Thursday, 19 April 2012

उसमें प्राण जगाओ साथी- 9

पुरुषार्थ बनाम भाग्य
एक पत्रकार के रूप में मायाराम सुरजन के कृतित्व का अवलोकन हम करें, उसके पूर्व शायद यह उचित होगा कि उनके व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं से अवगत हो लें। उनकी एक पुस्तक के ब्लर्व पर मैंने यह जानकारी दी है कि जब बाबूजी का निधन हुआ तब उनके बैंक खाते में मात्र तीन हजार (3,000-) की राशि जमा थी। हमने उनकी स्मृति में मायाराम सुरजन फाउंडेशन की स्थापना की तो यह राशि उसके काम में लाना चाहते थे। लेकिन बैंक को उत्तराधिकार प्रमाण पत्र चाहिए था तथा इस छोटी सी रकम को हासिल करने में शायद उससे दुगनी राशि वैधानिक औपचारिकताओं में खर्च हो जाती सो यह राशि बैंक को ही समर्पित हो गई। जिस व्यक्ति ने अपने पचास साल के व्यवहारिक जीवन में समाचार पत्रों का प्रबंधन किया हो व पत्र स्थापित किए हों, उसके पास कोई निजी पूंजी न हो, यह आश्चर्यजनक प्रतीत हो सकता है, लेकिन बाबूजी इस मामले में पूरी तरह निस्पृह थे। मुझे जब 1984 में स्वामी प्रणवानंद पत्रकारिता सम्मान के साथ 5,000- की पुरस्कार राशि मिली तो भोपाल में मेरी अनुपस्थिति में उन्होंने यह सम्मान तो ले लिया किंतु पुरस्कार राशि वहीं न्यास अध्यक्ष को वापिस सौंप दी कि ललित को इसकी ारूरत नहीं है। इस राशि का आप अन्यत्र बेहतर उपयोग कर सकते हैं।
इसी तरह का दूसरा आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि उनके पास अपने जीवनकाल में स्वयं का कहने के लिए कोई घर नहीं था। हम भाईयों के अपने घर बन सकें, इसके लिए उन्होंने अवश्य प्रयत्न और सहायता की किंतु खुद का घर नहीं बनाया। यह एक संयोग है कि मेरे पास भी न तो अपना मकान है और न ही ामीन का कोई टुकड़ा। बाबूजी इस मामलों में शायद कहीं अपने पिता से प्रेरित हुए होंगे। उनके पास गांव में बहुत थोड़ी कृषि भूमि और एक छोटा सा कवेलू वाला घर था। जब बाबूजी नवभारत के जनरल मैनेजर बने और वेतन 500 रुपए प्रति माह हुआ तो दादाजी ने अपनी नाममात्र की अचल संपत्ति भी अपने दो विश्वस्त या आत्मीय साथियों को भेंट कर दी। ''भैया (यानी बाबूजी) अब खूब अच्छे से कमा रहे हैं। मुझे अब संपत्ति की जरूरत नहीं है।'' 1956 में राजधानी बनने के बाद स्वाभाविक रूप से भोपाल का विस्तार प्रारंभ हुआ। पत्रकार के रूप में बाबूजी को एकदम मौके की जगह मालवीय नगर में भूखंड की पेशकश सरकार की ओर से हुई। बाबूजी ने अपने मालिक रामगोपाल माहेश्वरी के लिए भूखंड आबंटित करवाया, लेकिन अपने लिए नहीं लिया। उनके चचेरे भाई भगवानदास माहेश्वरी ने उन्हें बिना बताए उनके नाम पर अपने पास से रकम भर प्लॉट ले लिया, लेकिन आगे चलकर बाबूजी ने वह भूखंड भी उन्हीं को वापिस सौंप दिया। रायपुर में अवश्य एक-दो बार अवसर आए और उनकी इच्छा भी हुई कि मकान बना लिया जाए, लेकिन सीमित साधन हमेशा प्रेस की ारूरतों के काम आते रहे व निजी स्थायित्व की भावना हाशिए पर डाल दी गई। रायपुर की चौबे कॉलोनी में एक मकान मेरे नाम पर बना। वह भी उनके स्नेही मित्र बैंक प्रबंधक गिरधरदास डागा के दबाव व हिम्मत के कारण। इस घर में हमारा कोई बीस साल डेरा रहा, लेकिन एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री की कोपदृष्टि के शिकार अखबार के र्का पटाने में यह घर भी भेंट चढ़ गया।
बाबूजी के मित्र अक्सर कहा करते थे कि मायाराम जी रेत में नाव चलाते हैं। याने गाँठ में पैसा नहीं है, लेकिन किसी न किसी तरह पेपर राो निकल ही जाता है। इस ''किसी न किसी  तरह'' में परिवार से संबंधित एक मार्मिक तथ्य भी शामिल है। 1975 में उन्होंने अपनी बड़ी बहू माया को एक पत्र भोपाल से भेजा- ''देशबन्धु प्रारंभ करने के समय बाई (माँ) के गहने बिके। बाद में तुम्हारी बाई (याने मेरी माताजी) के और अब तुम्हारे गहने भी प्रेस की ारूरत के काम आए। मुझे इसकी बेहद पीड़ा है और तुम पर गर्व। पत्र का भाव लगभग यही था कि परिवार का तीन पीढ़ियों का स्त्रीधन व्यापार के घाटे उठाने में लगा दिया गया और इससे वे मन ही मन बेहद आहत थे। दरअसल, ऐसी स्थितियाँ इसलिए बनीं, क्योंकि बाबूजी ने पत्रकारिता के मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया। इसकी विस्तृत चर्चा मैं आने वाले दिनों में करूंगा। स्वयं बाबूजी की आत्मकथा में इन स्थितियों की झलकियाँ हैं। यहां उनके व्यक्तिगत का एक विरोधाभास भी देखने मिलता है।
बाबूजी एक ओर जहाँ अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करते थे, वहीं वे किसी हद तक भाग्यवादी भी थे। जबलपुर के सुप्रसिद्ध ज्योतिविद् पं. बाबूलाल चतुर्वेदी उनके मित्र थे तथा उनसे वे हमेशा सलाह-मशविरा करते थे। इसके अलावा उनकी अनेक ज्योतिषियों व भविष्यवक्ताओं से अच्छा खासा संपर्क था। नई दुनिया के पृथ्वीधराचार्य याने एम.जी. ढाते से भी वे पत्र लिखकर सलाह लेते थे। हम सब भाई-बहिनों की कुंडलियाँ उन्होंने बनवाईं। विवाह के समय उनका मिलान वगैरह भी करवाया। उनकी अपनी कोई 20-25 कुंडलियाँ बनी होंगी। उनके पुस्तक संग्रह में किरो की हस्तरेखा अध्ययन की पुस्तकें थीं तथा वे स्वयं शौकिया तौर पर हस्तरेखा देख लेते थे। उसके बावजूद यह सच्चाई अपनी जगह है कि उन्होंने निजी या व्यवसायिक निर्णयों में कभी ज्योतिषियों की सलाह पर अमल नहीं किया। एक बार कुछ हफ्तों के लिए उन्होंने अंगूठी पहनी। वह भी उतार दी। मुझे लगता है कि भविष्यवेत्ताओं की राय वे जैसे अपना मनोबल बढाने के लिए ही लेते थे। पंडितजी ने कहा कि सब मंगल हो मंगल होगा और वे इतना सुनकर ही स्वयं को आने वाले समय के लिए तैयार कर लेते थे।
यही स्थिति पूजा-पाठ को लेकर थी। कर्मकांड में उनका विश्वास अत्यन्त क्षीण था। अपनी माँ के निधन के बाद उनकी पूजा पेटी बाबूजी ने ली और संभवत: माँ की स्मृति का सम्मान करने के लिए ही उन्होंने उसके बाद प्रतिदिन लगभग पाँच मिनिट की पूजा करना प्रारंभ किया। यह जून 1966 की बात है। इसके पूर्व मैंने उन्हें कभी घर पर पूजा करते नहीं देखा। रायपुर में शाम को घर लौटते समय वे गोपाल मंदिर, सदर बाजार लगभग राो ही आते थे, लेकिन वहां भी सदर बाजार के मित्रों से भेंट व गपशप करना ही प्रमुख उद्देश्य होता था। मेरे व परिवार के अन्य विवाहों में उन्होंने कभी गणेश स्थापना नहीं करवाई और न ही दीपावली पर हमारे घर में लक्ष्मी पूजन की प्रथा रही। इन मौकों पर वे कुटुंब के इष्ट देव श्रीनाथजी को ही साक्षी बनाते रहे। हाँ, यदि परिवार के किसी सदस्य ने या प्रेस में किसी सहयोगी ने पूजा व कर्मकांड संबंधी कोई सुझाव दे दिया तो उसे वे मान लेते थे। ''अच्छा भाई, तुम्हारी इच्छा है तो यह भी कर लो।'' कुल मिलाकर वे आस्तिक तो थे, लेकिन अंधविश्वासी कतई नहीं।
उनकी सादगीपूर्ण जीवन शैली और आस्तिकता का एक मिला-जुला रूप देखने मिला छोटे भाई देवेंद्र के विवाह में। रायपुर के निकट दार्शनिक-संत महाप्रभु वल्लभाचार्य के जन्मस्थान चंपारन के मंदिर में देव का विवाह संपन्न हुआ। उस समय एक छोटी सी धर्मशाला थी। उसमें ही दोनों पक्ष के सदस्य ठहरे तथा बिना किसी आडंबर के शुभ कार्य पूरा हुआ। कुछ साल बाद इस प्रसंग को विस्तार के साथ दोहराया गया। देव से छोटे दीपक का विवाह निश्चित हुआ। बाबूजी ने इसे सामूहिक विवाह का स्वरूप दिया। दीपक व ममेरे भाई श्याम के साथ तीन अन्य जोड़े इसमें शामिल हुए। तब तक चंपारन में दो धर्मशालाएं निर्मित हो चुकी थीं। एक में सारी बारातें ठहरीं व दूसरी में सभी कन्या पक्ष। बाबूजी ने एक मिसाल सामने रख दी। इसका थोड़ा बहुत अनुसरण आज भी हो जाता है, लेकिन शादी-ब्याह में आडंबर तजने के लिए भारतीय समाज आज भी पूरी तरह से तैयार नहीं है, इस हकीकत को हम जानते हैं। अपने सामाजिक विचारों के कारण बाबूजी को यदा-कदा परेशानी भी झेलनी पड़ी। छोटी बहिन इति का विवाह तय करने में दो-तीन घरों से यही सूचना दबे स्वर में मिली कि मायाराम जी दहेज नहीं लेते तो न लें, लेकिन दहेज देंगे नहीं तो उनके घर संबंध करने में क्या लाभ! ऐसे अवसरों पर बाबूजी स्वयं को यही कहकर समझा लेते थे- जो भाग्य में लिखा है वही होगा।

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