Friday 20 April 2012

उसमें प्राण जगाओ साथी- 14


अचल संपत्ति संचारी भाव

देशबन्धु का रायपुर संस्करण 1979 से अपने निजी भवन में है। यह पहिली अचल सम्पत्ति है जो बाबूजी अखबार के लिए तैयार कर सकेलेकिन इसके लिए भी उन्हें न जाने किन-किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा। एक प्रसंग का जिक्र तो मैंने पिछले अध्याय में ही कर दिया है। इसके अलावा और भी जो दिक्कतें आर्इं उन सबका विवरण बाबूजी की आत्मकथा 'धूप छांह के दिनमें देखा जा सकता है। किंतु ऐसे दो प्रसंग जिनका मैं प्रत्यक्षदर्शी ही नहीं भागीदार भी रहा हूं का जिक्र संभवत:यहां किया जा सकता है।
जब बाबूजी ने देशबन्धु के लिए ऑफसेट मशीन खरीदने की योजना बनाई तो यह भी अवश्यक हो गया कि उसके लिए उपयुक्त भवन हो। नहरपारा की जिस पुरानी इमारत में रूड़ाभाई के आशीर्वाद और उनके पुत्र कांतिभाई की सानता से हमारा काम निकल रहा था,वह अब नई मशीन और उसके सरइंतजामों के लिए नाकाफी था। भूखण्ड तो हमारे पास था,लेकिन प्रश्न था कि भवन बनाने के लिए रकम कहां से जुटाई जाए। म.प्रवित्त निगम ने मशीन और भवन के लिए 52 लाख रुपए का ऋण स्वीकृत कर दिया था लेकिन 25 प्रतिशत मार्जिन मनी याने तेरह लाख रुपए का इंतजाम तो करना ही था। हमारे ऋण प्रकरण में वित्त निगम के क्षेत्रीय प्रबंधक श्री वी.एनगर्ग ने बहुत ही सद्भाव का परिचय देते हुए सहायता की लेकिन ये आपातकाल के बाद का समय था तथा प्रेस की स्वाधीनता की दुहाई देने वाले हमें परेशान करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे थे।
खैरतेरह लाख की राशि उस समय के हिसाब से बहुत ज्यादा थी। हमें ओवर इन्वायसिंग या अंडर इन्वायसिंग का खेल न तब समझ आता थान आज समझ आता है। ऐसे समय देशबन्धु के सबसे वरिष्ठ सहयोगी (नियुक्ति क्रम मेंदुर्ग जिला प्रतिनिधि धीरजलाल जैन ने एक विचार सामने रखा। उन्होंने अखबार के तत्कालीन ग्राहक शुल्क का गुणा-भाग करके बताया कि यदि हम छह सौ रुपए के आजीवन ग्राहक बना लें तो दो हजार ग्राहकों से प्राप्त रकम से मार्जिन मनी का प्रबंध हो जाएगा। यह प्रस्ताव बाबूजी को जंच गयालेकिन उन्होंने योजना राशि छह सौ के बजाय एक हजार कर दी। योजना का नाम भी आजीवन के बजाय स्थायी ग्राहक योजना रखा। बाबूजी सहित सारे वरिष्ठ सहयोगी इस योजना को मूर्तरूप देने में जी-जान से जुट गए। हम लोगों ने अंबिकापुर और जशपुर नगर से लेकर दंतेवाड़ा तक की यात्राएं कीं। देशबन्धु की अपनी साखस्वच्छ छवि व निजी संबंधों का लाभ मिला। अधिकतर लोगों को यही लगा कि वे 'अपनेअखबार की प्रगति में सहायक सिध्द हो रहे हैं। उनमें से बहुत से लोग आज भी हमारे बीच मौजूद हैं और देशबन्धु से उन्हें पहले की तरह अभी भी लगाव है।
जाहिर है कि इस तरह से तो राशि धीरे-धीरे कर आना थीलेकिन मशीन का आर्डर पहले से दे दिया गया थाबयाना पट चुका थाभवन का निर्माण भी प्रारंभ हो चुका था। ऐसे समय सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया ने हमारी मदद की। बाबूजी के मित्र गिरधरदास डागा ने अपने महाप्रबंधक आदि से चर्चा कर हमारे लिए ब्रिज लोन या स्थायी लोन का प्रबंध कर दिया ताकि काम रुके न। ग्राहक योजना का पैसा जैसे-जैसे आता गया ऋण खाते में जमा होता गया।''अखण्ड आनंद'' और ''कल्याण'' जैसी धार्मिक पत्रिकाओं में ऐसी योजनाएं पहले से तो थीं लेकिन देश में ऐसे समाचारपत्र द्वारा प्रयोग करना यह पहला अवसर था। इसकी चर्चा टाइम्स ऑफ इंडिया आदि अखबारों में भी हुई। देशबन्धु 'पत्र नहीं मित्रका हमारा दावा सार्थक हुआ। जब हम ग्राहक बनाने निकलते थे तो मजाक में कभी-कभी पूछा जाता थाआजीवन ग्राहक आप बनाने चले हैं तो किसका जीवन ''अखबार का'' या ''हमारा''। हम भी उसी भाव से जवाब देते थे कि मनुष्य के जीवन का तो कोई भरोसा नहींलेकिन इस अखबार का जीवन जरूर बहुत लंबा है।
जब भवन बनने की बात आई तो भूमिपूजन किस रूप में होइस पर भी विचार किया। रायपुर के तत्कालीन संसद सदस्य और केंद्रीय पर्यटन मंत्री पुरुषोत्तमलाल कौशिक को मुख्य अतिथि बनाना तय हुआ। वे पुराने समाजवादी एवं लड़ाकू जननेता थे। इस नाते उनका हम सम्मान करते थे। कौशिक जी ने अपनी सहमति दे दी। कार्ड छपकर वितरित हो गए लेकिन जिस सुबह भूमिपूजन होना था उसकी पूर्व रात्रि को उन्होंने अचानक नागपुर होते हुए दिल्ली जाने का प्रोग्राम बना लिया। हमें जैसे ही सूचना मिली आधी रात को मैं और बाबूजी उनसे मिलने सर्किट हाउस पहुंचे। बाबूजी के बहुत समझाने पर भी वे नहीं माने। कौशिक जी चर्चा समाप्त करने का मौन संकेत देते हुए बाथरूम चले गए। बाबूजी भी उठ खड़े हुए। मैंने उनसे आज्ञा ली कि मैं भी उनसे एक मिनट बात करके देखता हूं। मैं बाथरूम के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो गया। कौशिक जी बाहर निकले तो मैंने पूछा तो आप नहीं आएंगे तो उन्होंने कहा-हां। मैं नहीं रुक सकता। मैंने फिर कुछ उद्दण्डता के साथ ही कहाआज आप संसद सदस्य हैं,शायद कल नहीं भी रहेंगेलेकिन देशबन्धु तो निकलता रहेगा और तब मैं किसी दिन पूछूंगा कि आपने हमारे साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया था।
देशबन्धु के जबलपुर संस्करण के भू-आबंटन का प्रसंग भी इसी तरह से कड़वे-मीठे अनुभव लेकर आया। एक भूखण्ड हमें मौके की जगह पर आबंटित हो गया था। उसी दरम्यान विधानसभा चुनाव सामने आ गए। एक दिन एकाएक प्रदेश युवक कांग्रेस के अध्यक्ष सुरेश पचौरी रायपुर मुझसे मिलने आए। ''आपको जमीन आबंटन से एक वर्ग विशेष में असंतोष है,इसका असर कांग्रेसी उम्मीदवार ललित श्रीवास्तव के चुनाव पर पड़ेगा। मुख्यमंत्री चाहते हैं कि आप फिलहाल इस भूखण्ड को वापिस कर दें। इसके बदले आपको दूसरा भूखण्ड चुनाव के बाद आबंटित कर दिया जाएगा।'' मैं स्वयं निर्णय लेने की स्थिति में तो था ही नहींबाबूजी को खबर की तो उनका सुलझा हुआ उत्तर मिला कि जिन्होंने जमीन दी है वही वापिस चाहते हैं तो कर देते हैं। बाद में जो होगा देखा जाएगा। हमने वैसा ही किया। चुनाव हुए तथा अर्जुनसिंह दुबारा मुख्यमंत्री बने। दो दिन बाद वे पंजाब के राज्यपाल नियुक्त कर दिए गए। फिर दूसरा भूखण्ड मिलने में जो पापड़ बेलना पड़े उसका अलग ही किस्सा है।

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