लोकपाल की आड़ में
लोकपाल विधेयक पर चर्चा चलते हुए तीन माह पूरे हो गए। इतने समय में जनता को शायद यह समझ आ गया होगा कि लोकपाल बनने या न बनने से उसका कोई भला होने वाला नहीं है।
यह सारा व्यायाम, उन दूसरे प्रश्नों से जो कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकते थे, उसका ध्यान हटाने के लिए किया जा रहा है। पिछली जुलाई से अब तक के घटनाचक्र पर एक सरसरी निगाह डालें तो एक के बाद एक जुडी कड़ियां सामने आने लगती हैं। सबसे पहले राष्ट्रमण्डल खेलों का घोटाला सामने आया, उसे खूब उछाला गया। एक तरफ सुरेश कलमाड़ी और उनके कुछ सहयोगी जेल भेजे गए तो दूसरी तरफ देश की सर्वोच्च संस्था यानी संसद की व्यवस्था कैसे पंगु बनाई जा सकती है, यह भी समझ में आया। पहले तो लोकलेखा समिति और संयुक्त संसदीय समिति का विवाद चलते रहा, फिर लोकलेखा समिति में ही मतभेद अभूतपूर्व ढंग से सामने आए। समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी की रिपोर्ट को लोकसभा अध्यक्ष ने ही खारिज कर दिया। अब जेपीसी रिपोर्ट की प्रतीक्षा है।
राष्ट्रमण्डल खेलों का प्रकरण अभी चल ही रहा है। रोज नए-नए घोटाले सामने आ रहे हैं, लेकिन कलमाड़ी प्रसंग के तुरंत बाद राजा प्रसंग प्रारंभ हो गया। 2 जी स्पेक्ट्रम को लेकर ए.राजा और कनिमोझी अपने कुछ कथित सहयोगियों के साथ जेल में हैं। उधर न्यायामूर्ति शिवराज पाटिल की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी बना दी गई तो उधर सीएजी का काम बदस्तूर चल ही रहा है। इस बीच यह खबर भी आई कि सीबीआई ने टाटा और अंबानी को इस प्रकरण में दोषमुक्त कर दिया है। यह भी कहा गया कि नीरा राडिया भी दोषमुक्त हो गई हैं। एक छोटा सा विवाद इस बात पर भी उठा कि नीरा राडिया सीबीआई के निदेशक से मिलने क्यों पहुंचीं और निदेशक ने एक संदिग्ध व्यक्ति को मिलने का मौका क्यों दिया?
इसके बाद विकिलीक्स के खुलासे एक के बाद एक करके अखबारों में छपने लग गए। जितना कुछ भी छपा, कुल मिलाकर प्याली में तूफान ही साबित हुआ। कुछ समय के लिए हम लोग चटखारे लेकर इन खुलासों को पढ़ते रहे, लेकिन इस बिन्दु पर शायद ही किसी ने ध्यान दिया हो कि ऐसे दस्तावेज सार्वजनिक हो जाने का अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक संबंधों पर क्या असर पड़ सकता है। इसके साथ ही यह भी ध्यान नहीं दिया गया कि इन दस्तावेजों में ऐसा क्या था जो लोकमहत्व का था। यह स्पष्ट है कि विकिलीक्स की तुलना किसी भी तरह वॉटरगेट के टैंकों से नहीं की जा सकती, फिर इन्हें उछालने से किसका कौन सा मतलब सध रहा था? यह सब चल ही रहा है कि च्युइंगम प्रकरण सामने आ गया है। प्रणव मुखर्जी ने लगभग एक वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री को गोपनीय पत्र लिखकर अपने दफ्तर में जासूसी होने की आशंका जताई थी। यह जानकारी इतने महीनों बाद एकाएक कैसे सार्वजनिक हो गई? फिर प्रत्यक्षकर बोर्ड और आईबी दोनों की जांच रिपोर्ट के निष्कर्ष अलग-अलग क्यों हैं?
एक तरफ ऐसे प्रकरण सामने आ रहे हैं तो दूसरी तरफ लोकपाल को लेकर बहस चल रही है। ऐसा लगता है कि अब हम लोगों के पास कोई दूसरा काम बचा ही नहीं है। एक समय मुहावरा चलता था- ''चंडूखाने की गप्प'' याने अफीम की पिनक में बेसिर पैर की बातें होना। इसे अपदस्थ किया कॉफी हाउस ने। कहा जाने लगा कि कॉफी हाउस में एक कप कॉफी पर घंटों बैठकर धुएं के छल्ले उड़ाते हुए लोग इस अंदाज में चर्चा करते हैं मानो दुनिया की हर समस्या का समाधान उनके पास है। फिर इसका स्थान ले लिया ए.सी. कमरों में बैठकर बहसें करने के मुहावरे ने। याने समय के साथ-साथ स्थान और परिस्थिति बदलती गई। आज फेसबुक, टि्वटर और एसएमएस चल रहे हैं जिनका जिक्र मैंने पिछले लेख में किया है। सवाल यह है कि कौन लोग हैं जिनके पास ऐसी अंतहीन बहसें करने के लिए समय ही समय है। अगर सर्वेक्षण किया जाए तो पता चलेगा कि या तो ये अवकाशप्राप्त बुजुर्ग हैं जिनके सामने समय काटने के साथ-साथ अपने वजूद बनाए रखने की समस्या है, या फिर लोकतंत्र को कुलीनतंत्र से प्रतिस्थापित करने के लिए बेचैन युवजन हैं।
यह समूचा परिदृश्य चिंता उपजाता है। मुझे लगता है कि देश की युवा पीढ़ी को एक चक्रव्यूह की ओर ढकेला जा रहा है। अभी पिछले सप्ताह की ही बात है- कुछ अखबारों में यह चिंता जाहिर की गई कि भारत में मद्यपान करने के लिए न्यूतनम आयु विश्व में सबसे अधिक है। इस सिलसिले में छपी खबरों में कहा गया कि अनेक देशों में मद्यपान के लिए न्यूनतम वैधानिक आयु अठारह वर्ष है। जाहिर बात है कि एक लॉबी है जो भारत के नवजवानों को कम से कम आयु में मदिरापान करने के लिए प्रेरित करना चाहती है। बाज़ार के द्वारा किए जा रहे इस प्रच्छन्न आक्रमण की सुध न तो बाबा रामदेव को है, जो कोला पेय का विरोध करते हैं, न अन्ना हजारे को जिन्होंने अपने गांव में शराबबंदी आन्दोलन चलाकर ही प्रथमत: ख्याति पाई थी। इस विडंबना पर गौर करना चाहिए कि एक ओर जहां यह हाल है, वहीं दूसरी ओर कितने ही राज्यों में कॉलेजों में प्रत्यक्ष रूप से छात्रसंघ चुनाव नहीं हो सकते। मेरा राज्य छत्तीसगढ़ भी इनमें से एक हैं। जब भारत का संविधान अठारह वर्ष के युवा के लिए मतदान का प्रावधान कर देश की राजनीति में प्रत्यक्ष का प्रावधान देता है, तब उसी युवा को छात्रसंघ चुनाव में भाग लेने से रोकने में कौन सी बुध्दिमानी है?
इस बीच हमने यह भी देखा कि छत्तीसगढ़ में पूर्व मेडिकल परीक्षा पर्चे फूट जाने के कारण दूसरी बार स्थगित की गई। अफवाह है कि इस चोर दरवाजे से मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के लिए बारह लाख रुपए प्रति छात्र वसूले गए। वे अभिभावक कौन हैं जो अपने बच्चों का भविष्य संवारने के लिए इतनी बड़ी रकम खर्च कर सकते हैं? इस कारगुजारी में क्या सरकारी मंत्री और राजेनता दोनों शामिल नहीं हैं? इनके लिए आप कौन से लोकपाल की व्यवस्था करेंगे?
अभी 3 जुलाई को प्रधानमंत्री सारे राजनीतिक दलों के साथ लोकपाल विधेयक पर चर्चा करेंगे। उधर अन्ना हजारे ने पहले से धमकी दे दी है कि उनकी मर्जी के अनुसार लोकपाल कानून नहीं बना तो वे 16 अगस्त से आमरण अनशन पर बैठ जाएंगे। ये सब मिलकर जो चाहे सो करें, लेकिन जरूरत इस बात की है कि जनता इनके झांसे में न आए। जनता के सामने महंगाई की विकराल समस्या है। छठे वेतन आयोग के चलते कीमतें बढ़ी हैं जिसका दुष्प्रभाव मुख्य रूप से असंगठित क्षेत्र के कामगारों पर ही पड़ रहा है। बेरोजगारी, फिर जमीन से बेदखली, शिक्षा में गुणवत्ता का अभाव, प्राथमिक चिकित्सा सेवा न होना- ये सारे प्रश्न लगातार चुनौती दे रहे हैं। इन सबसे जूझने के लिए नौजवानों को ही सामने आना होगा। थकी हुई पुरानी पीढ़ी से कोई उम्मीद रखना व्यर्थ है।
30 जून 2011 को प्रकाशित
No comments:
Post a Comment