुलाबों की वेदी पर चढ़

बसंत के खुशनुमा बागों में भटक सकूँ?


हुज़ूर!

अगर आपकी कृपा हो जाए तो

क्या मैं थोड़ी सी खिल्ली उड़ा लूँ?

हाँ, मेरे आका, हँस लूँ, खिल्ली उड़ते हुए,

और तुम्हारे मुँह पर कह सकूँ

कि तुम्हारी लगाई पाबंदियाँ शर्मनाक हैं

और जिसे तुम न्याय और उचित कहते हो

दरअसल, वह बेहद घटिया शै है।


मूल फारसी व अंग्रेज़ी अनुवाद-

फरीदा हसनज़ाद मुस्तफावी

(Farideh Hassanzade Mostafavi)


अंग्रेजी से रुपांतर: ललित सुरजन

Saturday, 21 November 2020

कविता: लखनऊ के पास सुबह-सुबह

 


अभी-अभी

सरसों के खेत से

डुबकी लगाकर निकला है

आम का एक बिरवा,


अभी-अभी

सरसों के फूलों पर

ओस छिड़क कर गई है

डूबती हुई रात,


अभी-अभी

छोटे भाई के साथ

शरारत करती चुप हुई है

एक नन्हीं बिटिया,


अभी-अभी

बूढ़ी अम्माँ को सहारा दे

बर्थ तक लाई है

एक हँसमुख बहू,


अभी सुबह की धूप में

रेल लाईन के किनारे

उपले थाप रही है

एक कामकाजी औरत,


अभी सुदूर देश में

अपने नवजात शिशु के लिए

किताब लिख रहा है

एक युद्ध संवाददाता,


अभी मोर्चे से लौट रहा है

वीरता का मैडल लेकर

अपने परिवार के पास

एक सकुशल सिपाही,


अभी मैंने

अवध की शाम

नहीं देखी है,

अभी मैं जग रहा हूँ

लखनऊ के पास

अपना पहिला सबेरा, 

और खुद को

तैयार कर रहा हूँ

एक खुशनुमा दिन के लिए।

06.02.1999


·

Wednesday, 18 November 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 24



 नए मध्यप्रदेश राज्य का गठन 1 नवम्बर 1956 को हुआ था। तब से लेकर 1985 के दरम्यान सिर्फ डॉ. कैलाशनाथ काटजू ऐसे मुख्यमंत्री रहे जिन्हें पांच साल का एक कार्यकाल पूरा करने का मौका मिला। वे 1962 में विधानसभा चुनाव हार गए। इस हिसाब से अर्जुनसिंह ने रिकॉर्ड बनाया। वे 1985 में लगातार दुबारा मुख्यमंत्री बने, यद्यपि कुछ दिन पश्चात ही उन्हें पंजाब भेज दिया गया। लगातार दस साल मुख्यमंत्री बने रहने का नया रिकॉर्ड दिग्विजय सिंह के नाम है। 1993-98 के मध्य एक पारी पूरी करने के बाद वे 1998 में दुबारा जीतकर आए तथा 2003 तक इस पद पर बने रहे। इस अभूतपूर्व सफलता के पीछे दो-तीन कारण समझ आते हैं। दिग्विजय जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तब उनकी आयु मात्र छियालीस वर्ष थी। याने पिछले मुख्यमंत्रियों के मुकाबले तरुणाई उनकी मददगार हुई। वैसे तो श्यामाचरण और दो साल कम चवालीस की ही उम्र में मुख्यमंत्री बन गए थे, लेकिन इंदिरा जी की अवज्ञा करना उन पर भारी पड़ गई थी। दिग्विजय ने ऐसी कोई गलती नहीं की। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में जब जो ताकतवर हुआ, वे निष्ठापूर्वक उसके साथ हो गए। 

शायद दूसरा कारण दिग्विजय सिंह के शासन करने की अनोखी शैली में देखा जा सकता है। एक तो उन्होंने तमाम विभाग अपने सहयोगियों में बांट दिए व खुद के पास एक भी विभाग नहीं रखा। इससे उन्हें जाहिरा तौर पर प्रदेश की जनता से सीधा संवाद करने के लिए, विकास की योजनाएं बनाने के लिए अधिक समय मिलने लगा। यद्यपि अनेक अध्येता इससे सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार अपने पास एक भी विभाग न रखना महज एक दिखावा था। कहने को मंत्री ही विभाग के मालिक थे, लेकिन असली कमान मुख्यमंत्री के विश्वस्त विभागीय सचिव के हाथों होती थी जो मुख्यमंत्री से ग्रीन सिग्नल लेने के बाद ही किसी प्रस्ताव को मंजूर होने देते थे। इसी शैली में उन्होंने प्रदेश के हर जिले, संभाग और क्षेत्र से भी अपने आप को मुक्त कर लिया था। मसलन वे घोषित तौर पर कहते थे कि रायपुर में विद्या भैया, दुर्ग में वोराजी, रीवां में श्रीनिवास तिवारी, छिंदवाड़ा में कमलनाथ, इसी तरह अन्यत्र भी जो बड़े नेता कहेंगे वही किया जाएगा। इस कदम से उन्होंने तमाम धुरंधर नेताओं से संभावित विरोध को न सिर्फ जड़ से समाप्त कर दिया, बल्कि उनका सहयोग भी अर्जित कर लिया। यह बात अलग है कि जिलाधीश या संभागायुक्त ने किया वही जो मुख्यमंत्री चाहते थे। रायपुर के बारे में तो मैं कह सकता हूं कि छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की पूर्व संध्या तक वी सी शुक्ल पूरी तरह दिग्विजय सिंह पर निर्भर हो गए थे या कर दिए गए थे।

यह एक अटपटी सच्चाई है कि दिग्विजय सिंह एक ओर जहां नौकरशाहों के सहारे प्रदेश चला रहे थे; वहीं दूसरी तरफ वे संवेदी समाज यानी कि सिविल सोसाइटी के सहयोग से राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी छवि गढ़ने के प्रयास कर रहे थे, जिसमें वे किसी सीमा तक सफल भी हुए। यह मजे की बात है कि इन प्रयासों में नौकरशाही और सिविल सोसाइटी दोनों की समान भागीदारी रही। एकता परिषद के पी वी राजगोपाल जैसे प्रतिष्ठित सिविल सोसाइटी नेता ने दिग्विजय सिंह का खुलकर समर्थन किया। 1998 के विधानसभा चुनावों के समय ऐसे अनेक संगठनों ने कांग्रेस के पक्ष में अपीलें तक जारी कीं। कहते हैं कि पार्टी को इसका लाभ नक्सल प्रभावित बस्तर संभाग में किसी हद तक मिला। और यह तब हुआ जब दिग्विजय सरकार ने सिविल सोसाइटी द्वारा बरसों से चलाए जा रहे ''होशंगाबाद विज्ञान'' जैसे अत्यंत सफल शैक्षणिक प्रयोग को बिना किसी चर्चा या सुनवाई के एकतरफा निर्णय लेते हुए बंद कर दिया था। इसी दौरान मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम ने एक गुपचुप निर्णय लेते हुए दुर्ग जिले के बोरई में औद्योगिक जल आपूर्ति हेतु शिवनाथ नदी का लगभग बाईस किलोमीटर का हिस्सा एक निजी कंपनी को सौंप दिया। संयोगवश नदी जल के इस निजीकरण का रहस्योद्घाटन करने का श्रेय छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद 2001 में देशबन्धु को ही मिला। तब तक इसकी भनक भी किसी को नहीं लगी थी। 

पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने राजनीति को अंतर्विरोधों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की कला निरूपित किया था। दिग्विजय सिंह इसी व्याख्या को आधार बनाकर शासन चला रहे थे। वे एक ओर समाज के वंचित और हाशिए के समुदायों की बेहतरी के लिए महत्वाकांक्षी योजनाएं बना रहे थे, जिसका चरमोत्कर्ष जनवरी 2002 में भोपाल में आयोजित दलित सम्मेलन व उसमें अंगीकृत भोपाल घोषणापत्र में देखने मिलता है; तो दूसरी ओर वे मनुवाद पर आधारित अपनी धार्मिक आस्था का इस तरह खुला प्रदर्शन करते हैं जैसा उनके पहले प्रदेश के किसी बड़े नेता ने नहीं किया। शायद इसे संतुलित करने के उद्देश्य से वे अल्पसंख्यकों की पैरवी में उस हद तक चले जाते हैं जहां बहुसंख्यक समाज के बीच उनकी खलनायक जैसी छवि बनने लगती है, जिसका खामियाजा अंतत: कांग्रेस पार्टी को उठाना पड़ता है।
उन्होंने 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन विधेयक की भावना के अनुरूप प्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था लागू करने में उत्साह दिखाया, लेकिन नौकरशाही ने उसके नियम इस तरह बनाए व बार-बार संशोधित किए जिसमें सत्ता के मौजूदा तंत्र का शिकंजा पूर्ववत कसा रहा और नौबत आई तो दोषारोपण पंचायती राज प्रतिनिधियों पर कर दिया गया। रायपुर के व्याख्यान में इस बारे में सवाल किए जाने पर उन्होंने मजे लेकर उत्तर दिया- भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण ही तो हुआ है, केन्द्रीकरण तो नहीं हुआ न! 

सामान्यत: राजनेताओं की एक बड़ी पूंजी उनकी स्मरण शक्ति होती है। दिग्विजय इस मामले में दूसरों से कई मील आगे दिखते हैं। वे हजारों लोगों को नाम से जानते हैं और कई साल बाद मिलने पर भी उन्हें पहचान लेते हैं। वे अक्सर उन्हें प्रथम नाम से संबोधित करते हैं और युवा कार्यकर्ताओं तथा पत्रकारों आदि से युवकोचित तू-तड़ाक कर उन्हें अपने मोहपाश में बांध लेते हैं। इस लोकप्रियता के बावजूद उनके दस-साला कार्यकाल में पांच-छह बातों के चलते उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ा। एक तो मध्यप्रदेश राज्य विद्युत मंडल अवनति को प्राप्त हुआ। दूसरे, साल के जंगलों में कथित तौर पर  ''साल बोरर'' कीट लग जाने के कारण बड़ी संख्या में कीमती साल वृक्ष काट दिए गए। तीसरे, प्रदेश में एक अत्यंत ताकतवर शराब लॉबी खड़ी हो गई। चौथे, मुलताई गोलीकांड जिसमें बड़ी संख्या में आंदोलनकारी किसान मारे गए और उनके नेता समाजवादी विधायक डॉ सुनीलम को जेल में ठूंस दिया गया। पांचवे, अंबानी घराने से उनकी निकटता की चर्चा होने लगी थी। होशंगाबाद ज़िले में बाबई स्थित विशाल शासकीय कृषि प्रक्षेत्र उसे देना शायद तय भी हो गया था जो रोक दिया गया। छठे, लोकलुभावन राजनीति के चक्कर में उन्होंने सड़क -बिजली-पानी जैसे बुनियादी प्रश्नों की ओर ध्यान देना बंद कर दिया।

दिग्विजय सिंह के शासनकाल की सबसे बड़ी परिघटना छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की है। भारतीय जनता पार्टी के अजेंडे में तीन नए राज्यों की स्थापना का मुद्दा पहले से था। छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस सहित सभी पार्टियां नए राज्य गठन का समर्थन कर रहीं थीं। एकमात्र मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर इसके विरोध में थी। मैं जितना समझ पाया, दिग्विजय सिंह ने मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया। विधानसभा में नए राज्य के लिए प्रस्ताव भी आसानी से पारित हो गया। लेकिन जब राज्य गठन के लिए व्यवहारिक तैयारियां शुरू हुईं तब मुख्यमंत्री का एक नया रुख देखने मिला। परिसंपत्तियों के बंटवारे, अधिकारियों- कर्मचारियों के कैडर आबंटन आदि विषयों पर एक तयशुदा फार्मूले के अंतर्गत काम होना था। उसमें बारंबार बदलाव किए गए। मुख्यमंत्री जिन अधिकारियों से नाराज थे या जो उनकी निगाह में नाकाबिल थे, उन्हें छत्तीसगढ़ भेजने की हर संभव कोशिश की गई और जो चहेते अफसर थे, उन्हें किसी न किसी बहाने भोपाल में रोक लिया गया। परिणामस्वरूप छत्तीसगढ़ आए अफसरों में लंबे समय तक आक्रोश बना रहा। कुछ ने तो अदालत तक की शरण ली। लेकिन इस सब के बीच 31 अक्तूबर 2000 की शाम मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल के निवास ''राधेश्याम भवन'' पर उत्तेजित कांग्रेसजनों के क्रोध का सामना जिस संयम के साथ किया, मुख्यमंत्री होते हुए शारीरिक आक्रमण को भी झेल लिया, और अजीत जोगी को हाईकमान की इच्छानुसार मुख्यमंत्री बनने देने में बाधा उत्पन्न नहीं होने दी, वह उनके राजनीतिक कौशल की सबसे बड़ी परीक्षा थी, जिसमें वे स्वर्ण पदक विजेता सिद्ध हुए। भले ही नए राज्य के इतिहास में यह पूर्व संध्या एक शर्मनाक घटना के रूप में दर्ज की गई हो। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 19 नवंबर 2020 को प्रकाशित

Saturday, 14 November 2020

कविता: बस्तर: सत्य की कथा

 


सुबह पाँच बजे

पूरनमासी के दिन

बहुत से घरों में जब

शुरु हो गई हो तैयारी

सत्यनारायण की कथा की,


बस्तर के विलुप्त वनों में

डूबते चंद्रमा के सामने

अपने सच होने का बयान

देने के लिए खड़े हैं उदास

भूरे, बदरंग, नीलगिरि के वृक्ष,

सब कुछ सच-सच कहने के लिए

बैठी हैं, बरसों से

थकी-प्यासी चट्टानें

नदियों के निर्जल विस्तार में,


इधर पूरब के आकाश में

क्षिप्र उदित हो रहा है

मई का सूरज,

उधर डूब रहा है

उमस भरी रात का सभापति

चौदहवीं का चंद्रमा

भूरा, बदरंग, निस्तेज

उदास और कुम्हलाया हुआ,


नदी, पहाड़, पेड़ और चाँद

नहीं हैं जिनके

सच का सरोकार

सरपट दौड़ रहे हैं

उदीयमान सूरज के साथ।


21.05.2000

Wednesday, 11 November 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 23

 "सो यू वांट स्पेशल ट्रीटमेंट फार देशबन्धु "

"यस, आई डू एंड व्हाई शुड नॉट आई"

मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कुछ तल्ख स्वर में अंग्रेजी में सवाल किया और मैंने अंग्रेजी में ही उन्हें उत्तर दिया। इसके बाद की चर्चा हिंदी में हुई। मैंने कुछ दिन पूर्व उन्हें एक ज्ञापन भेजा था और मिलने जाते समय उसकी प्रति साथ लेते गया था। उसे पढ़कर ही उन्होंने उपरोक्त सवाल किया था। यह किस्सा बहुत संभव 1997 का है। मैंने उन्हें याद दिलाया कि 1992 में उन्होंने जब सांप्रदायिकता के खिलाफ लेख लिखे थे तो इच्छा व्यक्त की थी कि देशबन्धु में ही उनका प्रकाशन हो। मध्यप्रदेश में तब सुंदरलाल पटवा के नेतृत्व में भाजपा की सत्ता थी। ऐसे समय उन लेखों को प्रकाशित करने का मतलब सरकार की नाराजगी मोल लेना था, जिसका प्रतिकूल असर सरकारी विज्ञापनों की कटौती में होना ही था। मेरा सीधा तर्क था कि आपके साथ खड़े रहने से जब हमने नुकसान झेला है तो आज आपके सत्ता में रहते हुए हमें विशेष लाभ भले न मिले, कम से कम अन्याय तो नहीं होना चाहिए। मैंने उनके सामने पिछले एक साल का तुलनात्मक चार्ट रखा कि एक ओर देशबन्धु को वंचित कर दूसरी ओर कैसे भाजपा का साथ देने वाले पत्रों व एक नए अखबार को कितने अधिक विज्ञापन दिए जा रहे हैं। दिग्विजय ने मेरी बात सुन ली। जनसंपर्क सचिव को कहा कि मामला देख लें। बात वहीं खत्म हो गई। अभी इतनी गनीमत थी कि मुख्यमंत्री से मुलाकात का समय मिल गया था।

सन् 1997 के ही जुलाई-अगस्त में दिग्विजय सिंह का एक दिन अचानक फोन आया। वार्तालाप कुछ इस तरह हुआ- 

'ललितजी, सितंबर में पचमढ़ी में कांग्रेस का चिंतन शिविर हो रहा है।'

'जी हां, खबर तो मिली है।'

'इसमें आपका सहयोग चाहिए।'

'जी, बताइए, क्या करना है?'

'बड़ा आयोजन है। आपसे चाहते हैं कि एक लंच या डिनर आपकी तरफ से हो जाए।'

'दिग्विजयजी, यह तो आप उल्टी गंगा बहा रहे हैं। प्रेस वाले क्यों राजनीतिक दल के कार्यक्रम में लंच-डिनर देंगे!'

'लेकिन नवभारत, भास्कर, नई दुनिया तो दे रहे हैं।'

'वे दे रहे होंगे। उनको पद्मश्री चाहिए। राज्यसभा में जाना होगा। और भी कोई काम होगा। मुझे यह सब नहीं चाहिए। सो मुझसे तो यह नहीं होगा।'

इस वार्तालाप के संदर्भ में यह लिखना अनुचित नहीं होगा कि कालांतर में लंच-डिनर के मेजबान अखबारों में से एक के संचालक कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य बने, एक को पद्मश्री से नवाजा गया और दो- तीन अखबारों में मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम ने करोड़ों की राशि फिक्सड डिपॉज़िट के रूप में जमा की। वह राशि नियत समय पर वापस नहीं मिली तो बखेड़ा उठ खड़ा हुआ। इनमें दो अखबार ऐसे भी थे, जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भोपाल में हुए दंगों में सांप्रदायिक ताकतों का साथ दिया था और जिसकी खुली आलोचना अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मुखपत्र 'कांग्रेस संदेश' में हो चुकी थी। 

इन प्रसंगों में मेरा जो रुख था, वह किसी हद तक धृष्टतापूर्ण था। अगर मुख्यमंत्री मेरे कहे का बुरा मानते तो वह स्वाभाविक होता, लेकिन दिग्विजय सिंह ने कम से कम जाहिरा तौर पर ऐसा नहीं किया। हमारे बीच संवाद पूर्ववत कायम रहा तथा मेरे आमंत्रण पर उन्होंने दो-तीन बार रायपुर में विभिन्न कार्यक्रमों में शिरकत भी की। देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष के प्रेस काम्प्लेक्स में प्रस्तावित सांस्कृतिक भवन का भूमिपूजन उनके ही हाथों संपन्न हुआ। चौबे कालोनी स्थित शासकीय विद्यालय का नामकरण मायाराम सुरजन शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय करने की घोषणा भी उन्होंने स्कूल परिसर में आयोजित कार्यक्रम में की। बाबूजी की स्मृति में आयोजित व्याख्यान माला में भी वे आए। इनमें से ही किसी एक अवसर पर उन्होंने स्वयं मेरे निवास पर रात्रिभोज हेतु आने का मंतव्य प्रगट किया और हमने आनन-फानन में जो व्यवस्था हो सकती थी वह की। एक अनायास उत्पन्न कानूनी अड़चन को दूर करने मैंने सहायता मांगी तो उन्होंने अपने कार्यालय में कुछ वरिष्ठ मंत्रियों व अधिकारियों की बैठक बुला ली। 

एक ओर ये सारे उदाहरण थे तो दूसरी ओर यह सच्चाई भी थी कि देशबन्धु को सरकारी विज्ञापन देने में वही पुराना रवैया चलता रहा। हमारा कोई दूसरा व्यापार तो था नहीं, जिससे रकम निकाल कर यहां के घाटे की भरपाई कर लेते। धीरे-धीरे कर हमारी वित्तीय स्थिति डांवाडोल होती गई। इस परिस्थिति में देशबन्धु का सतना संस्करण बंद करने का निर्णय हमें लेना पड़ा। मध्यप्रदेश वित्त निगम के ऋण की किश्तें समय पर पटा नहीं पाने के कारण एक दिन भोपाल दफ्तर पर वित्त निगम ने अपना ताला लगा दिया। किसी तरह मामला सुलझा तो भी एक दिन यह नौबत आ गई कि मैंने खुद होकर भोपाल संस्करण स्थगित करने का फैसला ले लिया। एक बार 1979 में जनसंघ (जनता पार्टी) के राज में भोपाल का अखबार बंद करना पड़ा था तो इस बार कांग्रेस के राज में वैसी ही स्थिति फिर बन गई। उधर जिस कानूनी अड़चन में हमें फंसा दिया गया था, उससे उबरने में अपार मानसिक यातना व भागदौड़ से गुजरना पड़ा। जो आर्थिक आपदा आई, उसके चलते अखबार की प्रगति की कौन कहे, बल्कि हम शायद बीस साल पीछे चले गए। ऐसी विषम परिस्थिति बनने के लिए संस्थान का मुखिया होने के नाते मैं खुद को ही दोषी मानता हूं। 

दरअसल, मैं रायपुर में बैठकर कामकाज सम्हालता था। भोपाल जाना कम ही होता था। राजधानी का कारोबार कैसे चलता है, मैं उससे लगभग अनभिज्ञ था।  देशबन्धु की कार्यप्रणाली भी संभवत: जरूरत से ज्यादा जनतांत्रिक थी। मैं पत्रकारिता की समयसिद्ध परंपरा के अनुरूप मान रहा था कि प्रधान संपादक को मुख्यमंत्री आदि से विशेष अवसरों पर ही मिलना चाहिए। मैंने हमेशा खुले मन से अपने सहयोगियों को प्रोत्साहित किया व उन्हें अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के अवसर दिए। यह भी किसी कदर मेरी नासमझी थी जिसका खामियाजा अखबार को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से भुगतना पड़ा। इसी सिलसिले में एक संंक्षिप्त प्रसंग अनायास स्मरण हो आता है। एक नवोदित राजनेता से, जिनके साथ अच्छे संबंध थे, लंबे समय बाद मुलाकात हुई। मैंने सहज भाव से पूूूछा- बहुत दिनों बाद मिल रहे हो। उनका उत्तर था- आपके संवाददाता (नाम लेकर) से तो मिल लेते हैं। अब आपसे भी मिलना पड़ेगा क्या? इस उत्तर का मर्म आप समझ गए हों तो अच्छा है। न समझे हों तो भी अच्छा है।

दोहराना उचित होगा कि देशबन्धु अपने स्थापना काल से ही  प्रगतिशील, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष नीति का पैरोकार रहा है। सामान्य बोलचाल में हमें कांग्रेस समर्थक मान लिया जाता है। इसके बावजूद वर्ष 1998 में विधानसभा चुनाव के समय जब देशबन्धु को मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के विज्ञापन नहीं मिले तो आश्चर्य हुआ। ऐसा पहली बार हुआ। एक-दो दिन की प्रतीक्षा के बाद मैंने दिग्विजय को फोन किया। उन्होंने विज्ञापन छापने के लिए मौखिक अनुमति दे दी, लेकिन कांग्रेस कमेटी से औपचारिक आदेश अंत तक नहीं आया। फिर विज्ञापन बिल का भुगतान कब, कैसे हुआ  वह अलग कहानी है।बहरहाल, मैं आज तक यह समझने का प्रयास कर रहा हूं कि ऐसा क्यों कर हुआ। मेरा अनुमान है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने लिए राष्ट्रीय मंच पर बड़ी भूमिका निभाने का रास्ता बना रहे थे, जिसमें देशबन्धु जैसे पूंजीविरत, लॉबिंग करने में असमर्थ, मूलत: प्रादेशिक समाचार पत्र की कोई उपयोगिता नहीं थी। उन्हें शायद अर्जुनसिंह के साथ हमारे संबंधों को लेकर भी संशय था, क्योंकि उस समय मध्यप्रदेश से वे ही एक बड़े नेता थे जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर उपस्थिति उनकी महत्वाकांक्षा में बाधा बन सकती थी। दूसरी तरह से कहना हो तो यही कहूंगा कि व्यक्ति केंद्रित राजनीति के नए युग में परंपरा, संबंध, सिद्धांतों की बात करना बेमानी था। यही आज का भी सत्य है। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 12 नवंबर 2020 को प्रकाशित

Saturday, 7 November 2020

कविता: अमेरिका को फिर अमेरिका बनने दो

 

- लैंगस्टन ह्यूज़

(1902-1967)

विख्यात अफ्रीकी-अमेरिकी कवि


अमेरिका को फिर अमेरिका बनने दो,

बनने दो उसे स्वप्न जो वह कभी था, 

कहो कि वह पहल करे, आगे बढ़े और

तलाश करे वह घर जहां वह खुद आज़ाद हो।


(मेरे लिए अमेरिका कभी अमेरिका नहीं था)


ओह! मेरी धरती को बनने दो वह धरती,

जहाँ स्वतंत्रता की देवी पर न चढ़ाए जाते हों 

झूठी राष्ट्रभक्ति के पुष्पहार 

लेकिन जहाँ अवसर हों सचमुच में,

और जीवन हो मुक्त,

समता हो उस हवा में 

जिसे हम पीते हैं।


(यहाँ मेरे लिए समता कभी नहीं थी,

और न स्वतंत्रता, स्वाधीनता के इस अपने घर में)


कहो तो, कौन हो, 

तुम जो अंधेरे में बुदबुदा रहे हो?

कौन हो, तुम जो सितारों को ढांप रहे हो?


मैं गरीब श्वेत हूँ, छला गया और ढकेला गया,

मैं नीग्रो हूँ, गुलामगिरी के निशान ढोता हुआ,

मैं आदिवासी हूँ, अपनी धरती से बेदखल,

मैं अप्रवासी हूँ, मुठ्ठी में आशा का बीज दबाए,

लेकिन घटित होते देखता हूँ

वही पुराना किस्सा हर रोज़, 

एक दूसरे को नोंच खाने और

कमज़ोर पर सितम ढहाने का,


मैं नौजवान हूँ, उम्मीद और शक्ति से लबरेज़ 

लेकिन जकड़ा हुआ हूँ 

उन्हीं पुरानी अंतहीन जंज़ीरों से

मुनाफा, ताकत, संचय और ज़मीन हड़पने की!

या सोना हड़पने की!

या अपने आराम के लिए अवसर हड़पने की!

दफ़्तर में गुलामी की!

वेतन का हिसाब लगाने की!

अपने लालच में सब कुछ हड़प लेने की!


मैं किसान हूँ, अपने गिरवी खेतों का मालिक,

मैं मज़दूर हूँ, मशीन के हाथों बिका,

मैं नीग्रो हूँ, तुम सबका क्रीतदास, 

मैं व्यक्ति हूँ, लाचार, भूखा, क्षुब्ध,

भूखा हूँ आज भी, स्वप्न के बावजूद 

पिटा हूँ मैं आज भी, हे अग्रगामी!

मैं वह हूँ जो कभी आगे नहीं बढ़ पाया-

बोलियाँ लगती रहीं जिस पर साल-दर-साल

मैं वह कमज़ोर कमिया हूँ ।


फिर भी मैं वही हूँ 

जिसने देखा था पहला स्वप्न 

उस पुरानी दुनिया में 

राजाओं की गुलामी करते हुए,

जिसने देखा था सपना

इतना दृढ़, इतना साहसमय, इतना सच्चा कि

उसका संगीत बहता है आज भी 

हर ईंट और पत्थर में,

खेत की हर कतार में,

जिसने अमेरिका को बनाया वह जो आज है।


ओह! मैं वह हूँ जो

सबसे पहले समंदर पार कर

ढूंढने निकला था एक अदद

अपना कह सके ऐसा घर,

मैं वह हूँ जो

आयरलैंड के अंधेरे तटों को

पीछे छोड़ आया था और

पोलैंड के मैदानों को 

और इंग्लैंड की रविशों को,

काले अफ्रीका को छोड़ कर आया था मैं 

स्वाधीनजनों का अपना घर बसाने,


स्वाधीन?


किसने कहा स्वाधीन? मैंने, नहीं?

मैंने निश्चित ही नहीं?

खैरात पर पलते लाखों ने?

रोज़ी के नाम खाली जेबों वाले लाखों ने?

वे सारे स्वप्न जो हमने देखे

वे सारे गीत जो हमने गाए

वे सारी आशाएं जो हमने जगाईं 

वे ध्वज जो हमने फहराए

हम रोज़ी के नाम खाली जेबों वाले लाखों ने 

जेब में सिर्फ वह सपना

जो लगभग मर चुका है आज।


ओह! अमेरिका को फिर बनने दो अमेरिका 

वह धरती जो अभी तक 

बन नहीं पाई है,

लेकिन जिसे बनना ही चाहिए- वह धरती

जहाँ हर मनुष्य हो स्वाधीन 

वह धरती जो मेरी हो

गरीब की, आदिवासी की, नीग्रो की

हाँ, वह धरती हो मेरी,

मैं, जिसने बनाया अमेरिका,

बनाया अमेरिका 

जिसके स्वेद और लहू ने,

जिसके विश्वास और पीड़ा ने,

मशीन पर चले जिसके हाथ,

बरसात में चला जिसका हल,

वही लौटा कर लाएगा हमारा सुनहरा स्वप्न।


मुझे परवाह नहीं, तुम मुझे गालियाँ दो,

किसी भी भाषा में पुकारो,

स्वाधीनता की इस्पाती चादर पर

दाग नहीं पड़ेंगे,

हमारी ज़िंदगी को चूस लिया

जिन्होंने जोंक बन कर,

उनसे वापिस लेना ही है

हमें हमारी धरती

अमेरिका!


हाँ, सचमुच 

मैं साफ-साफ कहता हूँ, 

अमेरिका मेरे लिए कभी

अमेरिका नहीं था,

लेकिन मैं शपथ लेता हूँ 

अमेरिका होगा।


खूनी गिरोहों के विध्वंस और

मौत के नाच के बावजूद,

बलात्कार, झूठ, कदाचार,

षड़यंत्र और रिश्वत की सड़न के बाद भी,

हम, जो जन हैं, लौटा कर लाएंगे 

धरती, खदान, वृक्ष, नदियाँ,

पहाड़ और अंतहीन मैदान और 

हरियाली के सारे दृश्य 

हाँ, वे सारे दृश्य 

और अमेरिका को फिर बनाएंगे ।


रूपांतर-

ललित सुरजन

Wednesday, 4 November 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 22

 

 'आपसे यह उम्मीद नहीं थी।'

'आप ही ऐसा लिखेंगे तो हम और किसके पास जाएंगे?'

'हम तो हमेशा से आप पर भरोसा करते आए हैं।'

वे सात-आठ जन थे और एक स्वर में एक साथ लगभग इन्हीं शब्दों में शिकायत कर रहे थे। सुबह का समय था। स्थान था मेरा तत्कालीन निवास। इस दस्ते का नेतृत्व कर रहे थे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दिग्विजय सिंह। यह वाकया सन् 1987 का है। एक दिन पहले हरियाणा विधानसभा के चुनावी नतीजे घोषित हुए थे। कांग्रेस को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था। देशबन्धु ने अपने संपादकीय में राजीव गांधी को सलाह दी थी कि इन परिणामों को देखते हुए उन्हें प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देते हुए लोकसभा भंग करने व मध्यावधि चुनाव करवाने की सिफारिश कर देना चाहिए। इस संपादकीय को पढ़ कर ही दिग्विजय सहित ये सारे नेता हमें उलाहना देने आए थे। उसी दिन राजीव गांधी की आमसभा रायपुर में होनी थी जो आनन-फानन में स्थगित कर दी गई थी। प्रदेश अध्यक्ष इसी कार्यक्रम के लिए आए थे। मैंने उनके उलाहने के जवाब में यही कहा कि हमारी सलाह कांग्रेस के हित में है। देश का माहौल धीरे-धीरे कांग्रेस के विरोध का बन रहा है। अभी तीन चौथाई बहुमत है। मध्यावधि चुनाव होंगे तो कामचलाऊ बहुमत मिल सकता है, लेकिन 1989 आते तक बहुत देर हो जाएगी। मेरे उत्तर से वे संतुष्ट नहीं दिखे, लेकिन पाठक जानते हैं कि निर्धारित समय पर हुए आम चुनाव में कांग्रेस किस तरह पराजित हुई। कुछ माह बाद मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव में भी यही परिणाम निकले।

बहरहाल, 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार भंग कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। 1993 में कुछ महीने बाद विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला तथा दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। मैं उस समय उड़ीसा (अब ओडिशा) के प्रवास पर था। जैसे ही समय मिला, मैंने भोपाल का कार्यक्रम बनाया। नए-नए बने मुख्यमंत्री से उसी उत्साह से मुलाकात हुई जैसी पहले होती रहीं थीं। उन्हें किसी स्वागत समारोह में जाना था। वहां मुझे अपने साथ ही बैठाकर ले गए। साथ में ही वापस लौटे। अपनी आदत के मुताबिक मैं मुख्यमंत्री के लिए प्रदेश के विकास से संबंधित कुछ नोट तैयार करके ले गया था, जो मैंने उन्हें दे दिए कि कार में बैठे-बैठे पढ़ लेंगे। उन्होंने एक सरसरी निगाह उन पर फिराई और कागज की उसी थप्पी में बेपरवाही से रख दिए जिसमें उक्त कार्यक्रम में मिले आवेदन, ज्ञापन इत्यादि भी थे। मुझे थोड़ी शंका हुई जिसे मैंने व्यक्त नहीं किया। लेकिन अगले दिन किसी पत्र में खबर थी कि मुख्यमंत्री के नाम लिखे बहुत से कागजात कचरे के ढेर में मिले।

दिग्विजय सिंह से मिलने के लगभग तुरंत बाद ही अनुभवी विधायक तथा गृह व जनसंपर्क मंत्री चरणदास महंत के साथ भेंट हुई। मेरे वरिष्ठ सहयोगी राज भारद्वाज भी साथ थे। महंतजी के साथ पुराना परिचय था। जैसा मैं समझ पाया, उनकी उत्सुकता यह जानने में थी कि नई सरकार, विशेषकर मुख्यमंत्री, के प्रति देशबन्धु का रुख क्या होगा। मेरे उत्तर का सार यही था कि अखबार की नीति व पुराने संबंधों को देखते हुए उन्हें हमारी ओर से आश्वस्त रहना चाहिए। आखिरकार, दिग्विजय प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त होने के बाद पहली बार रायपुर आए थे तो विमानतल से पहले देशबन्धु ही आए थे। और जब हमारे कोंडागांव संवाददाता प्रेमराज कोटड़िया को भाजपा सरकार ने नक्सली होने के आरोप में टाडा के तहत गिरफ्तार कर लिया था, तब दिग्विजय ही तो थे जो मेरे फोन पर राज्यपाल को रिहाई हेतु ज्ञापन देने गए थे। यही क्यों, एक साल पहले उन्होंने स्वयं अपनी पहल पर सांप्रदायिकता के खिलाफ़ देशबन्धु में लगातार लेख लिखे थे। 

मैंने महंतजी से सिर्फ दो अनुरोध किए- पहला प्रेमराज की रिहाई के लिए। दूसरा कि देशबन्धु के साथ विज्ञापन के मामले में अन्याय न हो। हमारी यह मुलाकात पूरी तरह सद्भावनापूर्ण माहौल में संपन्न हुई।  मैं यह विश्वास लेकर लौटा कि नई सरकार का रवैया हमारे प्रति सकारात्मक रहेगा। इस बात को कुछेक सप्ताह ही बीते होंगे कि एक दुर्घटना में घायल हो जाने के कारण राज भारद्वाज को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। मधुमेह के चलते उनके पैर का घाव भर नहीं रहा था व स्वास्थ्य में गिरावट आ रही थी। उन्हें एम्स, दिल्ली ले जाना एकमात्र विकल्प दिखाई दे रहा था। ऐसे समय दिग्विजय सिंह ने सदाशय का परिचय देते हुए उन्हें शासकीय विमान से दिल्ली भेजने की व्यवस्था की। स्वाभाविक था कि हम उनके प्रति कृतज्ञता अनुभव करते, तथा महंतजी के साथ बातचीत में जो विश्वास जागृत हुआ था उसमें वृद्धि होती। 

अफसोस कि एक साल बीतते न बीतते हमें व्यवहारिक धरातल पर जो अनुभव हुआ वह हमारी अपेक्षा तथा विश्वास से विपरीत दिशा में था। कुछेक व्यवसायिक घरानों द्वारा संचालित पत्रों के अलावा एक नए-नए प्रारंभ हुए अखबार को प्रचुर मात्रा में सरकारी विज्ञापन मिलने लगे व देशबन्धु की अवहेलना होने लगी तो समझ ही नहीं आया कि ऐसा क्यों हो रहा हो! सच तो यह है कि अपने प्रति इस सरकारी बेरुखी का सबब आज भी मेरे लिए एक पहेली ही है। क्या इसका यह कारण था कि शायद तब तक दिग्विजय सिंह ने एक अनोखा निर्णय लेते हुए अपने पास एक भी विभाग न रख अपने विश्वासपात्र अधिकारियों पर सारा कामकाज छोड़ दिया था? बाबूशाही सोच का उन दिनों का एक उदाहरण याद आता है। मैं ठंड के मौसम में दिल्ली-भोपाल में सामान्यत: कोट-पैंट के साथ टाई लगाता था। एक जनसंपर्क संचालक ने मेरी वेशभूषा देखकर कहा- अरे, आप तो बिल्कुल आईएएस लग रहे हैं।  गोया उस ड्रेस पर अफसरों का ही एकाधिकार हो! एक अन्य जनसंपर्क संचालक ने मुझ पर एहसान जताने की कोशिश की- आपको अधिमान्यता समिति में रख लिया है। आपके लिए अच्छा रहेगा। मैंने उनका ज्ञानवर्धन किया- मैं बारह साल से इस कमेटी में हूं। मुझे क्या लाभ होगा पता नहीं लेकिन मेरे रहने से विभाग को कोई लाभ हो सके तो आप देख लीजिए। मेरा उत्तर सुनकर वे झेंप गए। इन दोनों महानुभावों की पदस्थापना तो मुख्यमंत्री ने ही की थी। अगर ऐसे अधिकारियों के निर्देश से देशबन्धु के विज्ञापनों में कटौती हुई हो तो दोष किसे दिया जाए?

लेकिन मुझे संदेह होता है कि मामला इतना सीधा नहीं था। दरअसल, एलपीजी (उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) की अवधारणा जिसने 1980 के आसपास भारतीय राजनीति में सेंध लगाना शुरू किया था, दस साल बीतते न बीतते उसका दमदार हस्तक्षेप हमारे नागरिक जीवन के लगभग हर पहलू में होने लगा था। समाचारपत्र व्यवसाय भी उसकी चपेट में आ चुका था। अखबार में संपादक नामक संस्था विलोपित हो रही थी तथा पूंजीपति मालिकों के नुमाइंदे पत्रकार बन सत्ताधीशों से रिश्ते बनाने लगे थे। राजनेता हों या अफसर, उनके दैनंदिन कार्य इन नुमाइंदों की मार्फत सध जाते थे। उधर मालिकों के साथ उनकी व्यापारिक भागीदारी आम बात हो गई थी। दोनों पक्षों के लिए यह इसमें फायदा ही फायदा था। इस अभिनव व्यवस्था में वह अखबार इनके लिए गैर उपयोगी ही था, जिसका कोई अन्य व्यवसायिक हित न हो और जिसकी रुचि ईवेंट मैनेजमेंट की बजाय मुद्दों की पत्रकारिता करने में हो। कहना होगा कि दीर्घकालीन संबंधों की जगह तात्कालिक लाभ पर आधारित रिश्तों को तरजीह मिलने लगी थी। यह बदलाव हमारी समझ में तुरंत नहीं आया।

अपनी नासमझी का किंचित अहसास मुझे 1996 के लोकसभा चुनाव के थोड़े पहले हुआ। दिग्विजय सिंह रायपुर प्रवास पर आए। रात उनका फोन आया कि क्या कल सुबह मैं चाय पर आ सकूंगा। न कहने का सवाल ही नहीं था। दूसरे दिन मैं नियत वक्त पर सर्किट हाउस पहुंच गया। मेरे पहुंचने के पहले एक उदीयमान नेता घर से एक बड़े टिफिन में नाश्ता लेकर आए थे। दिग्विजय ने उनको रवाना किया और मुझसे मुखातिब हुए। चाय पीते-पीते उन्होंने मुझसे कहा- चुनाव में आपका समर्थन चाहिए। मैंने उत्तर दिया- एक सीट छोड़कर। सुनकर उनकी मुखमुद्रा कुछ बदली, फिर जोर से हंसते हुए बोले- अरे, उस सीट की बात कौन कर रहा है। यह एक सीट सतना की थी जहां से इस बार अर्जुनसिंह तिवारी कांग्रेस की टिकट पर किस्मत आजमा रहे थे। सर्किट हाउस से लौटते समय मैंने सोचा कि चुनाव में तो हम सामान्यत: कांग्रेस का ही समर्थन करते हैं। दिग्विजय भी यह जानते हैं फिर उन्होंने यह बात मुझसे क्यों की! तभी जैसे बिजली कौंधी और मुझे समझ आया कि वास्तव में वे इस एक सीट पर ही समर्थन की गारंटी चाहते थे, क्योंकि हमारा झुकाव अर्जुनसिंह की तरफ था। दिग्विजय सिंह ने उस क्षण भले ही बात को हंसकर टाल दिया हो, लेकिन वे भीतर से कहीं आहत अवश्य हुए जिसका परिणाम हमें आने वाले दिनों में देखने मिला। (अगले सप्ताह जारी)

Saturday, 31 October 2020

कविता: सम्राट के नए कपड़े और हिरोशिमा

 


कुरिहारा सदाको


गोल, चमकदार चेहरा

पसीनेे से चमकता हुआ,

नए कपड़ों में लिपटा सम्राट,

उसकी नाभिकीय बटन

साफ-साफ दिखती हुई, कहती हुई

कि वह हिरोशिमा आ रहा है,

कहता है वह कि

अणुबम स्मारक पर पेश करना है

उसे अपनी श्रद्धांंजलि,

क्या सचमुच वह

अपनी नाभिकीय बटन खोले हुए

स्मारक के सामने खड़े हो कह सकता है कि

गलती अब दोहराई नहीं जाएगी?


नए कपड़ों में लिपटा सम्राट

जो कहता है कि

जो नहीं है वह है, और

जो है वह नहीं है, और

झूठ और मक्कारी को

तब्दील कर देता है

राजकीय नीति में,


वह कहता है

वह आ रहा है

नाभिकीय बटन और

बहुत सी चीजों के साथ

हिरोशिमा में,

न सिर्फ बच्चे, बल्कि

बूढ़े आदमी भी, स्त्री, पुुरुष

हंसते हैं, गुस्साते हैं

गोलमटोल सम्राट के

नाभि-बटन मसखरेपन पर,


अप्रेल में वह युद्ध स्मारक पर

श्रद्धांजलि अर्पित करता है और

अगस्त में

अणुबम स्मारक पर,

झूठ पर झूठ बोलते हुए प्रतिदिन

समुद्र के पार देशों में वह

वही कहता है

जो वे सुनना चाहते हैं,

यहां अपने घर में, अपने लोगों के सामने

वह कहता है कि

जो नहीं है वह है और

जो है वह नहीं है,

लेकिन हिरोशिमा

तुम्हारे झांसे में नहीं आएगा,

ओह, तुम 2 लाख मृतक

सामने आओ, समवेत.

उठो अपनी कब्र से,

ज़मीं के नीचे से उठो,

जले हुए सूजे चेहरे,

काले और फफोले पड़े चेहरे,

कटे हुए ओंठों को कहने दो-

हम यहां भर्त्सना करने के लिए खड़े हैं

बढ़ो आगे धीरे-धीरे

बांहों को ऊपर उठाए,

जल चुकी त्वचा को घसीटते हुए,

कहो तुम उनसे-

नए कपडों में लिपटे सम्राट और

उसके साथी संगातियों से-

कि छह अगस्त के मायने क्या हैं। 


कुरिहरा सदाको 

(Kurihara Sadako)

अंग्रेजी रुपांतर-रिचर्ड माइनियर

(Prof Richard Minear)

जापान अध्ययन केंद्र,

मिशिगन विश्वविद्यालय, सं.रा.अमेरिका

Wednesday, 28 October 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 21

 


अविभाजित मध्यप्रदेश में तीन बार गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं, क्रमश: 1967, 1977 और 1990 में । इनके बाद 2003 में मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में फिर एक बार जो गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं तो कुछ इस तरह कि अगले पंद्रह साल तक कांग्रेस उन्हें हिला नहीं पाई। दोनों प्रदेशों में फर्क यही रहा कि जहां छत्तीसगढ़ में इस अवधि में एकमात्र डॉ रमन सिंह को लगातार तीन बार मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला, वहीं मध्यप्रदेश ने उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराजसिंह चौहान इस तरह तीन-तीन मुख्यमंत्रियों का राज देख लिया। 2018 के विधानसभा चुनावों में लंबी प्रतीक्षा के बाद कांग्रेस को सत्ता में आने का मौका मिला, लेकिन मध्यप्रदेश में कमलनाथ बमुश्किल तमाम मिली इस जीत को सम्हाल कर नहीं रख सके। इसके कारण जो भी रहे हों। वैसे अधिकतर प्रेक्षकों की राय है कि नाम भले ही कमलनाथ का रहा हो, सरकार कोई और ही चला रहा था। दो साल पूरे होने के पहले ही उनकी कुर्सी चली गई तथा शिवराजसिंह के नेतृत्व में वहां पांचवीं बार गैर-कांग्रेसी सरकार सत्ता में आ गई। गौरतलब है कि जहां 1967 में संविद नामक गठबंधन ने सत्ता हथियाई थी, वहीं 1977 में सरकार बनाने का मौका जनता पार्टी को मिला था, जबकि 1990 और 2003 तथा उसके बाद अन्य कोई दल न होकर एकमेव भारतीय जनता पार्टी ही सत्तासीन रही है।

1967 में लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव आखिरी बार साथ-साथ संपन्न हुए थे। लोकसभा में कांग्रेस को कामचलाऊ बहुमत मिला था, गो कि विधानसभा में सर्वत्र उसे विजय मिली थी। इस दौर में डॉ राममनोहर लोहिया द्वारा दिए गए गैरकांग्रेसवाद के नारे ने सारे विपक्षी दलों को बेहद आकर्षित किया था। उनके मन में बैठ गया था कि अगर सत्ता सुख भोगना है तो उन सबको कांग्रेस के खिलाफ़ साथ आना ही पड़ेगा। इस सोच के तहत अनेक राज्यों में संविद अर्थात संयुक्त विधायक दल का गठन हुआ। जहां कांग्रेस के खिलाफ़ संख्या बल में कमी थी, वहां दलबदल को प्रोत्साहित किया गया तथा अभूतपूर्व उत्साह के साथ खिचड़ी सरकारें बनाईं गईं। शेर और बकरी एक घाट पर आ मिले। उत्तर प्रदेश की संविद सरकार में जनसंघ के साथ समाजवादी दल ही नहीं, भाकपा और माकपा के विधायक भी मंत्री बने। भाकपा के झारखंडे राय तथा माकपा के रुस्तम सैटिन के नाम मुझे अभी तक याद हैं। डॉ लोहिया के इस कांंग्रेस विरोधी प्रयोग की परिणति धुर दक्षिणपंथी जनसंघ/ भाजपा के दिनोंदिन मजबूत होने व समाजवादी तथा साम्यवादी दलों के उसी अनुपात में अशक्त होते जाने में हुई। यह हम और आप आज देख ही रहे हैं।

मध्यप्रदेश में भी श्रीमती विजयाराजे सिंधिया के उत्कट परिश्रम व संसाधनों की बदौलत बड़े पैमाने पर दलबदल हुआ। इन दलबदलुओं में कुछ पुरानी रियासतों के वारिस थे तो कुछ उनके दरबारी या सेवक। ये सभी सामंती परंपरा व  शिष्टाचार के चलते स्वाभाविक रूप से श्रीमती सिंधिया के दवाब में थे। इस तरह संविद सरकार बनी। कहने को यह गैर-कांग्रेसी सरकार थी लेकिन इसके मुखिया एक पूर्व कांग्रेसी और विंध्यप्रदेश के छोटे-मोटे सामंत गोविंद नारायण सिंह बनाए गए। मंत्रियों में भी अनेक पूर्व कांग्रेसी थे। लोहियावादी सोच का प्रतिनिधित्व करने वालों में मुझे अनायास एक मंत्री का ध्यान आ रहा है जो समाजवादी पार्टी के कोटे से लिए गए थे। इंदौर के आरिफ बेग आगे चलकर भाजपा में शामिल हो गए और पार्टी द्वारा यथेष्ट रूप से पुरस्कृत किए गए। दलबदल का पुरस्कार उन्हें खाद्य मंत्री बना कर दिया गया था। रायपुर के विधायक पूर्व कांग्रेसी शारदाचरण तिवारी इस सरकार में वरिष्ठ मंत्री थे। उन्होंने एक नए दल के बैनर पर चुनाव लड़ा व जीता था। इसलिए तकनीकी रूप से वे दलबदलू नहीं थे। संविद सरकार के दौरान प्रदेश का प्रशासन तंत्र पूरी तरह लुंज-पुंज हो गया था। इस सरकार की रीति-नीति का विरोध करने के कारण देशबंधु को जो कष्ट झेलना पड़े, उनका उल्लेख इस लेखमाला के पहले खंड "देशबन्धु के साठ साल" में हो चुका है। गनीमत थी कि यह सरकार दीर्घावधि नहीं चली। 

1977 में एक ओर जहां जनता पार्टी ने केंद्र से कांग्रेस को अपदस्थ किया, वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश में भी संविद के इस नए अवतार को बहुमत हासिल करने का अवसर मिला। लगभग एक दशक के अंतराल के बाद दूसरी बार एक गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। इसमें जनसंघ के अलावा मुख्यत: समाजवादी पार्टी ही दूसरा घटक दल था। मुख्यमंत्री का पद बड़े घटक जनसंघ के वरिष्ठ नेता कैलाश जोशी को मिला, लेकिन अपने दल के भीतर चल रही खींचतान के कारण वे लगभग सात माह ही इस पद पर रह पाए। उल्लेखनीय है कि जनसंघ का प्रभाव मालवा अंचल यानी कि पश्चिमी मध्यप्रदेश में ही अधिक था। लगभग तीन साल की अवधि में पार्टी के जो तीन मुख्यमंत्री  बने वे सभी मालवा से थे। कैलाश जोशी को अल्पावधि में ही पद त्याग करना पड़ा तो उसका मुख्य कारण मेरी राय में यही था कि सत्ता पाने या सत्ता में बने रहने के लिए जो कुटिलता और निर्ममता दरकार होती है, वे उससे कोसों दूर थे। इसके विपरीत वे संबंधों को निभाने में विश्वास रखते थे। मैंने इस लेखमाला के पहले खंड में जिक्र किया है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद जब वे पहली बार रायपुर आए तो विमानतल पर हमारे संवाददाता से उन्होंने पूछा कि मायारामजी कहाँ है। यह जानकर कि वे जबलपुर में हैं, जोशीजी ने कहा कि हम तो उनके घर भोजन करने आए थे। परिणाम यह हुआ कि उनके अगले रायपुर दौरे के समय बाबूजी ने अपने सारे कार्यक्रम स्थगित कर दिए और जोशीजी हमारे घर भोजन हेतु आए। 

ऐसे निश्छल, उदार व्यक्तित्व के धनी राजनेता के साथ उनकी पार्टी ने सामान्य समय में भी कैसा सुलूक किया, उसका एक उदाहरण मेरे सामने का है। 1997-98 में हमने मायाराम सुरजन फाउंडेशन के अंतर्गत स्वाधीनता की स्वर्ण जयंती पर एक व्याख्यानमाला का आयोजन किया था। इसमें जोशीजी को भी आमंत्रित किया तो सहज भाव से उन्होंने स्वीकार कर लिया। कार्यक्रम के एक दिन पहले मालूम हुआ कि रायपुर में भाजपा का अपने वरिष्ठतम नेता के स्वागत का कोई इरादा नहीं है। तब मैंने नगर विधायक बृजमोहन अग्रवाल से कहा कि कम से कम उन्हें तो स्वागत हेतु स्टेशन चलना चाहिए।बृजमोहन ने मेरी बात का मान रखा। अगले दिन छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पर भाजपा की ओर से अकेले वे ही जोशीजी की अगवानी के लिए उपस्थित थे। एक लंबा समय बीत गया। जोशीजी भोपाल से भाजपा टिकट पर लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। छोटे भाई पलाश ने उनसे मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के पुस्तकालय हेतु सांसद निधि से सहयोग का निवेदन किया। जोशीजी ने तुरंत समुचित धनराशि का आबंटन कर दिया। आज जब राजनीति में हर तरफ संकीर्णता बढ़ती जा रही है, तब कैलाश जोशी जैसे व्यक्ति की अनुपस्थिति पहले से कहीं अधिक खटकती है।

मध्यप्रदेश में जनता पार्टी या जनसंघ की सत्ता के इस दौर में कैलाश जोशी के बाद वीरेंद्र कुमार सकलेचा व उनके बाद सुंदर लाल पटवा मुख्यमंत्री बने। सकलेचाजी को एक साल और पटवाजी को एक माह से भी कम समय मिला। सुंदरलाल पटवा 1990 में मुख्यमंत्री बनकर लौटे व इस बार तीन साल सत्तारूढ़ रहे। सकलेचाजी के बारे में मैं पहले लिख चुका हूं। पटवाजी के संबंध में मेरा अनुभव है कि दलीय सीमाओं के बावजूद वे एक व्यवहारकुशल व्यक्ति थे। उनके कार्यकाल में ही सरगुजा में भूख से मौत की खबर एकमात्र देशबंधु में छपी जिसकी देशव्यापी प्रतिक्रिया हुई किंतु पटवाजी ने उसे भी अन्यथा नहीं लिया। वे जब केंद्र में मंत्री बने तब भी मेरी उनसे दो-एक बार मुलाकात हुई और हर बार सौजन्यपूर्ण वातावरण में। सुश्री उमा भारती ने 2003 में मध्यप्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनकर एक रिकॉर्ड स्थापित किया। उन दिनों हमने बालाघाट में बतौर प्रयोग अखबार की फ्रेंचाइजी किसी को दी थी। चुनाव अभियान के दौरान बालाघाट संस्करण में देशबंधु की स्थापित नीति की अनदेखी कर सुश्री उमा भारती के विरुद्ध एक रिपोर्ट छप गई। मैंने जैसे ही अखबार देखा, फ्रेंचाइजी तुरंत निरस्त की और किसी खंडन-मंडन की प्रतीक्षा किए बिना अपनी ओर से अखबार में वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हुए सुश्री भारती से क्षमा याचना की। वैसे उनके साथ पहले या बाद में मेरा कोई संपर्क नहीं रहा। उनके उत्तराधिकारी बाबूलाल गौर से हमारा परिचय 1974 से था जब वे पहली बार चुनाव मैदान में उतरे थे। उनके बाद शिवराजसिंह चौहान से मुख्यमंत्री बनने के कुछ दिन बाद जो एक औपचारिक मुलाकात हुई, वह पहली और अब तक की आखिरी भेंट सिद्ध हुई।  (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 29 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित

Monday, 26 October 2020

कविता: अगर इस जनम में


 
कैमेरॉन पैनी
16 वर्षीय छात्र (2005)
 मिशिगन, यूएसए 

अगर इस जनम में
किस्मत ने तुम्हारा साथ दिया तो
एक खिड़की खुलेगी
लड़ाई के मैदान में
दो सेनाओं के बीच,

और जब सिपाही
खिड़की से झाँकेंगे तो
उन्हें दुश्मन नजर नहीं आएंगे,
वे वहाँ अपने बचपन को देखेंगे,

और वे लड़ना बंद कर देंगे
घर लौट जाएंगे
एक मीठी नींद सोने के लिए,
और जब उठेंगे तो पाएंगे
धरती के घाव भर गए हैं।

मूल अंग्रेज़ी- कैमेराॅन पैनी
(Cameron Penny)

अंग्रेजी से रुपांतर  : ललित सुरजन
2009

Voices in Wartime

This poem by fourth-grader Cameron Penny was read by Marie Howe in the very beautiful film, “Voices in Wartime,” directed by Rick King and distributed by Cinema Libre Studio. Sometimes harsh and brutal and sometimes very moving, this film tells a personal story of war through poetry and the spoken word from the point of view of the soldier and from the point of view of those at home.

To learn more about this film visit: www.voicesinwartime.org

“If you are lucky in this life
A window will appear on a battlefield between two armies
And when the soldiers look into the window
They don’t see their enemies
They see themselves as children
And they stop fighting
And go home and go to sleep
When they wake up, the land is well again.”

कविता: मौत का कारोबार

 


तुम्हारा हृदय

छलनी हो जाना चाहिए,

तुम्हारा जिस्म काँपना चाहिए,

और तुम्हारा बदन पसीने से नहाना चाहिए

उस वक्त जब तुम

युद्ध में किसी को अपने निशाने पर लेते हो,

तुम्हारी दी हुई यह मौत

तुम्हारा दु:स्वप्न बन जाना चाहिए

गोया कि तुम किसी

ऐसे बियाबान में पटक दिए गए हो

जहाँ से लौटना नामुमकिन हो,

इस मौत के नतीज़े तुम्हारी

धमनियों में पैबस्त हो जाना चाहिए ,

भले ही साहस जुटाने के लिए

तुमने कितने ही आसव क्यों न पिए हों,

और इससे क्या फर्क पड़ता है कि

कौन सा ईश्वर तुम पर मुस्कुरा रहा है,

या इस बात से कि

तुम्हारी कसी मुठ्ठियों में कितना दर्द 

और कितना गुस्सा

समाया हुआ है, मेरे दोस्त !


जब तुम किसी को मारो तो

खुद तुम्हारा हृदय

छलनी हो जाना चाहिए ,

क्योंकि मौत का कारोबार

कभी भी उतना आसान

नहीं होना चाहिए ।


मूल अंग्रेज़ी- ब्रायन टर्नर 

(Brian Turner)


अंग्रेजी से रुपांतर-ललित सुरजन

2009

Wednesday, 21 October 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 20

 

माधवराव सिंधिया का नाम मैंने पहले-पहल 1958 में ग्वालियर में सुना, जहां वे ऊपर किले में स्थापित सिंंधिया स्कूल में विद्यार्थी थे। मैैं कुछ समय पूूर्व ही नागपुर से ग्वालियर पहुंचा था और बुआजी के बेटे अनुपम भैया के साथ नीचे नगर में स्थित जीवाजीराव इंटर कॉलेज में दाखिला लिया था। याद नहीं कि उनका नाम कब किनसे सुना लेकिन आखिरकार वे ग्वालियर रियासत के युवराज थे और अनुमान लगाना गलत न होगा कि छात्रों के बीच अपने इस हमउम्र किशोर के बारे में कौतूहल पूर्ण चर्चाएं होती होंगी! यह तो बहुुत बाद में पता लगा कि नागपुर के हमारे स्कूल मित्र बालेंदु शुक्ल ने भी उसी समय सिंधिया स्कूल में प्रवेश लिया था। वे आगे चलकर राजनीति में आए। उनकी  एक खास पहचान माधवरावजी के बालसखा के रूप में बनी। हम जब ग्वालियर आए तब नए मध्यप्रदेश के गठन को मात्र दो साल हुुए थे। पूर्व महाराजा जीवाजीराव सिंधिया, मध्यप्रदेश में विलीन तत्कालीन बी क्लास मध्यभारत राज्य, के राजप्रमुख पद से निवृत्त हो चुके थे। पूर्व महारानी विजयाराजे सिंधिया यद्यपि कांग्रेस टिकट पर गुना से लोकसभा सदस्य थीं लेकिन मेरी स्मृति में दोनों की राजनीतिक सक्रियता का कोई प्रसंग मौजूद नहीं है। ग्वालियर में उन दिनों दो बड़े सालाना जलसे होते थे- ग्वालियर मेला और तानसेन समारोह। इनमें ये कभी आए हों तो मुुझे ध्यान नहीं है। विभिन्न पार्टियों से नरसिंह राव दीक्षित, रामचंद्र सर्वटे, राजा पंचमसिंह पहाड़गढ़, नारायण कृष्ण शेजवलकर, रामचंद्र मोरेश्वर करकरे, सरदार जाधव जैसे कुछ नाम ही सुनने मिलते थे। भिंड से विधायक दीक्षितजी काटजू सरकार में गृहमंत्री थे और शायद उस दौर में ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के सबसे प्रभावशाली नेता थे।

श्रीमती विजयाराजे सिंधिया 1962 में दुबारा कांग्रेस की ओर से ग्वालियर सीट से लोकसभा के लिए चुनी गईं थीं। पाठकों को संभवत: याद हो कि डॉ. राम मनोहर लोहिया ने उनके विरुद्ध सफाई कामगार समुदाय की सुक्खो नामक महिला को मैदान में उतारा था। बहरहाल, उनकी राजनीतिक सक्रियता यहां से लगातार बढ़ती गई। 1967 में उन्होंने पहली बार दलबदल कर स्वतंत्र पार्टी उम्मीदवार के रूप में लोकसभा चुनाव जीता लेकिन चंद दिनों बाद उन्होंने एक बार फिर दल बदला व जनसंघ की ओर से चुनाव लड़ विधानसभा में प्रवेश किया। उनके पदचिन्हों पर चलते हुए चार साल बाद अर्थात 1971 में  संपन्न आम चुनाव में माधवराव सिंधिया भी जनसंघ टिकट पर जीत दर्ज कर राजनीति में आ गए। इसके पश्चात तीन आम चुनाव और बीत गए जिनमें श्री सिंधिया एक बार निर्दलीय और दो बार कांग्रेस टिकट पर विजयी हुए किंतु न जाने क्यों उनके साथ परिचय या संवाद का कोई संयोग लंबे समय तक नहीं बना। सन् 1985 में  फोन पर ही पहली बार उनसे बात हुई जिसका माध्यम बने उनके मित्र और सहयोगी महेंद्र सिंह कालूखेड़ा। एक साल पहले राजीव गांधी की नितांत अभिनव पहल व व्यक्तिगत रुचि से इनटैक (इंडियन नैशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज) अर्थात भारतीय सांस्कृतिक निधि की स्थापना की गई थी। राजीवजी को इसका विचार इंग्लैंड के नेशनल ट्रस्ट को देखकर आया था जो वहां सांस्कृतिक/ सामाजिक/ शिल्पगत/ ऐतिहासिक महत्व की लाखों इमारतों का संरक्षण करता है। राजीव गांधी के साथ माधवराव सिंधिया इनटैक के संस्थापक सदस्यों में एक थे।

इस नवगठित प्रतिष्ठान के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए देश के सभी प्रदेशों व जिलों में उसके अध्याय स्थापित करने की योजना बनी। अनेक स्थानों पर पूर्व सामंत, आईएएस अधिकारी आदि जिला अध्याय के संयोजक मनोनीत किए गए। लेकिन रायपुर की जिम्मेदारी मुझ पर डाल दी गई, जिसकी अनुशंसा संभवत: महेंद्र सिंह जी ने ही की होगी! यहां सिंधियाजी के साथ जो संबंध बने उनका निर्वाह राजनीति से परे निजी स्तर पर अंत तक होता रहा। मेरी पहली प्रत्यक्ष भेंट उनसे तब हुई जब वे मंत्री भी नहीं बने थे। देशबन्धु के तत्कालीन दिल्ली ब्यूरो प्रमुख को किसी निजी प्रसंग में सिंधियाजी की सहायता से काम बन जाने का भरोसा था सो उनके आग्रह पर मैंने उनसे मिलने का समय लिया, उन्हें काम बताया और उन्होंने उदारता का परिचय देते हुए मदद कर दी। इधर इनटैक के समस्त संयोजकों का तीन-दिनी पहला सम्मेलन 1986 में भुवनेश्वर में आयोजित करना तय हुआ। इसमें रायपुर से संभागायुक्त शेखर दत्त व मैंने भागीदारी की। शेखर भाई कुछ माह पहले रायपुर पदस्थ हुए थे तथा इनटैक मुख्यालय ने संयोजक का दायित्व उन्हें सौंप दिया था। इस बीच सिंधियाजी केंद्र में स्वतंत्र प्रभार के साथ रेल राज्यमंत्री बन चुके थे। उन्होंने इनटैक सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में शिरकत करने के अलावा अनेक विभागीय कार्यक्रमों में भी भाग लिया जिनमें रेल मंत्रालय की राजभाषा समिति की भी एक बैठक थी। मंत्रीजी ने भांति-भांति के हिंदीसेवियों के साथ सुप्रसिद्ध कवि (स्व) चंद्रकांत देवताले तथा मुझे भी इस समिति का सदस्य हमारे बिना जाने ही मनोनीत कर दिया था। जैसी कि अधिकांश सरकारी कमेटियों की बैठकें होती हैं वैसी ही यह बैठक भी निबट गई।

लेकिन मैं नोट करना चाहूंगा कि यह मनोनयन मेरे प्रति सिंधियाजी के सद्भाव का एक उदाहरण था। श्री सिंधिया के साथ मेरी इक्का-दुक्का मुलाकातें चलती रहीं। एक बार रेल भवन के उनके कक्ष में भेंट हुई तो वे दीवाल पर लगे बड़े से मानीटर पर रेलगाड़ियों की आवाजाही का अवलोकन कर रहे थे। कहना न होगा कि तब रेल मंत्रालय के कामकाज को आधुनिक तकनीकी के उपयोग से व्यवस्थित रूप देने के लिए इस युवा मंत्री की खूब सराहना होने लगी थी। वे बातचीत कर रहे थे, फाइलें निबटा रहे थे और स्क्रीन पर भी नजर रख रहे थे। इसी बीच साथी मंत्री सलमान खुर्शीद आ गए तो उनसे भी मेरा परिचय करवाया। यह घटना यूं ही याद आ गई। इस मुलाकात के कुछ सप्ताह बाद ही उनकी सुपुत्री चित्रांगदा का विवाह दिसंबर 1987 में डॉ. कर्ण सिंह के सुपुत्र अजातशत्रु के साथ संपन्न हुआ। इस शाही विवाह की चर्चा भारत तो क्या, विदेशों तक में हुई। यह वही समय था जब मध्यप्रदेश की राजनीति में मोतीलाल वोरा- माधवराव सिंधिया की जोड़ी अर्जुनसिंह के खिलाफ़  खुलकर सामने आ गई थी। कांग्रेस के भीतर सिंधिया विरोधियों को अच्छा मौका मिला कि जनतांत्रिक व्यवस्था में एक मंत्री के द्वारा राजसी ठाट-बाट के साथ अपनी बेटी का विवाह किए जाने को सार्वजनिक निंदा का मुद्दा बनाएं। श्री सिंधिया स्वाभाविक ही इस घटनाक्रम से व्यथित हुए। उन्होंने मुझे फोन कर आग्रह किया कि मैं वस्तुस्थिति का जायजा लेने किसी पत्रकार को ग्वालियर भेजूं। उसके बाद जैसा ठीक लगे वैसा समाचार देशबन्धु में छप जाए। उन दिनों देश के कई नवधनाढ्यों के बीच वैवाहिक समारोहों आदि में वैभव के उन्मुक्त प्रदर्शन की मानों होड़ लगी थी। इस पृष्ठभूमि का संज्ञान लेते हुए हमने रिपोर्टिंग की। सिंधिया खानदान के तीन सौ साल के इतिहास व ग्वालियर अंचल में रियासती राज खत्म हो जाने के बावजूद उसकी प्रतिष्ठा तथा लोकप्रियता को देखते हुए उक्त विवाह समारोह में जो प्रबंध किए गए उसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था। यद्यपि सादगी बरती जाती तो एक अनुकरणीय आदर्श स्थापित होता। 

मेरे निमंत्रण पर सिंधियाजी मायाराम सुरजन फाउंडेशन में व्याख्यान देने 1998 में रायपुर आए। उन्हें देखने-सुनने मेडिकल कॉलेज सभागार में भीड़ उमड़ पड़ी थी। इस कार्यक्रम में अजीत जोगी भी उनके साथ थे। कार्यक्रम के बाद सिंधियाजी हमारे घर भोजन के लिए आए, जहां नगर के अनेक बुद्धिजीवियों से उनका मिलना हुआ। यह दिलचस्प तथ्य है कि एक समय वह भी आया जब अर्जुनसिंह और सिंधिया दोनों नरसिंहराव के खिलाफ़ एकजुट हुए। अभी वह हमारी चर्चा का विषय नहीं है।

सिंधियाजी से मेरी आखिरी भेंट लोकसभा के उनके कक्ष में हुई। वे उस रोज मुझे बहुत उदास लगे। कॉफी पीते-पीते उन्होंने कहा- ललितजी, अब सब तरफ से मन ऊब गया है। लगता है जितना जीवन जीना था जी चुके हैं। मैंने उन्हें टोकते हुए कहा- ऐसा क्यों कहते हैं। आप और हम एक उम्र के हैं। अभी तो हमारे सामने लंबा समय पड़ा है। आपको तो अभी न जाने कितनी जिम्मेदारियां सम्हालना है। यह प्रसंग जून-जुलाई 2001 का है। दो माह बाद ही 30 सितंबर को विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो ग्ई। मैं आज भी सोचता हूं कि क्या उन्हें मृत्यु का पूर्वाभास होने लगा था!! (अगले सप्ताह जारी) 

#देशबंधु में 22 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित

Monday, 19 October 2020

1) मेरे और मेरे भाई के जूते 2)सिपाही भाई

 

- सारा काउंटर


मैं सोचती हूँ कि

मेरे जूतों पर जमी

धूल की परत

तुम्हें क्या बता सकती है?

क्या इसका कोई सुराग कि

ये जूते मुझे

कहाँ-कहाँ ले गए थे?

या यह कि

यहाँ तक पहुंचने के लिए

मुझे क्या-क्या झेलना पड़ा?

क्या ये बताते हैं कि

तस्मों में बँधे-बँधे

जूते पैरों से ऊपर

क्या-कुछ देख पाए?

या कि उन्हें पहिन कर

मैं कितना इठलाई या

मुझे पंख लग गए?


मैं सोचती हूँ कि

मेरे भाई के जूतों पर जमी

धूल की परत

तुम्हें क्या बता पाती है?

कि समय की सड़क पर चलते हुए

वह किस जंगल में जा पहुँचा,

या फिर किसी मरुस्थल में

एक भीषण निर्दयी युद्ध में

धकेल दिया गया?


क्या ये जूते बताते हैं कि

मेरा भाई किस तरह

आराम करता है,

ऐसे बिस्तर पर जो

उसका नहीं है?

और क्या ये सुन पाते हैं

उसके सपनों की बड़बड़ाहट कि

वह किस कदर

घर लौटने के लिए बेताब है?

मैं सोचती हूँ कि

चमकदार पॉलिश और

फुसफुसाती ध्वनि वाले जूते

और क्या बता सकते हैं?


क्या वे आधी रात को

आधी नींद से उठे,

पसीने में नहाए,

बच्चे की तरह घबराए,

चीख सकते हैं कि

देखो, आलमारी में

कोई जिन्न छुपा है?

या फिर वे

सावधान की मुद्रा में

बाकायदा खड़े रहेंगे

सीधे सामने ही देखेंगे और

अपने मिशन पर

कायम रहेंगे?


क्या वे तुम्हें

मेरे भाई की बंदूक से

डरने के लिए कहेंगे?

या वे तुम्हें चेताएंगे कि

कैसे मेरे भाई को

मजबूर कर दिया गया

प्रशिक्षित हत्यारा बनने के लिए?


या फिर वह

हमेशा की तरह

मेरा नन्हा भाई ही है

हर जगह मेरे जूतों के

पीछे चलते हुए

मेरी तेज़ रफ्तार के साथ

कदम मिलाने की

कोशिश करते हुए?

या फिर

मेरे जूते और उसके जूते

आखिरकार

अलग हो जाते हैं?


ज़िंदंगी के रास्तों पर चलते हुए

हम किसी मोड़ पर

पुराने दोस्तों की तरह मिलते हैं,

हमारे पैरों में

जूते अलग-अलग होते हैं,

लेकिन हमारे सपने तो

वही हैं, एक जैसे कि


घास के मैदान में

हम इत्मीनान के साथ घूमें,

और थक जाएं तो

किसी पुराने पेड़ की

सघन छाया में

कुछ देर आँखें मूँद

विश्राम कर लें,


और तब हमारे जूते भी

साथ-साथ हों,

एक दूसरे से बतियाते हुए

हॅसते हुए, खिलखिलाते हुए

दोस्ताना निभाते हुए,

हमारे जूते

आखिरकार एक साथ ।


2009


===/======/===//==========//=====/

ठंडा पसीना

मेरे माथे पर छलछलाता है,

मेरे गालों पर बहता है,

मैं भयभीत हूँ क्योंकि

तुम उस जगह तैनात हो,

वहाँ तुम शायद भय पर

विजय पा सकते हो या शायद

कभी मैं ही

अपने डर को काबू कर सकूं?

मैं जब सोचती हूँ कि

तुम सात समुंदर पार हो, तभी

एक आवाज़ गूंजती है-

भड़ाक!

और फिर- धड़ाम!


क्या तुम जल्दी घर लौटोगे?

और क्या तुम सही-सलामत लौटेगे

वैसे के वैसे, बिना बदले ?

हम बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे

गर वैसा नहीं हुआ तो,

और फिर हम दौड़ेंगे, खेलेंगे,

अपने बचपन के खेल,

रुठेंगे, मनाएंगे, खिलखिलाएंगे

और खेलेंगे बचपन के खेल-

गोलियों की आवाज़

सरसरा कर बाजू से गुजरती हुई,

सरकंडे से बनी हमारी बंदूकें

और रेत से बने हमारे दुर्ग ,

नहीं, देह चीर देने वाली

गोलियाँ कहीं नहीं होंगी आसपास,

खेलेंगे हम और दौड़ेंगे, तुम कहोगे-

मैं बनूँगा सिपाही और

तुम मुझे पकड़ नहीं पाओगी ,

खेलेंगे हम और हँसेगे

अपने निराले अंदाज़ में

जब तुम उस छत को

टटकटकी लगाकर निहारते हो

जो तुम्हारी नहीं है

और जब मैं

अपनी खिड़की से बाहर देखती हूँ कि

तुम कब घर लौटोगे

तभी फिर,

आवाज़ गूँजती है

भड़ाक!

और फिर धड़ाम !


समय की मिसाइल

ठहरे हुए समय को

चीर कर उड़ती है, और

तुम तक पँहुचकर रुक जाती है,

और मैं जागती हूँ

एक डरावने स्वप्न से

पसीने में नहाई ,

तो मैं सचमुच तुम्हारे नजदीक थी ?

मरुस्थल की रेत

मेरे मुँह में

किरकिरा रही है ,


दौड़ो -दौड़ो,

जितनी गति से तुम

दौड सकते हो,

मैं सिपाही हूँ और

तुम मुझे पकड़ नहीं पाओगी ,


हमारा दुर्ग अब

धूल से घिरा है

एक अनजान अपरिचित

रेतीले प्रदेश में

सरकंडे से बनी तुम्हारी बंदूक

असली भारी बंदूक  मे

बदल गई है

और फोन की एक घंटी वजते  ही

मैं चमक उठती हूँ 

तुम्हारा फोन होगा

कि तुम्हें घर याद आ रहा है,

कि वे दिन,

जव हम दौड़ते और खेलते थे

अपने मासूम खेल

ओ सैनिक ! मेरे छोटे भाई !


मूल अंग्रेज़ी- सारा काउंटर

(Sarah Counter)

1 अप्रेल 2009 को रूपांतरित 


टिप्पणी: 34 वर्षीय (2009 में) सारा काउंटर, कलोना, आयोवा अमेरिका की निवासी हैं। सारा का छोटा भाई सार्जेंट वेस्ले बर्नहम तब ईराक में तैनात था।

Thursday, 15 October 2020

कविता: उठो जापान

 


कोमोरी कोको


वह सामने के दरवाजे से नहीं आता

और न दरवाजे की घंटी बजाता

जब पिता हों व्यस्त अपने व्यापार में,

और माँ बस इतना कहे कि बच्चो पढ़ो,

जब बच्चे खो बैठें दोस्तों को

भूल जाएं आपस की एकता,

मन हो उठे उनका उद्विग्न, और

हिरा जाए सोचने की  क्षमता,

जब घर के गुलशन में

बाकी न बचे रिश्तों की महक,

तब धीरे से अपने

बीज बो देता है फासीवाद,


वह आता है मुस्कान के साथ,

बच्चों की पत्रिकाओं और खिलौनों के साथ

 माँ, नाराज क्यों होती हो

ये तो सिर्फ खिलौने हैं 

जब ऐसा कहने लगें बच्चे, और

जमा होती रहें प्लास्टिक की पिस्तौलें, मॉडल

जब स्कूल की सामग्री पर भी

छपी हों युद्ध की तस्वीरें, कहानियां

पेंसिल का इस्तेमाल हो मिसाइल की तरह,

उडऩे के लिए तैयार वह आता है

वह आता है विजेता की मुद्रा में

बच्चो! पुलिस से सहयोग करो,

अपराध से दूर रहो,

अच्छी- अच्छी बातें सीखो और करो,

अच्छा है, बन जाओ स्काउट और

बेहतर होगा, कि बाद में

फौज में शामिल हो जाओ


कहता है वह इस तरह,

हमें जरुरत है नैतिक शिक्षा की,

साम्राज्य की शिक्षा नीति थी उत्तम,

बच्चों को पढ़ाना है बेहद जरुरी

कि यह है परिवार की जिम्मेदारी,

और इस तरह

माता-पिता की चिंताएं ओढ़कर

आ जाता है फासीवाद,


बोलने की आज़ादी

खत्म नहीं होती एकाएक,

दसियों बरस लगते हैं

झूठ को सच बनाने में कि

हमें आण्विक हथियार नहीं चाहिए,

कि यहां हथियारों के आयात पर है प्रतिबंध

कि सिर्फ अमेरिका को है इसमें छूट,

कि इस तरह छुपा लिया जाता है सच

अगर हम छापे के अक्षर को

देख सकते हैं साफ-साफ तो

कोशिश करें कि हम

सच को भी देख पाएं साफ-साफ

कि हमारी पथराई आंखें,

रोजमर्रा की जिंदगी से मुर्झाई आंखें

उन्हें खोलें सुबह की रौशनी की तरह,

कि हमारी नाक सूंघ सके फासीवाद को,

और हमारे शब्द हों प्रबल और निर्भीक

कि रोक सकें फासीवाद को,

कि विवेक के ये शब्द गहरे  घंस जाएं

जनता के हृदय में,


अभी ही है समय हमारे लिए

कि प्यार और जिंदगी के 

बारे में सोचें,

अभी ही है समय हमारे लिए

कि समझ लें अपनी जिम्मेदारी,

बचा लें जापान की शांति

और दुनिया का सुखचैन,

अभी ही है समय हमारे लिए

कि हम फैसला लेने तत्पर हों,

कि सच की आंखें में निर्भय झांकें

और बेहिचक कहें सही-सही बात,


उठो जापान

तैयार करो अपने आप को

और जल्दी करो

कि कहीं फिर पछताना न पड़े।


मूल जापानी- कोमोरी कोको

(Komori Koko)

अंग्रेजी रूपांतर- मिसाको हिमेनो

हिंदी रूपांतर- ललित सुरजन

( whom we say Hiroshima 1999 से साभार)

Wednesday, 14 October 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार-19

 


छत्तीसगढ़ की राजनीति के अध्येता जानते हैं कि मोतीलाल वोरा के राजनीतिक जीवन की शुरुआत राजनांदगांव से हुई थी, जब वे वहां एक निजी बस कंपनी में काम करते थे। वोराजी के बारे में सोचते-सोचते अनायास मेरा ध्यान इन बस कंपनियों से संबंधित एक लगभग अनजाने और अचर्चित पक्ष की ओर चला गया। पुराने मध्यप्रांत व बरार में सेंट्रल प्राविंसेज ट्रांसपोर्ट सर्विस  (सीपीटीएस) नामक सार्वजनिक बस सेवा चलती थी जो अपनी उत्तम सेवा के लिए जानी जाती थी। उधर मध्यभारत में भी मध्यभारत रोडवेज़ नाम से सार्वजनिक बस सेवा संचालित होती थी। जब 1 नवंबर 1956 को नए मध्यप्रदेश का गठन हुआ तब भी काफी समय तक ये दोनों सेवाएं विद्यमान रहीं। आश्चर्य का विषय है कि छत्तीसगढ़ को न इसके पहले और न इसके बाद सीपीटीएस की सेवाओं का लाभ मिला! यहां सिर्फ निजी कंपनियों को ही यात्री बस चलाने की अनुमति थी। द्वारका प्रसाद मिश्र ने मुख्यमंत्री बनने के बाद 1964 में छत्तीसगढ़ में निजी कंपनियों के एकाधिकार को तोड़ते हुए सीपीटीएस की सेवा प्रारंभ की, जिसमें रायपुर की सिटी बस सेवा भी शामिल थी। निजी कंपनियों को यह एकाधिकार कैसे मिला, उससे किन राजनेताओं को लाभ मिला, इस पर शायद आज तक कोई रिसर्च नहीं हुई है, जो होना चाहिए थी। 

खैर, वोराजी ने राजनांदगांव बस स्टैंड पर महात्मा गांधी की आवक्ष प्रतिमा लगाने का विचार किया। यह सार्वजनिक जीवन में उनका पहला कदम या एंट्री प्वाइंट था। इसे मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने बस यात्रियों व नागरिकों से आर्थिक सहयोग की अपील की। उनका यह शुभ संकल्प पूर्ण होते देर न लगी। कुछ समय बाद वोराजी शायद उसी कंपनी में तबादले पर ज़िला मुख्यालय दुर्ग आ गए। यहां भी सार्वजनिक/राजनीतिक जीवन में उनका सक्रियतापूर्वक भाग लेना जारी रहा। इस बीच वे डॉ. लोहिया की समाजवादी पार्टी (संसोपा) छोड़ कांग्रेस में आ गए थे। तब तक रायपुर अखबारों के एक नए प्रकाशन केंद्र के नाते विकसित हो चुका था। वोराजी को इनमें से किसी पत्र ने अपना संवाददाता नियुक्त कर दिया था। इसका कुछ न कुछ लाभ होना ही था। उधर बस कंपनी में भी वे प्रगति के सोपान तय कर रहे थे। मैं पहली बार जब वोराजी से उनके कार्यालय में मिला, तब वे कंपनी के प्रबंध संचालक या मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर थे। निश्चित ही वे व्यवसायिक और व्यवहारिक बुद्धि के धनी थे, किंतु उन्हें जो लोकप्रियता हासिल हुई उसका श्रेय उनकी मिलनसारिता, शालीनता व सहज आचरण को देना होगा। 

दुर्ग में मोतीलाल वोरा की राजनीतिक पारी तब की नगरपालिका के पार्षद चुने जाने के साथ हुई थी। उन्होंने नगर के विकास कार्यों के साथ सदन को विधि-विधान के अनुसार संचालित करने में भी गहरी दिलचस्पी ली। यद्यपि अपवाद स्वरूप एक अवसर आया जब उन्होंने नगरपालिका की कार्रवाई पुस्तिका के पन्ने फाड़ दिए। भावावेश में उठाए गए इस कदम के कारण उन्हें सार्वजनिक  आलोचना का सामना भी करना पड़ा। बहरहाल, उनकी छवि एक लोकप्रिय जननेता के रूप में उभर रही थी, जिसका पुरस्कार उन्हें 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस टिकट मिलने और फिर जीत के रूप में मिला। मुख्यमंत्री पी सी सेठी ने नवनिर्वाचित विधायक के व्यवसायिक अनुभव को ध्यान में रख उन्हें राज्य परिवहन निगम का उपाध्यक्ष भी जल्दी ही नियुक्त कर दिया, जहां उन्हें बेदाग छवि के वरिष्ठ विधायक व निगम के अध्यक्ष सीताराम जाजू के साथ काम करने का अवसर मिला। उनको पद दिए जाने के बारे में संभव है कि वरिष्ठ मंत्री किशोरीलाल शुक्ल की अनुशंसा रही हो, जिनकी प्रेरणा से वोराजी कांग्रेस में आए थे! विधायक वोराजी ने अपने विधानसभा क्षेत्र का हर समय ध्यान रखा तथा जनता के विश्वास को टूटने का कोई मौका नहीं आने दिया। फलस्वरूप वे 1990 तक लगातार पांच बार विधायक निर्वाचित होते रहे। 

यह सर्वविदित है कि 1985 में अर्जुनसिंह को एकाएक पंजाब भेजे जाने के बाद मोतीलाल वोरा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। उस समय वे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे और माना जाता है कि वे मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह के विश्वासभाजन थे। उन्हें मुख्यमंत्री का पद सौंपने का निर्णय अंतत: तो राजीव गांधी ने ही लिया होगा, लेकिन उसमें भी श्री सिंह की अनुशंसा या सहमति थी। पी सी सेठी, किशोरीलाल शुक्ल, अर्जुनसिंह- ये सभी कांग्रेस में एक साथ थे व वोराजी को भी उनके खेमे में माना जाता था। इसलिए राजनीतिक प्रेक्षकों को आश्चर्य हुआ जब वोराजी ने सिंधियाजी के साथ मिलकर मोती-माधव एक्सप्रेस चला दी। क्या माधवराव सिंधिया मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनना चाहते थे? शायद हां, जैसा कि कुछ साल बाद स्पष्ट हुआ। क्या वोराजी सिंधियाजी की राजीव गांधी से मित्रता का लाभ लेकर राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी पहचान स्थापित करना चाहते थे? क्या उन्हें आशंका थी कि अर्जुनसिंह के वापस आने पर उनका सितारा धूमिल हो सकता है? क्या इसके पीछे नरसिंह राव और शुक्ल बंधुओं की अप्रत्यक्ष भूमिका थी? जो भी हो, वस्तुस्थिति तो तभी पता चलेगी जब स्वयं वोराजी उसे प्रकट करना चाहेंगे!

मोतीलाल वोरा ने मुख्यमंत्री बनने के बाद छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण से संबंधित दो निर्णय लिए जो मुझे निजी तौर पर नहीं जंचे। एक तो मेरे प्रस्ताव पर जो पशुपालन महाविद्यालय बिलासपुर में स्थापित होना था, उसे वोराजी अपने विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत अंजोरा गांव में ले आए। वैसे यह कोई बड़ी बात नहीं थी। सब नेता ऐसा करते हैं। दूसरे, प्राधिकरण का कार्यालय भोपाल से हटाकर रायपुर ले आया गया। उसके उद्घाटन के समय महज एक बैठक हुई, तत्पश्चात प्राधिकरण को ही समाप्त कर दिया गया। इससे वोराजी को क्या लाभ हुआ, वे ही बता सकते हैं। दूसरी ओर उन्होंने अपने कई ऐसे परिचितों को सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया, जिनके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ संबंध छुपे हुए नहीं थे। अभी यह अध्ययन होना भी बाकी है कि उनके कार्यकाल में बस्तर में नक्सलवाद या माओवाद का जो फैलाव हुआ, उसके पीछे उनकी सरकार की नीतियां किस सीमा तक जिम्मेदार थीं! 

शुरुआत में देशबन्धु के प्रति वोराजी का रुख न जाने क्यों किसी हद तक उपेक्षा का था। उनके साथ बरसों से जो सौहार्द्रपूर्ण संबंध चले आ रहे थे, उसमें एकाएक बदलाव आ गया। क्या यह अचानक उच्च पद पर पहुंच जाने का अहंकार था या फिर उनके कोई सलाहकार इस हेतु जिम्मेदार थे? जो भी हो, यह स्थिति लंबे समय तक नहीं खिंची और जल्दी ही पूर्ववत संबंध कायम हो गए। जबलपुर में प्रेस को आबंटित भूखंड हमने अर्जुनसिंह के आग्रह पर लौटा दिया था, क्योंकि जबलपुर-2 विधानसभा क्षेत्र के प्रत्याशी ललित श्रीवास्तव को उस स्थान पर भवन निर्माण से समुदाय विशेष के वोट कटने की आशंका थी। श्री सिंह ने सुरेश पचौरी को यह संदेश देने मेरे पास रायपुर भेजा था। वोराजी के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद नया भूखंड मिलने में समय तो लगा लेकिन अंतत: काम हो गया। वोराजी ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कोषाध्यक्ष के अलावा राज्यसभा सदस्य रहते हुए भी हमारे हितों का ध्यान रखा व मेरे अनुरोधों की रक्षा की।

वोराजी एक कर्मठ व्यक्ति हैं। वे कठोर परिश्रम कर सकते हैं और परिस्थिति के अनुसार नई बातें सीखने तत्पर रहते हैं। इन गुणों का परिचय उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद मिला। एक चुटकुला चल गया था कि वोराजी सुबह छह बजे तैयार होकर बैठ जाते हैं और स्टाफ को निर्देश देते हैं कि कोई मिलने आया हो तो बुलाओ। इसमें समझने लायक सच्चाई यही है कि वे अठारह घंटे काम कर सकते थे और बढ़ती आयु के बावजूद अभी दो साल पहले तक वाकई कर रहे थे। दूसरे, हम जानते हैं कि वोराजी की औपचारिक शिक्षा अधिक नहीं हुई है, लेकिन स्वाध्याय से उन्होंने इस कमी को दूर किया है। वोराजी ने गांधीजी पर विशद अध्ययन किया है तथा गांधी दर्शन पर एक पठनीय पुस्तक की रचना भी की है। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहते समय उन्होंने राजभवन में एक गांधी संग्रहालय की भी स्थापना की। अपने इन गुणों के बल पर वे सत्ता और संगठन दोनों में सम्मानपूर्वक लंबी पारी खेलने में सफल हुए हैं। आज तिरानवें वर्ष की आयु में जब वे सार्वजनिक जीवन से लगभग विदा ले चुके हैं, तब मुझे वह शाम याद आती है जब भारत-सोवियत मैत्री संघ द्वारा आयोजित लेनिन जयंती कार्यक्रम में हमने विधायक वोराजी को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया और वे दुर्ग से अपना स्कूटर चलाते हुए रायपुर आ गए थे। ऐसी सहजता आज दुर्लभ और अकल्पनीय है। (अगले सप्ताह जारी) 

#देशबंधु में 15 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित

Tuesday, 13 October 2020

कविता: भविष्य का इन्तज़ाम

 


मैने बच्चों को पढ़ने भेजा

कान्वेन्ट स्कूल में,

पत्नी से कहा-

पढ़ लेंगे अंग्रेज़ी तो

नौकरी मिल जाएगी ठीक से,


मैने कोशिश की कि

बच्चे सीख लें अच्छे मैनर्स,

घर आए अंकल-आंटी को

सुनाएं नर्सरी राइम्स और

कहना सीख लें

पड़ौसी के बच्चों की तरह

गुड मार्निग और गुड नाइट,


मैने पूछा बच्चों से-

पाकिट मनी कितनी चाहिए,

मैं उन्हें पैसे देता हूँ

चॉकलेट और थम्सअप

खरीदने के लिए,

बड़े होगे कुछ दिन बाद

तो लूना खरीद दूंगा,


मना नहीं किया मैने

उन्हें वीडियो पर फिल्म देखने से,

चाहता इतना ज़रूर हूं 

देखा करें वे रामायण

और इतवार को महाभारत,


सुनाई नहीं कभी कहानियाँ

बचपन में दादी से सुनी हुई,

बच्चों को किया

टेलीविजन के हवाले,

कहा उससे- हो तुम ही

अब धाय मां इनकी,


मैं लेकर कभी गया नहीं

बच्चों को बागीचे में, 

देखें पत्तियों का रंग बदलना

और कली का फूल में बदलना,

वे पहिचान लें पेड़ों-झाड़ियों को,

ज़रूरत कभी समझी नहीं ऐसी,


रात गए कभी आँगन में

बैठा नहीं मैं बच्चों के साथ,

दिखाया नहीं उन्हें ध्रुवतारा

पहिचान सप्तर्षि से करवाई नहीं

उन्हें दिखाई नहीं आकाशगंगा

और न दिन में इन्द्रधनुष,


साथ उन्हें लेकर रुका नहीं

चीटियों की बांबी के पास,

दिखाए नहीं बया के घोंसले

न मधुमक्खी के छत्ते कभी,


समझाया मैने हमेशा उनको

करें नहीं दोस्ती मोहल्ले के

गंदे आवारा बच्चों के साथ,

बसते हैं चोर-उचक्के वहाँ

जाएं न वे झोपड़ियों की तरफ,


सीख उन्हें दी इसके साथ

ईश्वर पर रखें भरोसा,

और याद रखें

भाग्य बहुत बड़ी चीज़ है,


भाव उन्हें सब्जी के मालूम नहीं

लेकर कभी गया नहीं मंडी तक,

अभी ज़रूरत भी है क्या ऐसी

खेलने-कूदने के दिन हैं उनके,


मैं कहता हूूं उनसे

पढ़ें -लिखें मस्त रहें,

जब तक हम हैं

फिक्र करें न किसी बात की,

आखिर मां-बाप

होते किसलिये हैं?


1989


नोट: इस कविता के बिंब तीस साल पहले के हैं लेकिन मैं उम्मीद करता हूँ कि आधुनिक भावबोध को व्यक्त करने में ये सक्षम सिद्ध होंगे।

Friday, 9 October 2020

कविता: अधूरी तस्वीरें

 


मैने खींची तस्वीर

जगन्नाथपुरी में

समुद्र पर सूर्योदय की,

तैरती डोंगियों और

हवा में ठहरे जाल की,

लेकिन मछुआरों को

कर दिया मैंने 

दृश्य से नदारद,


मैने खींची तस्वीरें

बस्तर और बालाघाट में,

साल और सागौन के जंगलों की

और तेंदूूपत्ते की,

लेकिन दूर हटा दिया मैंने

बीडी पत्ता तोड़ते और

साल बीज बीनते मजदूर को,


मैने खजुराहो-कोणार्क में

हालीबिड-बेलूर में खींची तस्वीरें

यक्ष, किन्नर और देवताओं की,

नृत्य करती रमणियों की,

और मिथुन मुद्राओं की,

लेकिन शिल्पी की,

पचासवीं पीढ़ी की,

कर नहीं पाया मैं तलाश,


मैंने मैसूर में चित्र लिए

राजप्रासाद के और दशहरे के,

हाथी की सवारी के,

चांदी के दरवाज़े

और सोने के छत्र के,

लेकिन अंगरेज बहादुर ने दिए

जो तमगे, खिताब और सनद

उनकी तस्वीरें लिए बिना

ही लौट आया मैं,


जबलपुर से आकर बैठे महादेव

तंजोर के मंदिर में

मैंने उनकी तस्वीर उतारी,

उन्होंने बनाया जो उत्तर से

दक्षिण का पुल,

देखा उसे मंदिर में ही,

बाहर सड़क पर आने पर

हो गया वह

मेरी आंखों से ओझल, 


हसदो- बैराज पर खड़े होकर

उतारी मैंने

सूर्यास्त की तस्वीर,

हीराकुड, गंगरेल में भी

लिए मैंने बांध के चित्र,

स्लूस गेट और नहरों के,

लेकिन चले गये जो मजदूर

और इंजीनियर खेमा उखाड़कर

कैमरा पीछा नहीं कर पाया उनका,


मैं आमसभाओं में गया

और जलसों में,

लिए राजपुरुषों के फोटो

शिलान्यास करते हुए

उद्घाटन करते हुए

और भाषण-उपदेश देते हुए,

मैंने उनके चेहरों की

चमक को किया कैद,


कैमरा घुमाया भीड़ पर भी

उसके चित्र भेजे अखबारों में,

लेकिन सामने बैठे लोग

थे निर्विकार या थी

उनके मन में बेचैनी,

मैं पकड़ नहीं पाया,


होता हैं ऐसा मेरे साथ अक्सर

खींचता हूँ फूल और

बागीचों की तस्वीरें

उनमें माली नहीं आ पाता

मंदिरों के चित्रों से

हो जाता है पुजारी गायब,

इमारतें छा जाती हैं

लेकिन कारीगर दिखाई नहीं देता,


इस कैमरे से काम

लेना नहीं आता मुझे,

सौंप दूंगा अपने बच्चों को इसे

वे मुझसे बेहतर और सही

तस्वीरें खींच पायेंगे।


16.09.1989

Thursday, 8 October 2020

देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार-18

 

 

अर्जुनसिंह के बारे में जितने भी सच्चे-झूठे किस्से प्रचलित हैं, उनमें से एक में अनजाने ही उनके एक गुण की प्रशंसा है। आज भी आपको यह बताने वाले कुछेक जन मिल जाएंगे कि उन्होंने विमान या ट्रेन में सफर के दौरान अर्जुनसिंह को दो-दो पुस्तकें एक साथ पढ़ते हुए देखा है। यह सच है कि श्री सिंह का अध्ययन बेहद व्यापक और उतना ही गहन था। उनकी निजी लाइब्रेरी में दुनिया के तमाम विषयों पर पुस्तकें थीं जो उनकी पढ़ी हुईं थीं। मेरी उनसे अक्सर पुस्तकों पर चर्चा होती थी। तब मुझे यह जानकर हैरानी होती थी कि मैं जिस किताब का जिक्र कर रहा हूं, वह उन्होंने पढ़ रखी है तथा उस पर वे साधिकार बात कर सकते हैं। ऐसा एकाध बार ही हुआ कि मैंने किसी पुस्तक की चर्चा छेड़ी और वह उन्होंने नहीं देखी है। तब वे अपने विश्वस्त श्री यूनुस को बुलाकर तुरंत वह पुस्तक खरीदने का निर्देश देते थे। मैंने जब दो-दो पुस्तकें एक साथ पढ़ने का किस्सा उन्हें सुनाया तो उन्होंने मुस्कुरा कर उसका आनंद लिया। कुल मिलाकर अपने समय में वे एक ऐसे व्यक्ति थे जो पूरी तरह राजनीति में डूबे होने के बावजूद साहित्य व ललित कलाओं की गहरी समझ रखते थे तथा संस्कृतिकर्मियों के साथ जिनका सक्रिय संवाद था।

उस दौर के पत्रकारों को याद होगा कि अर्जुनसिंह प्रेस से चर्चा करते हुए या किसी पत्रकार को इंटरव्यू देते समय अपने सामने टेप रिकॉर्डर रख लेते थे कि उनको यदि कहीं गलत उद्धृत किया जाए तो वे उसका प्रतिवाद कर सकें। वे स्वयं नपी-तुली बातें करते थे, इसलिए अपने कथन के सार्वजनिक प्रकाशन के प्रति वे इस सीमा तक सतर्क थे, जिसे अतिरेकपूर्ण मानना गलत न होगा। श्री सिंह के एक उद्यम के बारे में शायद बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि उन्होंने सन् 1957 से लेकर शायद सन् 1988 तक के मध्यप्रदेश विधानसभा में दिए गए भाषणों, हस्तक्षेपों, प्रश्नोत्तरों आदि का सिलसिलेवार संकलन कर दस खंडों के एक वृहत ग्रंथ के रूप में उनका प्रकाशन किया। प्रदेश की राजनीति के अध्येताओं व शोधकर्ताओं के लिए यह एक बहुमूल्य दस्तावेजीकरण है। देश में किसी अन्य जनप्रतिनिधि ने ऐसा काम संभवत: आज तक नहीं किया है। यह एक ओर संसदीय राजनीति में उनकी सक्रिय भागीदारी का प्रमाण है; तो दूसरी ओर इसे भी किसी कदर शब्दों के प्रति उनकी सतर्कता का उदाहरण माना जा सकता है। हमने राजनेताओं को बहुधा अपने वक्तव्यों से मुकरते, उनका खंडन करते, उन्हें गलत समझे जाने जैसे प्रतिवाद करते पाया है। यहां अर्जुनसिंह को इस चलन से अलग देखा जा सकता है।

दो जाने-माने हिंदी पत्रकारों ने अर्जुनसिंह की जीवन यात्रा पर पुस्तकें लिखीं हैं। पहले (स्व) कन्हैया लाल नंदन जिन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया व एक साहित्यिक के नाते भी पहचान बनाई थी। दूसरे रामशरण जोशी जो एक वामपंथी समाजचिंतक के रूप में ख्यातिप्राप्त हैं। अगर मुझे सही याद है तो वह नंदनजी की पुस्तक "मोहि कहाँ विश्राम" थी जिसका लोकार्पण तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने पार्लियामेंट एनेक्सी के सभागार में किया था। संयोग से मैं दिल्ली में था तो कार्यक्रम का आमंत्रण मुझे भी मिल गया था। अनेक नामचीन हस्तियों ने कार्यक्रम में शिरकत की थी। राष्ट्रपति ने अर्जुनसिंहजी के बारे में अत्यंत आदरपूर्वक उद्गार व्यक्त किए थे। फिर भी माहौल में कोई उत्तेजना या गरमाहट नहीं थी। एक तरह से शिष्ट औपचारिकता का ही अनुभव हो रहा था। मुझे दोनों पुस्तकें सौजन्य भेंट मिल गईं थीं। उनका सरसरी तौर पर अवलोकन करने के बाद मैं उलाहना के स्वर में श्री सिंह से यह कहे बिना नहीं रह सका था कि आप अगर प्रकाशन पूर्व इनकी पांडुलिपियां मुझे देखने दे देते तो बेहतर होता। ऊपर मैं शब्दों के प्रति जिस अतिरेकी सतर्कता का उल्लेख कर आया हूं, ये पुस्तकें उसके एकदम विपरीत थीं। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि इन उपक्रमों के पीछे कौन सी प्रेरणा काम कर रही थी!

अर्जुनसिंह को अधिकतर लोग, विशेषत: उनके अधीनस्थ अधिकारी और राजनीतिक कार्यकर्ता, साहब का संबोधन देते थे। अनेक पत्रकार खुशामदी अंदाज में उन्हें कुंवर साहब कहते थे, यद्यपि मुझे शक है कि इसे उन्होंने कभी पसंद किया हो। बघेलखंड के जन समुदाय व नजदीकी लोगों के लिए स्वाभाविक ही वे दाऊ साहब थे, लेकिन उनसे निकटता पाने के अभिलाषी पत्रकारों को जब मैं उन्हें दाऊ साहब कहते सुनता था तो बहुत कोफ़्त होती थी। मजे की बात है कि मुझे उन्हें कभी कोई संबोधन देने की आवश्यकता नहीं पड़ी। 2009 में जब वे मंत्री नहीं रह गए थे, तब मैंने यात्रा वृत्तांत की अपनी नई पुस्तक 'दक्षिण के आकाश पर ध्रुवतारा' उन्हें समर्पित करना तय किया, जिसकी शब्दावली थी-  

'जनतांत्रिक राजनीति के प्रखर प्रवक्ता/ 

साहित्य एवं ललित कलाओं के भावक/ 

एवं अच्छी पुस्तकों के पाठक/ 

आदरणीय श्री अर्जुनसिंह के लिए'। 

मैंने जब पुस्तक उन्हें भेंट की तो यह अंश पढ़ कर वे फफक-फफक कर रो पड़े। एक-दो मिनट बाद उन्होंने खुद को संयत किया। अपने आप पर सदैव नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति से ऐसे भावोद्रेक की मैं कल्पना नहीं करता था। यह समय था जब राजनीतिक क्षितिज पर उनका सूर्य अस्ताचल की ओर था और वे शायद अपने को एकाकी महसूस कर रहे थे!

श्री सिंह के मितभाषी होने का एक रोचक प्रसंग मेरे साथ घटित हुआ। यह शायद 2008 की बात है। उनके विश्वस्त सहायक श्री यूनुस ने फोन किया। भाई साहब, आप आठ तारीख को दिल्ली आ सकते हैं? यूनुस भाई, उस दिन मेरा पटना में कोई कार्यक्रम है। नौ तारीख को आ जाऊं तो चलेगा? ठीक है, साहब से पूछ कर खबर करता हूं। कुछ ही देर में स्वयं अर्जुनसिंह फोन पर थे- आप नौ तारीख को आने का कह रहे हैं, तब तक तो बहुत देर हो जाएगी। जी, ठीक है, मैं आठ को पहुंच जाऊंगा। सुबह की फ्लाइट पकड़ी। एयरपोर्ट से सीधे उनके निवास। सामान टैक्सी में। कार्यक्रम था कि वे उस दिन एक प्रकाशक के साथ अंग्रेजी में लिखी आत्मकथा "अ ग्रेन ऑफ सैंड इन द आवरग्लास ऑफ टाइम" का अनुबंध कर रहे थे, जिसकी साक्षी में उन्होंने कुल 12-15 जनों को बुलाया था। उनके साथ अनेक वर्षों से जुड़े रहे विभाग के सचिव के अलावा सरकारी अधिकारी एक भी नहीं और न कोई राजनेता। यह मेरे प्रति स्नेह और विश्वास ही था कि इस सीमित आयोजन में मुझे उन्होंने शरीक किया। लेकिन फोन पर निमंत्रण देते समय एक नितांत निजी कार्यक्रम की संक्षिप्त जानकारी भी न देने का क्या कारण रहा होगा?

अर्जुनसिंह के बारे में माना जाता है कि वे बहुत देख परख कर ही किसी पर विश्वास करते थे। यह आकलन कभी सही रहा होगा किंतु परवर्ती घटनाचक्र बताता है कि कुछ ऐसे विश्वासपात्रों ने ही उन्हें वक्त आने पर धोखा दिया। राजनीति क्या, शायद जीवन के हर क्षेत्र में ऐसा ही होता है! इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। लेकिन अर्जुनसिंह के राजनीतिक सफर का अवलोकन करते हुए उस सवाल का ध्यान आता है जो उनके जीवन काल में ही उनकी पत्नी श्रीमती सरोज सिंह ने उठाया था व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को संबोधित था। सोनियाजी के सामने ऐसी क्या मजबूरी थी कि अर्जुनसिंह को प्रधानमंत्री पद न सही, लेकिन राष्ट्रपति पद के लिए भी उपयुक्त क्यों नहीं माना गया? मेरी अपनी समझ में, जैसा कि मैं पहले भी जिक्र कर आया हूं, इसके पीछे अंतरराष्ट्रीय राजनीति के दबाव थे। बहरहाल, मेरे साठ साल के पत्रकार जीवन में ऐसे तीन राजनेता मिले जो वैसे बाबूजी के मित्र व समकालीन थे, लेकिन जिन्होंने मुझ पर स्नेह रखते हुए मेरे साथ मित्रवत संबंध निभाए। अर्जुनसिंह के अलावा अन्य दो थे- इंद्रकुमार गुजराल और ए बी बर्धन। लेकिन मैंने हमेशा सतर्कता बरती कि इन संबंधों का दुरुपयोग न हो। ऐसे तीन-चार मौके आए जब किसी व्यक्ति ने या तो मेरे माध्यम से अर्जुनसिंह के निकट पहुंचना चाहा, या उनसे सीधे मिले तो बतौर जमानतदार मेरा नाम ले लिया। ऐसे हर अवसर पर मैंने उन्हें तटस्थ भाव से अपनी राय दी और किसी तरह से उनका निर्णय प्रभावित करने का प्रयास नहीं किया। इस सिलसिले में एक प्रसंग शायद पाठकों को रुचिकर लगे। देश- विदेश के शासन प्रमुखों को नि:संकोच अपना मित्र घोषित करने के लिए प्रसिद्ध दिल्लीवासी एक हमउम्र पत्रकार ने 1992 में मुझे प्रस्ताव दिया- नरसिंहराव मेरे मित्र हैं, अर्जुनसिंह आपके। हम दोनों मिलकर उनके बीच समझौता करवा देते हैं। मैंने उनको यह कहकर निराश किया कि राव साहब आपके मित्र होंगे लेकिन अर्जुनसिंह से मित्रता का मेरा कोई दावा नहीं है। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 08 अक्तूबर 2020 को प्रकाशित

Saturday, 3 October 2020

कविता: नए साल का चाँद

 


रोशनी का मेला है

चारों तरफ, शहर में

ऊपर-ऊपर

नियोन साइन, ट्यूब लाइट्स,

तेज पॉवर के लट्टू,

मरक्यूरी और सोडियम वैपर लैंप,

और उन सबसे ऊपर टिमटिमाते

लाल रौशनी के बल्ब,

टीवी और टेलीफोन की

मीनारों पर चेतावनी देते हुए,


मेले में बमुश्किल तमाम

अपने लिए जगह खोजता

अमावस से पहिले, किसी दिन,

मुरझाया सा चाँद

यहाँ-वहाँ टकराता, लड़खड़ाता,

रौशनी के सैलाब के नीचे

छाए अंधेरे से जूझता,

कहीं काले बादल

ब्लैककैट कमांडो,

कहीं पॉयलट कार के सिपाही

हवा के झोंके,

उसे धकियाते, दुरदुराते

चाक-चौबंद चकाचौंध में


मेले से बाहर फेंका जाता

रात के आखिरी पहर

थका, फीका, निस्तेज चाँद,


ठिठकता एक क्षण को

जाने के पहिले,

सलेटी चादर पर

वच्चे के धूल भरे पैर के निशान

की तरह,

और फिर

आहिस्ता खो जाता दूर कहीं,

दूर किसी एरोप्लैन की लुप्त होती

बत्ती की तरह,


पास यहीं कहीं तभी

गूंजती रेल के इंजन की सीटी,

फागुन के जाने का सिग्रल

चैत के आने का संकेत,

नए साल के साथ-साथ

नए चाँद आने की उम्मीद,


उम्मीद फिलहाल

अंधेरे और उजाले के बीच

कहीं ठहरी हुई,

चांद की उम्मीद

सुबह के उजाले में लापता,

अमावस की रात

जागती फिर से,


अमावस की रात

कि उम्मीद से कहीं ज्यादा डर,

डर बहुत गहरा,

चैत के चाँद को

हरने की जुगत में

बैठे जो हैं वे

घात लगाए,


वे जिन्होंने

चाँद से बच्चों को मारा,

चाँद सी बहनों-बेटियों को लूटा,

उजाले का किया जिन्होंने खून,

और चाँदनी को आग लगाई,


ले जाएंगे

चैत के चाँद को,

रखेंगे उसे सजाकर

रौशनी के मेले में

अपनी दूकान पर,

करेंगे गर्व के साथ

उसका इश्तिहार, 

चैत के चाँद पर है

उनका एकाधिकार,


पूछती है साल की आखिरी

अमावस की सहमी हुई रात

भोर के तारे से,

शो-केस में जब

कैद होगा उसका उपहार

नए साल का चाँद,

उसे बचाने की

तरकीब क्या होगी?


2003

Thursday, 1 October 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार-17

 


रायपुर में हमारी डाक सामान्य तौर पर मुख्य डाकघर में आबंटित पोस्ट बॉक्स में रख दी जाती है। कोई कार्यालय सहायक जाकर उसे ले आता है। (यह कूरियर सेवा आरंभ होने के बहुत पहले की बात है)। उस रोज आया गट्ठर अन्य दिनों की ही भांति था। डाक छांटते हुए मैं अपने नाम आई चिट्ठियों को अलग रखते जा रहा था। उनमें एक अंतर्देशीय था, जिस पर मेरा नाम-पता हाथ से लिखा था, किंतु प्रेषक का नाम नहीं था। पत्र खोलकर देखा तो मैं चौंक गया। उसी हस्तलिपि में मजमून कुछ इस प्रकार था-  

'प्रिय सुरजन जी, मुझे मालूम हुआ कि पिछले दिनों आपके साथ मेरे दिल्ली निवास पर सम्मानजनक व्यवहार नहीं हुआ और आप बिना मिले लौट गए, जबकि मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा था। मैं इसके लिए आपसे क्षमा मांगता हूं। आप अगली बार जब भी दिल्ली आएं, कृपया मिलकर ही जाएं। आपका, अर्जुनसिंह।'

यह वाकया 1986 के अगस्त- सितंबर का है। पत्र की भाषा तो नहीं लेकिन भावना यही थी। याददाश्त के भरोसे लिखने के कारण पत्र को हू-ब-हू उद्धृत करना संभव नहीं है। मेरे लिए यह कल्पना करना मुश्किल था कि एक तो बाबूजी के समकालीन यानी उम्र में इतने बड़े, दूसरे केंद्रीय मंत्री व देश के प्रभावशाली राजनेता मुझे इस तरह का खत लिखेंगे।

अर्जुनसिंह उन दिनों केंद्रीय दूरसंचार मंत्री थे। मैंने अपने एक दिल्ली प्रवास के दौरान, जैसे कुछेक अन्य राजनेताओं से मिलता था उसी तरह, उनसे भी मिलने का समय मांगा। अगले दिन सुबह का वक्त सरलतापूर्वक तय हो गया। वे पंजाब के राज्यपाल पद से कुछ समय पहले ही मुक्त होकर लौटे थे, इसलिए बंगले पर सुरक्षा का खासा इंतज़ाम था। मुख्य द्वार पर ही खानातलाशी हो रही थी। मैं शांतिपूर्वक जांच में सहयोग करता रहा, लेकिन जब सुरक्षा प्रहरी ने मेरे बालप्वाइंट पैन को भी खोलकर जांचना शुरू किया तो मुझसे नहीं रहा गया। सुरक्षाकर्मी के लिए यह सामान्य प्रक्रिया रही होगी लेकिन सड़क पर खड़े रहकर जांच करवाना मुझे अपमानजनक लगा। मैंने पैन वापस मांगा और मंत्रीजी से बिना मिले लौट आया। उसी दिन नए-नए राज्यसभा सदस्य बने अजीत जोगी के साथ मेरा लंच था। जोगीजी ने पूछा- साहब के साथ मीटिंग कैसी रही, तो मैंने उन्हें सुबह का किस्सा सुनाया। जोगीजी ने यह बात शायद उस दिन ही श्री सिंह को बता दी। उपरोक्त पत्र उसी का परिणाम था। मैं जब अगली बार दिल्ली गया तो जाहिर है कि मंत्रीजी से मिलने का वक्त मांगा और अगले दिन के लिए भेंट तय हो गई।

दूसरे दिन जब मैं उनके बंगले पहुंचा तो मुख्य द्वार पर कोई चौकसी नहीं थी। भीतर एक नई कॉटेज बन गई थी, जहां आगंतुकों की सुुुरक्षा जांंच का प्रबंध था। मेरा परिचय जानकर मुझे बिना जांच के ही आगे बढ़ने का संकेत दे दिया गया। अर्जुनसिंह सेे सौजन्यपूर्वक भेंट हुई। देश-प्रदेश की राजनीति पर बातचीत होना ही थी। अधिकतर समय मैं ही बोलता रहा और अपने स्वभाव के अनुरूप वे सुनते रहे। इस बीच न तो उन्होंने मेरे लौट जाने की बात उठाई और न ही अपने खत का उल्लेख किया। पंद्रह-बीस मिनट की मुलाकात का समय खत्म होने आया तो मैंने चलने की इजाजत मांगी। अब एक बार फिर मेरे चौंकने की बारी थी। उन्होंने पूछा- आप कल दिल्ली में हैं? जी। तो कल मेरे साथ दिन के भोजन के लिए समय निकाल सकेंगे? इसका उत्तर 'जी हां' के अलावा और क्या हो सकता था? दूसरे दिन आवासीय कार्यालय के बजाय उनके निवास पर भोजन कक्ष में साथ बैठना हुआ। उनके इस शिष्टाचार से अभिभूत न हो पाना कठिन था। वे चाहते तो उनके दरवाजे से मेरे लौट जाने की उपेक्षा कर सकते थे। फिर पत्र लिखना अपने आप में पर्याप्त से अधिक था। पिछले दिन हुई मुलाकात के बाद तो कोई शिकायत नहीं बचती थी। बाबूजी के साथ उनके आत्मीय संबंध थे। इन सब के बावजूद लंच पर निमंत्रित कर अर्जुनसिंह ने मेरी निजता व भावनाओं का जो सम्मान किया, इसे एक ऐसे विरल गुण के रूप में नोट किया जाना चाहिए जो अमूमन सत्ताधीशों में नहीं पाया जाता।

अर्जुनसिंह की प्रदेश से अनुपस्थिति के चलते मध्यप्रदेश में उनके पुराने विरोधियों को एक तरह से खुला मैदान मिल गया था। उनका साथ देने के लिए कतिपय नए विरोधी भी जुट गए थे। इनमें यदि एक ओर वे थे जिनकी महत्वाकांक्षा पूर्ति में श्री सिंह ने निर्णायक सहायता की थी; तो दूसरी ओर वे भी थे जिनका तब तक उनसे कोई सीधा लेना-देना नहीं था। वे शायद अपनी युवावस्था को आधार बना भविष्य की राह प्रशस्त करने की संभावना देख रहे थे। इस तरह योजनाबद्ध तरीके से सिंह-विरोधी अभियान की शुरुआत हो गई थी जिसका बेहद उपयुक्त नामकरण कल्पनाशील पत्रकारों ने मोती-माधव एक्सप्रेस कर दिया था। राज्य के कतिपय पत्रों में अर्जुनसिंह पर उनका पक्ष जाने बिना व्यक्तिगत लांछन लगाते हुए नियमित कॉलम छपने लगे। इसी तर्ज पर प्रदेश से बाहर के अनेक अखबारों व पत्रिकाओं में फोटो-फीचर प्रकाशित होने लगे। कलकत्ता की पत्रिका 'रविवार'  इसमें सबसे आगे थी। कुछ पत्रकारों ने तो मानों इस अभियान को निज प्रतिष्ठा का विषय बना लिया था। ऐसे सभी बंधुओं को आगे चलकर जो भौतिक परिलब्धियां हासिल हुईं, वे पत्रकार बिरादरी से छुपी हुई नहीं हैं। इस चलन के विपरीत मैंने आने वाले दिनों में नोट किया कि अर्जुनसिंह अपने कट्टर विरोधियों पर भी ऐसे निजी हमले करने से परहेज करते थे। प्रदेश में कांग्रेस को इस अंतर्कलह का भविष्य में कितना नुकसान उठाना पड़ा, यह गहन शोध का विषय है।

बहरहाल, इसी परिदृश्य के बीच अर्जुनसिंह 1988 के प्रारंभ में फिर मुख्यमंत्री बनकर भोपाल लौटे। उन्होंने दुगने जोश के साथ सामाजिक न्याय के अपने पुराने अजेंडे पर काम शुरू किया। इसी समय कुछ दिनों बाद देशबन्धु का तीसवां स्थापना दिवस आ रहा था तो हमने उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित कर एक बड़ा आयोजन करने की बात सोची। उन्होंने हमारा आमंत्रण तुरंत स्वीकार कर लिया। 17 अप्रैल 1988 की सुबह बाबूजी माना विमानतल पर उनकी अगवानी करने गए तो उन्हें उलाहना मिला- ललित आ जाते। आपको आने की क्या जरूरत थी। बाबूजी ने उत्तर दिया- ललित अपनी जगह, मैं अपनी जगह। खैर, हमारा कार्यक्रम अपेक्षा से अधिक अच्छा हुआ। मेरे जिन सहयोगी को आभार व्यक्त करना था, ऐन मौके पर पीछे हट गए व मुझे बिना किसी तैयारी के यह दायित्व निभाने मंच पर जाना पड़ा। मैंने तीन-चार मिनट में जो कुछ भी कहा, वह मेरे आज तक के सार्वजनिक वक्तव्यों में शायद एक प्रभावी वक्तव्य गिना जाएगा! आयोजन समाप्त हुआ। मंचासीन अतिथियों के साथ-साथ मैं भी नीचे उतरा और तभी अर्जुनसिंह जी ने मुझे बधाई देते हुए कहा- चिप ऑफ द ओल्ड ब्लाक याने जैसा पिता वैसा पुत्र।

देशबन्धु के स्थापना दिवस के इस समारोह की खास कर हमारे लिए एक याद रखने लायक बात थी कि अर्जुनसिंह विमानतल से सीधे प्रेस आए तथा कार्यक्रम के बाद नगर में अन्य किसी आयोजन में शिरकत करने के बजाय तुरंत भोपाल लौट गए। इसके अलावा कुछ और यादें मैं पाठकों के साथ साझा करना चाहूंगा। हमारे अनन्य शुभचिंतक व संकटमोचक पवन दीवान इस अवसर पर बतौर विशेष अतिथि उपस्थित थे। देशबन्धु नेे राजिम के निकट लखना गांव गोद लेकर लगातार एक साल वहां शासकीय सहयोग से विकास कार्यों को गति दी थी, उनकी चर्चा हुई। मुख्यमंत्री ने स्वयं अपने उद्बोधन में उसकी सराहना की।  (उल्लेखनीय है कि प्रतिष्ठित पत्रकार बी जी वर्गीज़ ने हिंदुुस्तान टाइम्स के संपादन के दौरान दिल्ली के पास छातेरा गांव गोद लिया था। हमारा यह अभिनव प्रयोग उसी उदाहरण से प्रेरित था)। छत्तीसगढ़ के समर्पित समाजसेवी आर्किटेक्ट टी एम घाटे का सार्वजनिक सम्मान भी मुख्यमंत्री के हाथों हुआ। मुख्यमंत्री का भाषण लीक से हटकर था। उन्होंने उन अखबार मालिकों पर तीखे कटाक्ष किए जो पत्र की आड़ में सरकारी और गैर-सरकारी तौर पर सही-गलत तरीके से स्वार्थ पूर्ति में लगे रहते हैं। आयोजन के एक दिन पहले अचानक आए आंधी-तूफान ने हमारी सारी व्यवस्था पर पानी फेर दिया था। नए सिरे से तैयारियां करना एक भारी चुनौती थी, लेकिन हमने सुबह चार बजे शुरू कर दस बजते न बजते दुबारा सारे इंतज़ामात कर लिए थे। मैंने अपने आभार प्रदर्शन में इसी उल्लेख के साथ यही कहा था कि देशबन्धु में हमें संघर्षों का सामना करने की आदत पड़ चुकी है। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 01 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित

Thursday, 24 September 2020

देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार-16



पाठकों को स्मरण होगा कि मध्यप्रदेश में 1985 के विधानसभा चुनाव संपन्न होते साथ ही मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह को पंजाब का राज्यपाल बनाकर चंडीगढ़ भेज दिया गया था। यह अचानक उठाया गया कदम उतना ही कल्पना से परे भी था। अर्जुनसिंह के नेतृत्व में पहली बार कांग्रेस ने लगातार दूसरी जीत हासिल कर इतिहास रच दिया था। इसके पहले लोकसभा चुनाव में भी प्रदेश की चालीस में से चालीस सीटें कांग्रेस की झोली में आईं थीं। इस शानदार दोहरी सफलता के बावजूद अर्जुनसिंह को प्रदेश से हटाने का क्या कारण था? वैसे तो उन्हें एक संवेदनशील राज्य के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर भेजा जाना जाहिरा तौर पर पदोन्नति थी, लेकिन हकीकत में उन्हें ''किक अप'' किया गया था। दूसरे शब्दों में मध्यप्रदेश में उनकी उपस्थिति एकाएक असुविधाजनक लगने लगी थी तथा उन्हें सम्मानपूर्वक विदा करने का रास्ता खोजा जा रहा था एवं उसमें बहुत अधिक वक्त नहीं लगा, बल्कि एक तरह से उतावलापन देखने मिला। इस घटनाचक्र का विश्लेषण करते हुए अनेक संभावित कारण सामने आने लगते हैं।

मेरी समझ में सबसे पहला कारण था किसी भी साथी-सहयोगी को एक सीमा से आगे न बढ़ने देने की इंदिरा गांधी के समय से चली आ रही नीति। राजीव गांधी ने इस आत्मघाती नीति को जारी रखा, और इस प्रकरण में तो शुरुआत ही थी। दूसरा कारण स्वयं अर्जुनसिंह की असावधानी या आत्मविश्वास का अतिरेक था। क्या वे नहीं जान रहे थे कि तब भी उनके विरोधी कम नहीं थे, बल्कि उन्हें कहीं और से प्रश्रय भी मिल रहा था? शायद तीसरा कारण भोपाल गैस त्रासदी का दोष उनपर मढ़ते हुए उन्हें हाशिए पर डालना था। इन सब कारणों के पीछे और सबसे बड़ा कारण दिल्ली में राजीव गांधी के प्रथम विश्वस्त और देश के गृहमंत्री के रूप में पी वी नरसिंह राव की उपस्थिति थी। केंद्रीय गृहमंत्री होने के नाते दिल्ली पुलिस उनके मातहत थी। क्या सिखों का नरसंहार होने के लिए वे प्रथमत: अपराधी नहीं थे? फिर भी सारा दोषारोपण राजीव पर मढ़ दिया जाता है। यूनियन कार्बाइड के वारेन एंडरसन को भी क्या उनकी सहमति-अनुमति के बिना भारत आने और सुरक्षित लौटने की गारंटी मिल सकती थी? जबकि इसका ठीकरा आज भी अर्जुनसिंह के माथे फोड़ा जाता है। इसी संदर्भ में मेरा अंतिम तर्क है कि श्री राव प्रधानमंत्री न बन पाने से क्षुब्ध और मर्माहत होकर राजीव गांधी को ही कमजोर करने में लगे थे। दूसरी ओर, मध्यप्रदेश में सिंह विरोधियों का साथ देकर वे अपने कॉलेज जीवन में पं. रविशंकर शुक्ल द्वारा किए उपकार से भी शायद उऋण होना चाहते थे!

अर्जुनसिंह के समक्ष उस समय संभवत: पंजाब जाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था। तीन-चौथाई बहुमत वाले प्रधानमंत्री को मना करते भी तो कैसे? उस स्थिति में महज एक विधायक बन कर रह जाने की आशंका थी। जबकि राज्यपाल पद को एक ओर पदोन्नति और दूसरी ओर प्रधानमंत्री द्वारा खास तौर पर एक चुनौती सौंपे जाने का गौरव प्रचारित करने का वाजिब अवसर था।बहरहाल, श्री सिंह ने उत्तराधिकारी के रूप में अपने विश्वासपात्र प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल वोरा का नाम आगे बढ़ाया, और उन्हें पदभार सौंप चंडीगढ़ के लिए रवाना हो गए। यह चयन आगे चलकर स्वयं उनके लिए कितना कष्टकारी हुआ, उसकी चर्चा बाद में होगी। अर्जुनसिंह ने बतौर राज्यपाल बमुश्किल तमाम छह माह पंजाब में बिताए, लेकिन इस अवधि में उन्होंने सिद्ध कर दिया कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें एक भारी चुनौती भरा दायित्व देकर गलती नहीं की थी। उन्होंने वहां दिन-रात मेहनत की। समाज के विभिन्न वर्गों से प्रत्यक्ष व परोक्ष संबंध स्थापित किए। उनका सहयोग हासिल किया और अंतत: राजीव गांधी- संत लोंगोवाल के बीच पंजाब समझौता करवाने जैसे लगभग असंभव काम को अंजाम देने में सफल हुए। इस चमत्कारी उपलब्धि के बाद चंडीगढ़ में उनकी उपस्थिति अब आवश्यक नहीं थी। वे राजनीति की मुख्यधारा यानी मेनस्ट्रीम में लौटने के लिए शायद बेताब भी हो रहे थे।

दिक्कत यह थी कि मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री पद खाली नहीं था, बल्कि वे लौट कर न आ जाएं, इस पर योजनाबद्ध तरीके से काम चल रहा था। ऐसे में यह राजीव गांधी की ही नैतिक जिम्मेदारी बनती थी कि अर्जुनसिंह की योग्यता का सम्मान करते हुए उन्हें कोई महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी जाए। इसमें उन्होंने देर नहीं की। श्री सिंह को राजीव की कैबिनेट में बतौर दूरसंचार मंत्री स्थान मिला तथा कुछ ही दिनों बाद दक्षिण दिल्ली क्षेत्र से उपचुनाव जीतकर बाकायदा लोकसभा में भी पहुंच गए। यह सीट डॉ. शंकरदयाल शर्मा के दामाद ललित माकन (साथ ही पुत्री गीतांजलि माकन भी) की आतंकवादियों द्वारा हत्या किए जाने से रिक्त हुई थी। इस जीत से यह संदेश किसी हद तक प्रबल हुआ कि अर्जुनसिंह का राजनीतिक कौशल मध्यप्रदेश तक सीमित नहीं है, बल्कि वे विपरीत तथा नई परिस्थितियों में भी जीतने का दमखम रखते हैं। काश कि वे इस नई-नई अर्जित छवि को ही पुष्ट करने पर ध्यान देते! उनका मन तो मध्यप्रदेश में लगा हुआ था। चंडीगढ़ और दिल्ली तो यात्रा के अनिवार्य और कहा जाए तो लादे गए पड़ाव मात्र थे। कैबिनेट मंत्री के रूप में काम करते हुए उन्होंने भोपाल वापस आने की जोड़-तोड़ प्रारंभ कर दी। संभव है कि मध्यप्रदेश में उनके विरुद्ध लगातार जो वातावरण बनाया जा रहा था, उससे वे विचलित हो रहे हों, लेकिन क्या भोपाल लौटने के अलावा और कोई रास्ता बाकी नहीं था? वे दिल्ली में सत्ता केंद्र के मध्य में थे। क्या वहीं रहकर बेहतर राजनीतिक प्रबंधन नहीं हो सकता था? मैं इस बारे में कुछ भी अनुमान लगाने में असमर्थ हूं। तथापि मेरा सोचना है कि 1988 में दुबारा मुख्यमंत्री बनकर मध्यप्रदेश लौटना और फिर खरसिया क्षेत्र से विधानसभा उपचुनाव लड़ना भविष्य में उनके लिए नुकसानदायक साबित हुआ। उनकी जो राष्ट्रीय स्तर पर इमेज बनी थी, वह तो टूटी ही, प्रदेश में भी उनकी लोकप्रियता व अजेयता को खरसिया ने एक मिथक में बदल दिया। याद रहे कि इस बीच प्रधानमंत्री राजीव गांधी का तिलस्म भी लगभग टूट चुका था व उनकी जगह वी पी सिंह का जादू मतदाता के दिल-दिमाग पर छाने लगा था। अर्जुनसिंह को इस तरह दो तरफ से नुकसान उठाना पड़ा। 

यह सत्य अपनी जगह पर है कि 1988 में तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अर्जुनसिंह ने अपने पुराने सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक अजेंडा पर ही अधिक जोर-शोर से काम करना प्रारंभ कर दिया था। दूसरे शब्दों में उन्होंने सुविधा की राजनीति के बजाय पहले से अंगीकृत सिद्धांतों की राजनीति पर जमे रहना ही बेहतर समझा। ऐसा करते हुए शायद उनकी निगाह 1990 में निर्धारित विधानसभा चुनावों की ओर रही हो; 1989 के आम चुनाव भी बस सामने ही थे। अगर मध्यप्रदेश में ये दोनों चुनाव उनके नेतृत्व में लड़े जाते तो क्या परिणाम निकलते, आज उसका अनुमान लगाना व्यर्थ है। किंतु इतना तो याद रखना ही होगा कि खरसिया जैसी ''सेेफ सीट'' से अप्रत्याशित रूप से कम वोटों से जीतने को उनकी कमजोरी माना गया। इसी सोच के चलते उन्हें एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवाना पड़ी। मोतीलाल वोरा दुबारा सीएम बने, उनके नेतृत्व में लोकसभा में कांग्रेस को भारी पराजय मिली; फिर अचानक ही श्यामाचरण शुक्ल तीसरी बार अल्प समय के लिए मुख्यमंत्री बने, और इस बार कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में भी शिकस्त झेलना पड़ी। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 24 सितंबर 2020 को प्रकाशित