Saturday 21 April 2012

भ्रष्टाचार- 1

मैंने भ्रष्टाचार के विभिन्न पहलुओं एवं घटनाओं पर जो लेख लिखे हैं, उन्हें यहाँ एक के बाद एक प्रस्तुत करने का इरादा है. ये सभी लेख देशबंधु में मेरे नियमित कॉलम के अंतर्गत प्रकाशित हो चुके हैं.


असत्य का पारावार-1


स्वतंत्र भारत में आर्थिक घोटाले का पहला बड़ा प्रसंग 1957-58 में मूंदड़ा प्रकरण के रूप में सामने आया था जब तत्कालीन वित्तमंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी को नैतिक आधार पर अपना पद छोड़ना पड़ा था तथा उद्योगपति हरिदास मूंदड़ा को लंबी सजा हुई थी। दिलचस्प तथ्य यह है कि संसद सदस्य फीरोज गांधी ने इस घोटाले को उजागर करने में बड़ी भूमिका निभाई थी। उसी दौर में प्रख्यात उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया को भी जेल जाना पड़ा था तथा एक जहाज कंपनी के बहुचर्चित मालिक जयंती धर्मतेजा को भी। 
आज सत्यम घोटाला देखकर ये पुराने प्रकरण सहसा याद आ गए। उस पुराने दौर का यह प्रसंग भी याद आता है कि रेलमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने ट्रेन दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए पदत्याग कर दिया था। यदि इतिहास के किसी दौर का कोई प्रसंग वर्तमान को समझने में सहायक हो सके तो हमें एक कालखण्ड का स्मरण और कर लेना चाहिए। यह दौर 1991 के आसपास प्रारंभ हुआ था। इसी दौरान हर्षद मेहता का शेयर घोटाला सामने आया था। शेयर मार्केट में भारी अफरा-तफरी मच गई थी। इस कांड ने कितने ही लोगों को अपनी साख खत्म होते देख आत्महत्या तक करने को मजबूर कर दिया था। 
यह पी.वी. नरसिम्हराव का समय था तथा उनके परिजनों पर भी एकाधिक घोटालों में शामिल होने के आरोप लगे थे। हर्षद मेहता कांड के दौरान तत्कालीन वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की एक उक्ति ने जनमानस को उद्वेलित कर दिया था। डॉ. सिंह ने कहा था कि शेयर मार्केट के उतार-चढ़ाव के लिए वे अपनी रात की नींद बर्बाद नहीं कर सकते। आज जो परिदृश्य हमारे सामने है उसे चाहे तो एक नया दौर मान सकते हैं, लेकिन इसे 1991 में प्रारंभ हुए दौर का तार्किक विस्तार भी माना जा सकता है। जिन दो कालखण्डों का हमने ऊपर जिक्र किया उनमें एक बड़ा फर्क देखा जा सकता है। सन् 50 और 60 के दशक में भी अपने समय के हिसाब से वैभव- विलास कम नहीं था, लेकिन उस दौर के धनपति आडंबर और दिखावे से किसी हद तक बचने की कोशिश करते थे, कभी-कभार वे ग्लानि का बोध भी करते थे, और राजनेताओं का जहां तक सवाल है उनमें अधिकतर की छवि पूरी तरह से उावल न सही, उन पर ''दाग अच्छे हैं'' वाला विज्ञापनी जुमला लागू नहीं होता था। इन दोनों के बीच बोफोर्स कांड भी सामने आया था। 

उसका सच-झूठ शायद कभी उजागर नहीं हो पाएगा, लेकिन यह तो हमारे सामने है कि राजीव गांधी को इसकी कीमत प्रधानमंत्री पद गंवा कर ही चुकानी पडी थी। आज की बात करें तो जनता का विश्वास किसी पर भी नहीं है। यह आम धारणा बन चुकी है कि इस देश का शासन-प्रशासन सिर्फ उनके लिए है जो तथाकथित रूप से बडे लोग माने जाते हैं। इसका प्रतिबिंब पिछले दस-पंद्रह साल में बनी बंबईया फिल्मों में बखूबी देखा जा सकता है। यदि हम पुरानी फिल्मों को देखें तो वहाँ हमारा नायक अकसर एक साफ-सुथरे चरित्र का सरल हृदय व्यक्ति होता था। इस छवि में बदलाव संभवत: ''नमकहराम'' फिल्म के साथ आना शुरु हुआ जहां पहली बार राजेश खन्ना की छवि अमिताभ बच्चन के सामने फीकी पड़ गई। इसके बाद तेजी के साथ भारतीय फिल्मों में प्रतिनायक अथवा एंटी हीरो की स्थापना होनी शुरु हुई जो ''सरकार'' जैसी फिल्मों तक लगातार चली आई है। इस बीच में ''हम आपके हैं कौन'' शैली की फिल्में भी आईं हैं जो निजी सुख भोग को सर्वोपरि सिध्द करती हैं और जहां वृहत्तर समाज के सुख-दु:ख हाशिए से भी बाहर कर दिए जाते हैं। 

यह उस बदलते भारत की तस्वीर है जिसे विलास की संस्कृति में अथवा ''कारपोरेट कल्चर'' में बुरी तरह से अपनी जकड़ में ले लिया है। यहां धन अर्जित करना प्रथम और अंतिम उद्देश्य है। इसमें साधन की पवित्रता पर कोई विचार नहीं है। इस अर्जित धन का अश्लील प्रदर्शन करने में कोई संकोच नहीं है। इसे विलासिता में व्यय करने में कोई ग्लानि नहीं है। एक समय बंबई के एक डॉक्टर दंपत्ति ने संजीवनी नामक संस्था बनाई थी। वे पार्टियों का बचा खाना मांग-मांग कर लाते थे और उसे गरीब बस्तियों में जाकर भूखे पेट सोने वालों को खिलाते थे। अब ऐसी विगलित दया भी नवधनिक वर्र्ग में नहीं है। कहना न होगा कि सत्यम में जो कुछ हुआ है इस नई संस्कृति की ही देन है। दुर्भाग्य का विषय यह है कि इस प्रकरण का जो वृहत्तर सामाजिक पक्ष है उसके बारे में सोचने के लिए कोई अभी तैयार नहीं है। हम रेखांकित करना चाहेंगे कि सत्यम प्रकरण सिर्फ एक आर्थिक घोटाला नहीं है। उसका नाभि-नाल संबंध उस विकृत सोच से है जिसे मोटे तौर पर हम वैश्वीकरण के नाम पर जानते हैं। 

हमारे लिए यह बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं है कि सत्यम के मालिक राजू तथा इस षडयंत्र में अन्य भागीदारों को कब और कितनी सजा होती है। यह प्रश्न भी निरर्थक है कि 53 हजार कर्मचारियों का क्या होगा? वे सब पढ़े-लिखे, सॉफ्टवेयर इंजीनियर, एमबीए, एमटेक आदि-आदि हैं। उन्हें नई नौकरी मिलने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। 
कंपनी के शेयरधारकों के बारे में तो कोई चिंता ही नहीं करना चाहिए। शेयर बाजार में पैसा असीमित लालच के वशीभूत हो लगाया जाता है, सो लोगों को अपने लालच का फल भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। सत्यम को नहीं बचाया गया तो विश्व बाजार में साख गिर जाएगी यह बात भी बेमानी है। एनरॉन और वर्ल्डटेल के डूबने से अमेरिका नहीं डूबा। आज इस घोटाले की पृष्ठभूमि में देश के सामने दो अहम् प्रश्न हैं। एक तो यह कि सरकार अंधाधुंध निजीकरण की वर्तमान नीति पर कायम रहती है या सार्वजनिक क्षेत्र के अनिवार्य महत्व को वापिस स्वीकार करती है। आखिरकार ईसीआईएल, केलट्रॉन, अपट्रॉन जैसी सरकारी कंपनियों से ही भारत में आईटी युग का पदार्पण हुआ था। प्राइस वाटर हाउस कूपर जैसी विदेशी फर्मों का भारत में क्या काम है, इस पर भी पुनर्विचार होना चाहिए। दूसरे, आज भारतीय समाज को इस बिन्दु पर नए सिरे से मंथन करने की जरूरत है कि हम किस दिशा में आगे बढ़ना चाहते हैं? हम जब तक विदेशी ब्रांड, विदेशी कंपनी, आकर्षक पैकेज, लक्जरी कार, लक्जरी अपार्टमेंट और इस तरह की ढेर सारी इच्छाओं से प्रेरित होते रहेंगे तब तक सत्यम जैसे प्रकरण भी नित्य घटित होते रहेंगे। आज सत्यम का असत्य उजागर हो चुका है लेकिन झूठ और धोखाधड़ी का पारावार सतह के नीचे लहरा रहा है- इसे भूलने से काम नहीं चलेगा।

 2 फ़रवरी 2009 को प्रकाशित 

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