अम्बानी एंड संस
दीपावली पर सारा देश लक्ष्मीपूजन करता है, लेकिन मुझ जैसा व्यक्ति जिसे लक्ष्मी के प्रति अतिरिक्त आकर्षण न हो वह क्या करे?
मैंने इस दीपावली पर मिले अवकाश का उपयोग लक्ष्मी पूजन में तो नहीं, किन्तु एक बहुचर्चित लक्ष्मीपुत्र याने धीरूभाई अंबानी की जीवनी पढ़ने में व्यतीत किया। आस्ट्रेलिया के पत्रकार हेमिश मेकडॉनाल्ड ने कुछ वर्ष पूर्व धीरूभाई अंबानी पर एक पुस्तक लिखी थी- ''द पोलिएस्टर प्रिंस'' जो भारत में अदालती आदेश से प्रतिबंधित हो गई थी। यही पुस्तक संवर्ध्दित और संशोधित रूप में इस वर्ष ''अंबानी एण्ड संस'' नाम से प्रकाशित हुई है: इंटरनेट पर पुरानी किताब के कुछ अंश पढ़ने से यही अनुमान हुआ।
भारत के औद्योगिक घरानों और उद्योगपतियों पर इसके पहले भी पुस्तकें लिखी गई हैं। एक दो उद्योगपतियों ने किसी लेखक या पत्रकार की सहायता लेकर आत्मकथाएं भी लिखीं, लेकिन ये सब सूचनाओं से बोझिल ऐसी पुस्तकें हैं जिन्हें कोई सामान्य पाठक शायद ही कभी पढ़ना चाहेगा। आज से लगभग बीस साल पहले अमेरिका में क्रिसलर कार कंपनी के सीईओ ली इयाकोक्का ने अपनी आत्मकथा में एक डूबती कंपनी को दुबारा मजबूत स्थिति में लाने के संघर्ष का जैसा जीवंत और प्रभावी चित्रण किया था, वैसा कोई भारतीय उद्योगपति नहीं लिख सका।
धीरूभाई अंबानी पर भी यदि कोई प्रायोजित पुस्तक लिखी जाती तो शायद उसका भी वही हश्र होता, लेकिन ''अंबानी एण्ड संस'' आर्थिक मामलों के एक ऐसे विशेषज्ञ पत्रकार ने लिखी है, जो अपने विषय को खूब अच्छी तरह से समझता है और जिसके पास खोजी पत्रकार की सतर्क दृष्टि है। इस नाते भारतीय उद्योग जगत पर अब तक लिखी गई तमाम किताबों में यह शायद सबसे बेहतरीन किताब मानी जाएगी। यद्यपि पुस्तक का शीर्षक ''अंबानी एण्ड संस'' है तथापि यह सिर्फ धीरूभाई अंबानी या उनके बेटों की जीवनी नहीं है। जैसा कि प्रकाशकीय टिप्पणी में कहा गया है- ''अंबानी गाथा आधुनिक भारत की एक वृहत्तर गाथा को समेटती है। यह सिर्फ एक आर्थिक शक्ति केन्द्र के बारे में नहीं, बल्कि सरकार और मोटा व्यापार इन दोनों के बीच की जटिल रिश्तों की भी पड़ताल करती है।''
एक तरफ हेमिश मेकडॉनाल्ड की यह पुस्तक जासूसी उपन्यास सा मजा देती है; लेकिन चूंकि यह वास्तविक प्रसंगों पर आधारित है, इसलिए दूसरी ओर बेहद डराती भी है। भारत की आर्थिक प्रगति इस तरह से ही होना है जैसा कि लेखक ने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है तो बहुत बड़ा सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या भारत में सचमुच जनतंत्र है? और यदि है तो किसके लिए है? देश की आजादी के बाद राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए जो ढांचा बनाया गया, जो संस्थाएं खड़ी की गईं, वे क्या वाकई गणदेवता के प्रति जिम्मेदार हैं या फिर जनतंत्र के नाम पर हम जो देख रहे हैं वह कठपुतली के तमाशे से बढ़कर कुछ नहीं है? लेखक की पहली पुस्तक में शायद सीधे-सीधे आरोप लगाए गए होंगे जिनकी वजह से उस पर रोक लगाई गई। इसीलिए इस पुस्तक में यह जगह-जगह पर कहा गया है कि फलाने मामले में अंबानी की कोई सीधी भूमिका स्थापित नहीं हो पाई, तथापि लेखक जो कहना चाहता है, वह इतना लिख देने मात्र से स्पष्ट हो जाता है।
मैं इस पुस्तक में वर्णित घटनाओं और प्रसंगों को एक बड़े कैनवास पर समझने की कोशिश कर रहा हूं। अमेरिका में एक कहावत प्रचलित है कि किसी अरबपति से यह मत पूछो कि उसने पहला एक करोड़ किस तरह कमाया था। इसका मतलब है कि बड़े आर्थिक घरानों की नींव में यदि खुला अपराध नहीं, तो संदिग्ध गतिविधियाँ अवश्य रहती हैं। इस कहावत की पुष्टि अमेरिका में ही प्रचलित एक संज्ञा से होती है। वहां उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जिन लोगों ने आर्थिक साम्राज्य खड़े किए उन्हें, अक्सर ''रॉबर बैरन'' कहकर याद किया जाता है। इसका सीधा अर्थ है कि उन लोगों ने कायदे-कानून की धज्जियां उड़ाते हुए आम जनता को लूटकर पैसा कमाया। विवेच्य पुस्तक को पढ़कर लगता है कि भारत की स्थिति भी लगभग ऐसी ही है।
यह हम जानते हैं कि भारत में आज जो पुराने सम्मानित आर्थिक घराने हैं उनमें से अनेक ने या तो चीन को अफीम बेचकर, या फिर सट्टा खेलकर या फिर अंग्रेज बहादुर की सेवा कर प्रारंभिक सफलताएं अर्जित की थीं। लेकिन इधर जो हो रहा है वह तो भौंचक कर देने वाला है। यह सच है कि कोई भी व्यापार अनुकूल सरकारी नीतियों व सरकारी संरक्षण के बिना आगे नहीं बढ़ सकता: जापान, ताइवान, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, फिलीपिंस, थाइलैण्ड, सिंगापुर आदि में तो सरकार और व्यापार का यह गठजोड़ अद्भुत तरीके से चलता है। अगर वहां ऐसा होता है तो भारत में ही उस पर क्यों एतराज हो! किंतु इन देशों व भारत में एक फर्क है। वहां जब भी अनुचित तरीके से राजनैतिक संरक्षण मिलने की बात उजागर होती है, उस पर तुरंत कार्रवाई हो जाती है। इन देशों में मंत्रियों को ही नहीं, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्रियों को भी इस्तीफे देने पड़े और ऐसे उद्योगपतियों को कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। हमारे देश की स्थिति इसके विपरीत है। यहां बड़े से बड़ा कांड हो जाए, कानून अपना काम करेगा- इतनी दुहाई देने मात्र से राहत मिल जाती है।
इस पुस्तक को साक्षी मानें तो देश में ऐसे उद्योगपति हैं जिनके पास कोई प्रदेश तो क्या, केन्द्रीय सरकार बदल देने की शक्ति निहित है। कांग्रेस व भाजपा- इन दोनों बड़ी पार्टियों में कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़ दिया जाए तो एक भी ऐसा नेता नहीं है जो इन शक्तिशाली थैलीशाहों के इंगित पर काम न करता हो। लेखक ने जो संकेत दिए हैं, उनसे अनुमान होता है कि वी.पी. सिंह से वित्त मंत्रालय छीनने से लेकर शंकर सिंह वाघेला को मुख्यमंत्री बनाने तक जैसे अनेक प्रकरणों में अंबानी समूह की भूमिका परदे के पीछे रही। अगर लेखक की बात पर विश्वास किया जाए तो धीरूभाई अंबानी ने एक समय तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को सीधे फोन करके कहा कि यदि वाघेला को उपमुख्यमंत्री बना दिया जाए तो गुजरात का संकट खत्म हो जाएगा।
राजनीति और व्यापार के इस गठजोड़ में स्वाभाविक है कि सरकारी एजेंसियां जैसे सीबीआई, इन्कमटैक्स, सेन्ट्रल एक्साइज, प्रवर्तन निदेशालय, सार्वजनिक व निजी बैंक सबके सब शतरंज की बिसात पर बिछे मोहरों के सिवाय कुछ न हों। ऐसा लगता है कि अधिकारियों के अपने विवेक से निर्णय लेने का अधिकार पूरी तरह छीन लिया गया है। वे या तो स्वयं भ्रष्ट हो गए हैं या फिर बेबस। अगर चंद अधिकारी कर्तव्यनिष्ठ हैं भी तो उनके भाग्य में सिर्फ प्रताड़नाएं ही आती हैं। इसका एक और भयावह पक्ष यह है कि उद्योगपति अपनी व्यवसायिक प्रगति के लिए खूंख्वार अपराधियों की सेवाएं लेने से भी परहेज नहीं करते, फिर वह भले दाऊद इब्राहिम ही क्यों न हो। इन सबको प्रकाश में लाने का काम जो संस्था कर सकती है, याने मीडिया उसकी स्थिति भी बेहतर नहीं है। उन्हें भी या तो खरीद लिया जाता है या फिर खत्म कर दिया जाता है। देश का दुर्भाग्य कि ऐसी आर्थिक समृध्दि पर हम निछावर हुए जा रहे हैं।
11 नवम्बर 2010 को प्रकाशित
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