आन्दोलन से उभरती तस्वीर-२
आज उन कुछ बिन्दुओं पर बात जिन पर पिछले लेख में स्थानाभाव के कारण चर्चा नहीं हो सकी थी।
वर्तमान में चल रही भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को लेकर एक बात सामने आई है- नए जनसंचार माध्यम अर्थात् न्यू सोशल मीडिया की। कुछेक अध्येताओं का मानना है कि टयूनीसिया से प्रारंभ होकर संपूर्ण अरब जगत में उठ रही परिवर्तन की लहर के पीछे इस नए माध्यम की महती भूमिका रही है। वे भारतीय राजनीति में भी परिवर्तन लाने में इसकी सक्रिय और निर्णायक भूमिका होने की संभावना व्यक्त करते हैं। उनकी बात को एकाएक नहीं नकारा जा सकता। मेरे पास भी प्रतिदिन ई-मेल और एसएमएस पर दर्जनों संदेश आ रहे हैं जिनमें एक ओर यूपीए सरकार की आलोचना ही नहीं, भर्त्सना तक होती है; वहीं दूसरी ओर अन्ना हजारे व बाबा रामदेव पर अगाध विश्वास प्रकट करते हुए उनकी अंतहीन प्रशंसा होती है। मैं चूंकि फेसबुक व टि्वटर आदि का सदस्य नहीं हूं, इसलिए उनमें चल रही चर्चाओं से मैं अनभिज्ञ हूं, लेकिन उन पर शायद ज्यादा विस्तार से यही चर्चाएं हो रही हैं।
यह मानी हुई बात है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के जो भी आविष्कार होते हैं उनका उपयोग समाज द्वारा किसी न किसी रूप में किया ही जाता है। ''आवश्यकता आविष्कार की जननी है''- यह कहावत यूं ही नहीं बन गई थी। प्राचीन समय में भी जनसंचार माध्यमों का उपयोग किया जाता था, जिसे आजकल हम पत्रकारिता की कक्षाओं में पत्रकारिता के इतिहास के अंग के रूप में पढ़ाते हैं। आज तो संचार क्रांति का ही दौर चल रहा है। स्वाभाविक है कि नए-पुराने जो भी माध्यम हों, उनका उपयोग किया ही जाएगा; लेकिन अरब जगत से भारत की तुलना करना तात्कालिक भावुकतापूर्ण प्रतिक्रिया से ज्यादा कुछ नहीं है। भारत की राजनैतिक स्थितियों पर सरसरी निगाह डाल लेने से ही बात स्पष्ट हो जाती है। अरब देशों में तीन-तीन दशकों से सैन्य तानाशाही अथवा निरंकुश राजतंत्र कायम है, जिसके खिलाफ वहां की जनता उठ खड़ी हुई है, क्योंकि उसकी सहनशक्ति जवाब दे चुकी है और सुनवाई का कोई जरिया नहीं है। अरब जगत की चर्चा करते हुए इस तथ्य पर भी गौर करना आवश्यक है कि वहां जनता सड़कों पर निकल आई है और अब उसे सत्ता की बंदूकों का खौफ नहीं है।
मेरी राय में वहां भी न्यू मीडिया जनान्दोलन में एक पूरक भूमिका ही निभा रहा है न कि उत्प्रेरक की। दूसरी ओर, भारत की स्थिति बिलकुल भिन्न है। यहां न तो निरंकुश सत्ता है और न ही मुखर जनान्दोलन। सच तो यह है कि दिल्ली में बैठकर जो आन्दोलन चलाया जा रहा है उसका असर उत्तर भारत में ही थोड़ा बहुत देखने मिल रहा है, अन्यत्र इन अनशनों और आन्दोलनों के बारे में कोई चर्चा भी नहीं हो रही है। फिर जो व्यक्ति न्यू मीडिया का उपयोग कर रहे हैं, उनकी संख्या बहुत कम है और उनसे किसी जनांदोलन में भाग लेने की उम्मीद बेमानी है। एक समय अखबारों में वक्तव्य छपवाकर नेतागिरी करने वालों को हम लोग ''पेपर टाइगर'' की संज्ञा देते थे; पांच-सात साल पहले मैंने इंटरनेट पर बड़ी-बड़ी बातें करने वालों को ''इंटरनेट वॉरियर'' की संज्ञा दी थी; अभी जो लोग न्यू मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं, वे अधिकतर दंतविहीन-नखविहीन-आन्दोलनभीरु प्राणी हैं। वे अपनी बनाई हुई दुनिया में मुग्ध हैं: इन्हें वहीं रहने देना चाहिए।
मैं ओल्ड मीडिया याने अखबार और टीवी की भी थोड़ी चर्चा करूं। हम अपने पाठकों और दर्शकों को आन्दोलन की दिन-ब-दिन खबर दें, यह तो बिलकुल ठीक है, लेकिन लोकपाल विधेयक पर अथवा भ्रष्टाचार दूर करने के अन्य उपायों पर हमारी अपनी क्या राय है? पिछले तीन माहों में क्या हमने इस बारे में समाज और सरकार के सामने कोई ठोस सुझाव रखे हैं? क्या हमने अपने पाठकों से इस विषय पर कोई गंभीर चर्चा करने की कोशिश की है? मैं कवि दुष्यंत कुमार की बात को पलटकर कहूं तो पूछना होगा कि यदि हम सूरत बदलना चाहते हैं तो फिर हंगामा खड़ा करने की क्या जरूरत है? जाहिर है कि देश के पूंजीमुखी मीडिया का असली इरादा कुछ और ही है। पिछले तीन माह से चल रहे आन्दोलन के कारण लोकहित के कितने ही मुद्दे दरकिनार कर दिए गए हैं। इसे क्रूर विडंबना ही कहा जाएगा कि जब सारे फ्लैशलाइट बाबा रामदेव पर चमक रहे थे, ठीक उसी समय देहरादून के उसी अस्पताल में, खनिज माफिया के खिलाफ अनशन पर बैठे स्वामी निगमानंद आखिरी साँस ले रहे थे और उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं था। पाठक किसी भी दिन का अखबार उठाकर देख लें, स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार की दर्जनों खबरें रोज छप रहीं हैं। इनके बारे में न कोई एसएमएस करता, न फेसबुक व टि्वटर पर ही इसकी चर्चा होती और न इसके खिलाफ जनांदोलन करने पर विचार होता है।
भारत में भ्रष्टाचार का जो विकराल रूप जो आज दिखाई दे रहा है, इसके बारे में एक तो यह समझना चाहिए कि पीवी नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्रित्वकाल और डॉ. मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री रहते जो नई आर्थिक नीतियां लागू की गई थीं, यह उनका ही परिणाम है और दूसरे आज यह भी समझ लेना चाहिए कि यह आर्थिक उदारवाद नहीं बल्कि क्रमिक एकाधिकारवाद है तथा इसमें हरहमेश बड़े-बड़े भ्रष्टाचार की गुंजाइश बनी रहेगी। विश्व की पूंजीवादी ताकतों के लिए वह स्थिति सुविधाजनक होती है, जिसमें सत्तातंत्र को कटघरे में खड़ा किया जा सके क्योंकि उसकी आड़ में वे अपनी दुरभिसंधियां संचालित कर सकते हैं। यह देखना कठिन नहीं है कि एक ओर जहां सत्तारूढ़ गठबंधन के नेताओं पर निशाने साधे जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उन औद्योगिक घरानों की बात कोई भी आन्दोलनकारी नहीं कर रहा है जो ऐसे भ्रष्टाचार के प्रथम कर्ता हैं।
इस प्रसंग में सिविल सोसायटी की चर्चा करते हुए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद याने एनएसी की भूमिका पर भी प्रश्न उठाए जा रहे हैं। मैं एनएसी के वर्तमान स्वरूप से कतई संतुष्ट नहीं हूं, उसके कारण अलग हैं; लेकिन परिषद ने अभी तक अपनी सीमाओं से परे जाकर अवांछित आचरण का कोई परिचय नहीं दिया है, इसलिए उसकी तुलना अन्ना हजारे की टीम से नहीं की जानी चाहिए। अन्ना व उनके साथियों को लोकपाल समिति को अपना काम पूरा करने तक इंतजार करना था। वे अपनी असहमति और असंतोष को बाद में सार्वजनिक कर सकते थे, ऐसा करने में ही उनके आन्दोलन की मर्यादा थी। दूसरी ओर बाबा रामदेव रामलीला मैदान छोड़कर भागने के बजाय पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर देते तो उनकी प्रतिष्ठा बढ़ जाती। दुर्भाग्य से इन दोनों ने उन तमाम लोगों को निराश ही किया है जो इनसे भारी उम्मीदें बाँधे हुए थे।
23 जून 2011 को प्रकाशित
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