यदि भ्रष्टाचार रावण तो राम कहाँ ?
संसद में हंगामा मचाने या साधु-संतों के प्रवचनों से यदि भ्रष्टाचार दूर हो सकता तो क्या बात थी।
इन सारे उपायों की असफलता हम देख चुके हैं। दरअसल ऐसे उपाय भ्रष्टाचार की जड़ पर आक्रमण नहींकरते, बल्कि समस्या के इर्द-गिर्द कुहासे का जाल बनते हैं, जिसमें जनता खो जाती है और जड़ तक पहुंचने की इच्छा हवा में काफूर हो जाती है। भ्रष्टाचार निश्चित रूप से इस देश के लिए एक बहुत बड़ी समस्या और बहुत बड़ी चुनौती के रूप में सामने है, लेकिन अंतत: वह एक मध्यमवर्गीय शगल से ज्यादा कुछ नहींहै। हमारी मध्यमवर्गीय नैतिकता को बहुत से प्रश्न आए दिन परेशान करते हैं। अपने आत्मकेन्द्रित जीवन में मध्यवर्ग लगभग प्रतिदिन समझौते करता है- उचित-अनुचित का विचार किए बिना। और फिर जब इससे उसे ग्लानि होती है तब अपराधमुक्त होने के लिए भ्रष्टाचार के विरोध में जो भी मुहिम चलती है उसे अपना निष्क्रिय तथा मौखिक समर्थन देने के लिए आगे आ जाता है। हम यह मानकर चलते हैं कि भ्रष्टाचार हो या अन्य कोई समस्या, उसे दूर करना, उससे लड़ना हमारे नागरिक दायित्व का हिस्सा नहीं है। हम चाहते हैं कि हमारी लड़ाई कोई और लड़े, फिर चाहे वह सत्ता का प्रतिपक्ष हो, चाहे कोई संत-महात्मा या चाहे समाजसेवा के लिए उतर पड़ा कोई सुविधासंपन्न रिटायर्ड नौकरशाह।
इस देश में भ्रष्टाचार के विरूध्द यदि सबसे बड़ी और एकमात्र सफल लड़ाई यदि किसी ने लड़ी थी तो वी.पी.सिंह ने। देश की जनता ने इसका पुरस्कार उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंपकर दिया। लेकिन इसका अंतिम परिणाम क्या निकला? भ्रष्टाचार दूर नहींहोना था, सो नहींहुआ। 55-60 करोड़ के बोफोर्स कांड पर जांच में ढाई सौ करोड़ लग गए। यह तर्क का विषय नहीं होना चाहिए, लेकिन विचारणीय है कि बरसों की इस उठापटक के बाद क्या भारतवासियों के मन में भ्रष्टाचार से लड़ने की कोई प्रेरणा जागृत हो सकी। स्पष्ट उत्तर है- नहीं। अब जितने बड़े-बड़े घोटाले सामने आ रहे हैं, वे कैसे संभव हुए? आज यह प्रश्न पूछने की आवश्यकता है कि बोफोर्स के बाद उससे कई गुना बड़े घोटाले क्यों कर संभव हुए? बात साफ है कि भारतीय समाज ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को गंभीरता से नहींलिया और उससे लड़ने के लिए आंतरिक प्रेरणा से उपज कर जिस वातावरण की रचना होनी चाहिए थी, वह नहींहो सकी। जो हुआ वह यही कि कुछ लोग देवदूतों की तरह हमारे बीच आए तथा उनसे दैवीय चमत्कारों की अपेक्षा करते हुए हम अपने-अपने घोसलों में दुबके रहते।
टी.एन. शेषन को ही लीजिए। देश को या यूं कहें कि मध्यमवर्गीय भारत को ऐसा लगे कि वे अकेले चुनाव प्रणाली में सुधार लाकर देश की राजनीतिक व्यवस्था को आमूलचूल सुधार देंगे। लेकिन हुआ यह कि लंबे समय तक गरज-बरस कर शेषन चुक गए, और अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए उसी राजनीति का अंग बनने की असफल कोशिश में जुट गए जिससे लड़ने का स्वांग वे कर रहे थे। यह मजे की बात है कि ईमानदारी के प्रति शेषन को कांची शंकराचार्य के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए एक उद्योगपति से हवाई जहाज मांगना पड़ा, भले ही उसका किराया उन्होंने चुकाया हो। हमारे दूसरे नायक के रूप में अन्ना हजारे सामने आए। अन्ना हजारे की सत्यनिष्ठा पर कोई प्रश्न नहींहै, लेकिन एक रचनात्मक कार्यकर्ता के रूप में उनका जो भी योगदान रहा हो, भ्रष्टाचार के मसले पर वे एक असफल योध्दा ही सिध्द हुए। ऐसा ही कुछ हाल किरण बेदी का है। किरण बेदी जी के खैरनार और बहुत से लोग इस भ्रम में जीते हैं कि रोटरी क्लब की सभाओं में भाषण देकर भ्रष्टाचार को दूर किया जा सकता है। वे जिन सभा-संगोष्ठियों में जाते हैं, उनमें अधिकतर वही लोग रहते हैं, जो भ्रष्टाचार में लिप्त हुए बिना अपना कारोबार चला ही नहींसकते। इसी श्रेणी में एक बहादुर केजे अल्फोस हैं, जो पहले वामपक्ष के समर्थन से विधायक बने और अब राष्ट्रीय राजनीति में अपना स्थान बनाने के लिए भाजपा में शामिल हो गए हैं।
यह देखना दिलचस्प है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडा उठाने वाले ये सारे बहादुर इन दिनों बाबा रामदेव की शरण में है। बाबाजी इन दिनों दिल्ली के रामलीला मैदान में सभा करने से लेकर देश में जगह-जगह घूम कर भारतीय राजनीति को स्वच्छ बनाने की मुहिम में जुटे हुए हैं। इस टीवी युग में चूंकि क्षणिक लोकप्रियता पाना आसान हो गया है इसलिए बाबा रामदेव भी आजकल लोकप्रियता के शिखर पर आसीन दिखाई देते हैं। वे जहां जाते हैं उनका जोरदार स्वागत होता है, उसकी लंबी-चौड़ी खबरें छपती हैं, लेकिन कोई यह सवाल तो उठाए कि बाबाजी की सभाओं का इंतजाम कौन करता है। क्या हमारे योग गुरु इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि छोटे-बड़े नगरों में उनकी जो सभाएं हो रही हैं उसमें सारा पैसा ईमानदारी का ही लगा है। वे इस प्रश्न का उत्तर दें या न दें लेकिन वे जहां जाते हैं वहां की आम जनता इस बात को खूब अच्छे से जानती है कि उनके स्थानीय अनुयायियों का चरित्र कैसा है? बाबा रामदेव के राजनीतिक विचार भी किसी से छुपे हुए नहींहैं, वे मुखर रूप से कांग्रेस और वामदलों की आलोचना करते हैं। इसका अर्थ यही है कि वे भाजपा के राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। हमें आश्चर्य नहींहोगा यदि आम चुनावों के समय उनका भारत स्वाभिमान दल दक्षिणपंथी गठजोड़ का हिस्सा बन जाए। लेकिन आज उनसे हम यह भी पूछना चाहेंगे कि क्या दक्षिणपंथी राजनीति करने वाले सारे लोग ईमानदार हैं, जिनकी प्रत्यक्ष और परोक्ष हिमायत वे करते रहते हैं।
हमारी बात भ्रष्टाचार विरोधी इन स्वयंभू नेताओं तक सीमित नहींहै। विकिलीक्स और तहलका हों या न हों, भ्रष्टाचार दस नहींबल्कि सौ सिर वाला रावण बन चुका है। यह बात हम जानते हैं कि रावण का निवास सोने की लंका में था। यदि भ्रष्टाचार से लड़ना है तो सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि यह सोने की लंका कहां है? इसे जानने के लिए बहुत ज्यादा माथापच्ची करने की आवश्यकता नहींहै। सोने की लंका सिर्फ राजनीति तक सीमित नहींहै। बल्कि उसका विस्तार नेता, अफसर और व्यापारी के त्रिलोक में है। जिन लोगों ने लाइसेंस परमिट राज्य खत्म कर बंधनमुक्त उद्यमशीलता (फ्री इंटरप्राइज) की वकालत की थी, वे ही उदारीकरण के इस युग में अपनी सोने की लंका में अपनी गगनचुंबी अट्टालिकाएं खड़ी कर रहे हैं। इस लंका तक पहुंचने के लिए समुद्र लांघने की जरूरत है। पुल बांधने से पहले पुल बांधने की इच्छाशक्ति चाहिए। और उसके भी पहले रास्ता तलाश करने की दृष्टि भी। रावण से लड़ने राम अकेले नहींगए थे, जनता अपना हृदय टटोलकर देखे कि क्या उसमें राम का कोई अंश है?
इस देश में भ्रष्टाचार के विरूध्द यदि सबसे बड़ी और एकमात्र सफल लड़ाई यदि किसी ने लड़ी थी तो वी.पी.सिंह ने। देश की जनता ने इसका पुरस्कार उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंपकर दिया। लेकिन इसका अंतिम परिणाम क्या निकला? भ्रष्टाचार दूर नहींहोना था, सो नहींहुआ। 55-60 करोड़ के बोफोर्स कांड पर जांच में ढाई सौ करोड़ लग गए। यह तर्क का विषय नहीं होना चाहिए, लेकिन विचारणीय है कि बरसों की इस उठापटक के बाद क्या भारतवासियों के मन में भ्रष्टाचार से लड़ने की कोई प्रेरणा जागृत हो सकी। स्पष्ट उत्तर है- नहीं। अब जितने बड़े-बड़े घोटाले सामने आ रहे हैं, वे कैसे संभव हुए? आज यह प्रश्न पूछने की आवश्यकता है कि बोफोर्स के बाद उससे कई गुना बड़े घोटाले क्यों कर संभव हुए? बात साफ है कि भारतीय समाज ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को गंभीरता से नहींलिया और उससे लड़ने के लिए आंतरिक प्रेरणा से उपज कर जिस वातावरण की रचना होनी चाहिए थी, वह नहींहो सकी। जो हुआ वह यही कि कुछ लोग देवदूतों की तरह हमारे बीच आए तथा उनसे दैवीय चमत्कारों की अपेक्षा करते हुए हम अपने-अपने घोसलों में दुबके रहते।
टी.एन. शेषन को ही लीजिए। देश को या यूं कहें कि मध्यमवर्गीय भारत को ऐसा लगे कि वे अकेले चुनाव प्रणाली में सुधार लाकर देश की राजनीतिक व्यवस्था को आमूलचूल सुधार देंगे। लेकिन हुआ यह कि लंबे समय तक गरज-बरस कर शेषन चुक गए, और अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए उसी राजनीति का अंग बनने की असफल कोशिश में जुट गए जिससे लड़ने का स्वांग वे कर रहे थे। यह मजे की बात है कि ईमानदारी के प्रति शेषन को कांची शंकराचार्य के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए एक उद्योगपति से हवाई जहाज मांगना पड़ा, भले ही उसका किराया उन्होंने चुकाया हो। हमारे दूसरे नायक के रूप में अन्ना हजारे सामने आए। अन्ना हजारे की सत्यनिष्ठा पर कोई प्रश्न नहींहै, लेकिन एक रचनात्मक कार्यकर्ता के रूप में उनका जो भी योगदान रहा हो, भ्रष्टाचार के मसले पर वे एक असफल योध्दा ही सिध्द हुए। ऐसा ही कुछ हाल किरण बेदी का है। किरण बेदी जी के खैरनार और बहुत से लोग इस भ्रम में जीते हैं कि रोटरी क्लब की सभाओं में भाषण देकर भ्रष्टाचार को दूर किया जा सकता है। वे जिन सभा-संगोष्ठियों में जाते हैं, उनमें अधिकतर वही लोग रहते हैं, जो भ्रष्टाचार में लिप्त हुए बिना अपना कारोबार चला ही नहींसकते। इसी श्रेणी में एक बहादुर केजे अल्फोस हैं, जो पहले वामपक्ष के समर्थन से विधायक बने और अब राष्ट्रीय राजनीति में अपना स्थान बनाने के लिए भाजपा में शामिल हो गए हैं।
यह देखना दिलचस्प है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडा उठाने वाले ये सारे बहादुर इन दिनों बाबा रामदेव की शरण में है। बाबाजी इन दिनों दिल्ली के रामलीला मैदान में सभा करने से लेकर देश में जगह-जगह घूम कर भारतीय राजनीति को स्वच्छ बनाने की मुहिम में जुटे हुए हैं। इस टीवी युग में चूंकि क्षणिक लोकप्रियता पाना आसान हो गया है इसलिए बाबा रामदेव भी आजकल लोकप्रियता के शिखर पर आसीन दिखाई देते हैं। वे जहां जाते हैं उनका जोरदार स्वागत होता है, उसकी लंबी-चौड़ी खबरें छपती हैं, लेकिन कोई यह सवाल तो उठाए कि बाबाजी की सभाओं का इंतजाम कौन करता है। क्या हमारे योग गुरु इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि छोटे-बड़े नगरों में उनकी जो सभाएं हो रही हैं उसमें सारा पैसा ईमानदारी का ही लगा है। वे इस प्रश्न का उत्तर दें या न दें लेकिन वे जहां जाते हैं वहां की आम जनता इस बात को खूब अच्छे से जानती है कि उनके स्थानीय अनुयायियों का चरित्र कैसा है? बाबा रामदेव के राजनीतिक विचार भी किसी से छुपे हुए नहींहैं, वे मुखर रूप से कांग्रेस और वामदलों की आलोचना करते हैं। इसका अर्थ यही है कि वे भाजपा के राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। हमें आश्चर्य नहींहोगा यदि आम चुनावों के समय उनका भारत स्वाभिमान दल दक्षिणपंथी गठजोड़ का हिस्सा बन जाए। लेकिन आज उनसे हम यह भी पूछना चाहेंगे कि क्या दक्षिणपंथी राजनीति करने वाले सारे लोग ईमानदार हैं, जिनकी प्रत्यक्ष और परोक्ष हिमायत वे करते रहते हैं।
हमारी बात भ्रष्टाचार विरोधी इन स्वयंभू नेताओं तक सीमित नहींहै। विकिलीक्स और तहलका हों या न हों, भ्रष्टाचार दस नहींबल्कि सौ सिर वाला रावण बन चुका है। यह बात हम जानते हैं कि रावण का निवास सोने की लंका में था। यदि भ्रष्टाचार से लड़ना है तो सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि यह सोने की लंका कहां है? इसे जानने के लिए बहुत ज्यादा माथापच्ची करने की आवश्यकता नहींहै। सोने की लंका सिर्फ राजनीति तक सीमित नहींहै। बल्कि उसका विस्तार नेता, अफसर और व्यापारी के त्रिलोक में है। जिन लोगों ने लाइसेंस परमिट राज्य खत्म कर बंधनमुक्त उद्यमशीलता (फ्री इंटरप्राइज) की वकालत की थी, वे ही उदारीकरण के इस युग में अपनी सोने की लंका में अपनी गगनचुंबी अट्टालिकाएं खड़ी कर रहे हैं। इस लंका तक पहुंचने के लिए समुद्र लांघने की जरूरत है। पुल बांधने से पहले पुल बांधने की इच्छाशक्ति चाहिए। और उसके भी पहले रास्ता तलाश करने की दृष्टि भी। रावण से लड़ने राम अकेले नहींगए थे, जनता अपना हृदय टटोलकर देखे कि क्या उसमें राम का कोई अंश है?
31 मार्च 2011 को प्रकाशित
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