Friday, 20 April 2012

उसमें प्राण जगाओ साथी- 18

''हमारे राजनैतिक संवाददाता''
मायाराम सुरजन के विपुल लेखन का पुस्तक रूप में पहला संकलन ''मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के'' माध्यम से सामने आया। इसलिए हमारी स्वाभाविक इच्छा थी कि इस पुस्तक का लोकार्पण जरा धूमधाम से हो। यूं तो कार्यक्रम रायपुर अथवा भोपाल में भी किया जा सकता था लेकिन हमारे संपादक मंडल की इच्छा दिल्ली में कार्यक्रम करने की थी। उपराष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा मना कर चुके थे। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुनसिंह से हमने संपर्क किया तथा उनके सुझाव पर लोकसभा अध्यक्ष शिवराज पाटिल को मुख्य अतिथि की हैसियत से आमंत्रित किया गया। लेखक और पुस्तक दोनों का परिचय देने के लिए डॉ. नामवर सिंह से संपर्क किया, उन्होंने भी अपनी सहमति दे दी। अर्जुनसिंह कार्यक्रम की अध्यक्षता करेंगे यह बात भी तय हो गई।
12 दिसम्बर 1992 को नई दिल्ली के आईफैक्स सभागार में कार्यक्रम रखा गया। मप्र से जुड़े अनेक राजनेता, अधिकारी, पत्रकार व साहित्यकार कार्यक्रम में आए। दिल्ली में बाबूजी के मित्र मंडली के बहुत सारे साथी भी जुटे तथा साहित्य व पत्रकारिता के अनेक नामचीन व्यक्ति भी। बाबूजी जैसे निस्संग व्यक्ति ने इस पूरे कार्यक्रम को सहज भाव से लिया, लेकिन इस अवसर पर में काफी रोमांचित था। मुख्य अतिथि शिवराज पाटिल ने पुस्तक पढ़ ली थी तथा उन्होंने बहुत सुन्दर तरीके से पुस्तक पर अपने विचार व्यक्त किए। अर्जुन सिंह तो कम शब्दों में ही ज्यादा बात कर जाते हैं, लेकिन नामवर जी ने निराश किया। उन्होंने शुरुआत ही इस बात से की कि मायाराम जी की पुस्तक मुझे मिल तो गई थी, लेकिन इसे मैं पढ़ नहीं पाया हूं। इसके बाद वे शब्दाडम्बर रचते रहे। उनसे ऐसे हल्के व्यवहार की उम्मीद नहीं थी।
जब नामवर जी की बात निकली है तो बाबूजी के साथ जुड़े एक और प्रसंग का उल्लेख कर देना उचित  होगा। अभी डेढ़-दो साल पहले किसी पत्रिका को दिए साक्षात्कार में नामवर सिंह ने बाबूजी पर सीधे-सीधे आरोप लगाया कि वे राजा राममोहन राय लायब्रेरी के अध्यक्ष बनना चाहते थे, इसलिए अर्जुनसिंह के कान भर कर नामवर जी को उस पद से हटवा दिया। यह वक्तव्य न सिर्फ असत्य है वरन् एक स्वर्गीय मित्र की स्मृति का अपमान भी है। दरअसल नामवरजी के कार्य से मंत्री जी संतुष्ट नहीं थे, उन्हें शिकायतें मिल रही थीं। नामवरजी को सीधे कुछ कहने के बजाय अर्जुन सिंह ने बाबूजी को माध्यम बनाया कि आप नामवर जी को इस्तीफा देने के लिए राजी कर लें वरना सरकार को उन्हें हटाने अपनी कार्रवाई करनी पड़ेगी। यानी अर्जुनसिंह नामवरजी की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने देना चाहते थे। बाबूजी ने यह संदेशा यथास्थान पहुंचा दिया। वे जो दैनंदिन डायरी लिखा करते थे उसमें इस प्रसंग का उल्लेख है। इन दोनों प्रसंगों से मुझे धनंजय बैरागी के बंगला उपन्यास का शीर्षक याद आता है- ''नमक का पुतला सागर में''। इस प्रसंग को यहीं छोड़ बाबूजी के लेखन के एक और पक्ष पर आगे बात करें।
जैसा कि हम देख आए हैं मप्र की राजनीति की जैसी समझ  बाबूजी को थी वैसी उनके समकालीन किसी भी पत्रकार को नहीं थी। उनके संपर्कों का दायरा विशाल था तथा वे रायपुर, भोपाल, जबलपुर जहां भी हों, राजनेताओं के साथ उनकी भेंट मुलाकातों का सिलसिला लगातार चलता रहता था। आम चुनाव के पहले गहमागहमी कुछ और बढ़ जाती थी। कांग्रेस के टिकटार्थी यह आशा लेकर उनके पास आते थे कि वे अपने संपर्कों का उपयोग कर उन्हें टिकट दिलवा सकेंगे। बाबूजी ने इसमें कभी खास दिलचस्पी नहीं ली लेकिन एक काम वे अवश्य करते थे। इन भेंट मुलाकातों से उन्हें चुनाव पूर्व की स्थिति का काफी कुछ सही अनुमान हो जाता था। इसके आधार पर वे टिकट वितरण के पहले दस-पन्द्रह लेखों की एक श्रृंखला ''हमारे राजनीतिक संवाददाता'' अथवा ''विशेष संवाददाता'' के नाम से लिखा करते थे। इसमें वे मप्र की तीन सौ बीस (पहले 294) विधानसभा सीटों का विश्लेषण कर बतलाते थे कि कांग्रेस का कौन सा उम्मीदवार जीतने की स्थिति में है। वे हर सीट के लिए अपनी ओर से दो या तीन नामों का प्रस्ताव करते थे और हमने देखा कि कांग्रेस की चयन समिति अधिकांशत: इन्हीं नामोें में से उम्मीदवार चुनती थी। यह पंचवर्षीय आकलन वे उस समय तक करते रहते जब तक कांग्रेस पार्टी में ऊपर से उम्मीदवार थोपने की प्रथा शुरू नहीं हो गई। जब उन्हें लगा कि पार्टी में आंतरिक जनतंत्र कमजोर हो गया है तब उन्होंने अपनी राय देना बंद कर दिया।
अपने गांधी-नेहरूवादी संस्कारों के कारण कांग्रेस पार्टी का यह क्षरण उन्हें व्यथित करता था तथा अपने कई लेखों में उन्होंने इस अवांछित परिपाटी के खिलाफ लिखा है। 1971 में जब श्यामाचरण शुक्ल को हटाकर प्रकाशचंद्र सेठी को मुख्यमंत्री बनाया गया तब भी बाबूजी ने उसके विरूध्द लिखा। उनका साफ कहना था कि मुख्यमंत्री के चयन का अधिकार विधायक दल को ही होना चाहिए तथा ऊपर की मर्जी इस तरह लादे जाने से आगे चलकर पार्टी को नुकसान होगा। वे एक गंभीर समाजचिंतक के रूप में दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ पा रहे थे लेकिन इसकी कांग्रेस को जरूरत नहीं थी।
1972 के विधानसभा चुनावों में एक और रोचक प्रसंग घटित हुआ। इस साल कांग्रेस और सीपीआई के बीच चुनावी समझौता हुआ तथा साम्यवादी दल के लिए कांग्रेस ने पांच सीटें छोड़ दी। इसमें रायपुर की सीट भी शामिल थी। यहां से सीपीआई के उम्मीदवार लोकप्रिय जननेता सुधीर दादा याने सुधीर मुखर्जी पार्टी के चुनाव चिन्ह के बजाय निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में शेर छाप चुनाव चिन्ह पर खड़े हुए। देशबन्धु के संपादक मंडल ने उन्हेें अपना खुला समर्थन देना तय किया। यद्यपि बाबूजी उस समय रायपुर से बाहर थे और हमने उनसे राय नहीं कर सके। जब बाबूजी लौटकर आए तो मैदानी स्थिति का जायजा लेने के बाद उन्हें ऐसा लगा कि देशबन्धु का समर्थन तभी सफल हो पाएगा जब चुनाव संचालन व्यवस्थित तरीके से हो। यह जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ली व रायपुर में पूरे समय बैठकर चुनाव संचालन किया। यह पहला और आखिरी अवसर था जब किसी उम्मीदवार के लिए उन्हें अपना काम-धाम छोड़कर इस तरह मैदान में उतरना पड़ा हो।

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