Monday 23 April 2012

भ्रष्टाचार-14


अनशन से फायदा किसे   


आम जनता को लग रहा है कि अन्ना हजारे द्वारा प्रस्तावित जनलोकपाल कानून बन जाने से देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल जाएगी।
जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त है और अन्ना हजारे के अभियान में आशा की किरण देखकर कम से कम मध्यम वर्ग तो उनके साथ जुड़ ही गया है, लेकिन यह बात जनता को समझ लेना चाहिए कि अन्ना के पास जादू की छड़ी नहीं है। यदि कल को संसद अन्ना के मसौदे पर विचार करने का मन बना ले तब भी उसे कानून की शक्ल मिल पाएगी, इसमें शक है। आज विरोधी दल तात्कालिक हित के लिए भले ही अन्ना का समर्थन कर रहे हों; यह तय है कि जनलोकपाल का मसौदा किसी को भी स्वीकार नहीं है।

बुधवार को लोकसभा में जितनी चर्चा हुई उसमें हर राजनीतिक दल ने यह कहा कि वे अन्ना हजारे द्वारा प्रस्तावित सुझावों से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। सुषमा स्वराज, शरद पवार, गुरुदास दासगुप्ता इत्यादि ने अन्ना को अनशन न करने देने और उनकी गिरफ्तारी पर सरकार की खूब खिंचाई की, लेकिन इनमें से कोई भी यह कहने से नहीं चूका कि वे अन्ना के प्रस्तावों का पूरा समर्थन नहीं करते। सुषमा स्वराज ने तो एक कदम आगे बढ़कर यहां तक कहा कि अन्ना ने प्रधानमंत्री को 14 अगस्त को जो पत्र लिखा, उसकी कुछ बातें गलत थीं। इस वास्तविकता को जानने के बाद सवाल उठता है कि जनता का एक वर्ग फिर क्यों आंख मूंदकर अन्ना और उनके साथियों की बात पर भरोसा कर रहा है। इसी के साथ एक और सवाल उठता है कि अन्ना का यह आभामंडल कैसे बना।

आज याने गुरुवार की दोपहर इंडिया टुडे समूह के चैनल हेडलाइन्स टुडे में जो परिचर्चा आई, उसमें इस दूसरे सवाल का जवाब मिलता है। बहस का शीर्षक था ''क्या अन्ना को मीडिया ने स्थापित किया है?'' इस बहस में जो चार जाने-माने लोग भाग ले रहे थे, उसमें सबने यह स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन उसके बहाने अन्ना को हीरो बनाने में मीडिया की अहम् भूमिका रही है। इनमें से एक वार्ताकार दिलीप चेरियन ने तो यहां तक कहा कि आज के दौर में मीडिया के माध्यम से ही कोई आन्दोलन हो सकता है। इस बहस में यह बात स्थापित हुई कि यदि मीडिया खासकर टीवी ने इतना बढ़-चढक़र कवरेज न किया होता तो आन्दोलन को जो विस्तार मिला, वह नहीं मिल सकता था।

आजकल के जो संचार माध्यम हैं उनकी उपयोगिता से कौन इंकार करेगा, लेकिन इसी रविवार को द हिन्दू में सेवंती नाइनन ने एक गंभीर प्रश्न उठाया है कि जो नया सामाजिक मीडिया आया है, क्या वह हमेशा समाज हितैषी ही होगा या उसकी कोई नुकसानदायक भूमिका भी हो सकती है! उन्होंने इंग्लैण्ड के हाल के उपद्रवों का उदाहरण देकर बताया है कि कैसे फेसबुक, टि्वटर आदि का दुरुपयोग किया गया। इसी बात को भारत के संदर्भ में रखकर देखें। ये माध्यम बच्चों के खिलौने नहीं हैं, इनका शौक रखना एक बात है, लेकिन इनके अच्छे और बुरे प्रभावों के बारे में विचार करना भी आवश्यक है।

यह समझा जाता है कि अरब जगत में खासकर टयूनीशिया और इजिप्त में सत्ता परिवर्तन में इन माध्यमों ने अहम् भूमिका अदा की। ऐसा लगता है कि भारत का मीडिया उस समय से ही उतावला था कि यहां भी वैसा कुछ कर दिया जाए। मैं एक बार फिर मार्शल मैकलुहान की उक्ति याद करता हूं कि ''माध्यम ही संदेश है'' (मीडिया इंज द मैसेज)। जैसा कि सब जानते हैं मीडिया अब पत्रकारों के हाथ में नहीं, बल्कि कार्पोरेट घरानों के हाथ में है। विश्व की अर्थव्यवस्था और राजनीति पर नियंत्रण करने के लिए इन महापूंजीपतियों के पास मीडिया के रूप में एक सशक्त अस्त्र आ गया है। अन्ना को महानायक बनाने में इस अस्त्र का इस्तेमाल करना उनकी रणनीति का ही हिस्सा माना जा सकता है, लेकिन यहीं उनकी एक विसंगति पर भी गौर करें। आज सुबह तक मीडिया अनथक अन्ना को कवरेज दे रहा था, लेकिन दोपहर बाद वह कुछ-कुछ ठंडा पड ग़या। क्या इसलिए कि सरकार द्वारा स्थिति संभाल लेने के बाद सनसनी फैलाने के लिए फिलहाल कोई और बिन्दु नहीं था; या इसलिए कि एक अरब बीस करोड़ लोगों को बहुत लंबे समय तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता, यह बात उसे समझ आ गई थी?

यह तय है कि मीडिया आगे भी ऐसे अवसरों की तलाश में रहेगा, जहां वह आमजनता को अपने  बनाए एजेंडे पर ले जा सके। फिलहाल थोड़ा गौर इस पर भी करें कि अन्ना के अनशन से मीडिया के अलावा और किस-किस को लाभ हो सकता है। अगर सरकार पर कोई आंच आती है तो उसका लाभ शायद भाजपा को ही मिलेगा, जैसा कि मैंने कल भी लिखा था। इसके अलावा कांग्रेस में जो असंतुष्ट हैं उनके लिए भी शायद यह एक अनुकूल अवसर हो सकता है। स्मरणीय है कि सरकार की तरफ से पी. चिदम्बरम, कपिल सिब्बल और अंबिका सोनी ही कमान संभाले रहे; ए.के. एंटोनी, वीरप्पा मोइली, सलमान खुर्शीद इत्यादि इस बीच शायद ही कहीं दिखे हों। दूसरे अन्ना के आन्दोलन को साधन उपलब्ध कराने में देश के वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों व अप्रवासी भारतीयों का काफी योगदान रहा। उनके क्या मंसूबे हैं, इसे समझना पड़ेगा। तीसरे बहुत से जनआन्दोलनों और स्वैच्छिक संगठनों को भी सरकार को छकाने के लिए यह एक अच्छा अवसर प्रतीत हुआ। ध्यान रहे कि उनके बीच भी नीतिगत और राजनीतिगत बहुत से विभेद हैं। कुल मिलाकर अन्ना को समर्थन देने के पीछे सबने अपना-अपना लाभ देखा, लेकिन अंत में जिन्हें ठगे जाना है वह आम जनता ही है।


19 अगस्त 2011 को प्रकाशित 

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