Friday 20 April 2012

उसमें प्राण जगाओ साथी- 17


 'मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के' 

देशबन्धु में स्तंभ लेखन की सुदीर्घ परंपरा है। परसाई जी के 'सुनो भाई साधो' व 'पूछिए परसाई से' जैसे नियमित स्तंभों ने अपार लोकप्रियता हासिल की। जबलपुर संस्करण में मूलत: प्रकाशित स्वाधीनता सेनानी महेशदत्त मिश्र का ''ंखत जिनमें खुशबू फूलों की'' एवं अध्यापक चिंतक हनुमान प्रसाद वर्मा का ''टिटबिट की डायरी'' आदि स्तंभों को भी पाठकों से भरपूर सराहना मिली। सतना संस्करण प्रारंभ हुआ तो वरिष्ठ राजनेता जगदीश जोशी, संस्कृति कर्मी प्रो. कमलाप्रसाद व लेखक देवीशरण ग्रामीण इत्यादि के नियमित कॉलम छपना प्रारंभ हो गए। यही नहीं, पत्र के रविवासरीय संस्करण के माध्यम से स्थानीय प्रतिभाओं को सामने लाने का काम देशबन्धु ने किया। ऐसे अनेक सुख्यात रचनाकार हैं जो ''बाबूजी'' को अपनी पहिली रचना छापने का  उल्लेख करने के साथ स्मरण करते हैं। मध्यप्रदेश के किसी अन्य संपादक का ऐसा जीवंत संपर्क साहित्यिक बिरादरी के साथ नहीं रहा। राजेन्द्र अवस्थी, मलय, सोमदत्त, पुरुषोत्तम खरे, मोहन शशि इत्यादि लेखकों के बीच के कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्होंने मायाराम सुरजन से पत्रकारिता के पाठ सीखे। इस पृष्ठभूमि को देखते हुए पाठकों एवं सहकर्मियों की यह अपेक्षा स्वाभाविक ही थी कि स्वयं बाबूजी विशेष अवसरों पर नहीं, बल्कि नियमित रूप से लेखन करें।
हम सबकी यह इच्छा 1983 में जाकर पूरी हो सकी जब ''दरअसल'' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। समसामयिक प्रश्नों पर केंद्रित इन लेखों में विषय की जो विविधता है वह विस्मित करने वाली है। उनके लिए कोई विषय असाध्य नहीं था। जितनी सहजता से वे स्थानीय और गैर महत्वूपर्ण समझे जाने वाले मुद्दों की टीका करने में सक्षम थे, उतनी ही सहजता से उनकी लेखनी राष्ट्रीय व वैश्विक घटनाचक्र की व्याख्या करने में भी समर्थ थी। बाबूजी के लेखन की सबसे बड़ी खूबी भाषा की सादगी और सहज संप्रेषणीयता थी, यद्यपि समय-समय पर शैलीगत प्रयोग करने में भी उन्होंने संकोच नहीं किया। स्थानीय मुद्दे पर स्तंभ लेखन का एक उदाहरण हमें रायपुर के छात्रनेता अंजय शुक्ल से संबंधित किसी प्रसंग पर की गई टिप्पणी से मिलता है। सामान्य तौर पर कोई वरिष्ठ पत्रकार ऐसे विषय की अनदेखी ही करता, लेकिन बाबूजी ने इसे युवा पीढ़ी से संवाद स्थापित करने के एक उचित अवसर के रूप में लिया। उन्होंने ऐसा महसूस किया कि अगर युवा पीढी में दिशाहीनता और उच्छृंखलता आ रही है तो उस पर न तो मूकदर्शक बनकर रहा जा सकता है और न ही एकतरफा फैसला ही दिया जा सकता है। यहां मायाराम सुरजन एक पत्रकार के रूप में नहीं बल्कि एक बार फिर शिक्षक और अभिभावक की भूमिका में सामने आते हैं। एक और अन्य प्रसंग का जिक्र मैं करना चाहूंगा जो बिल्कुल अलग किस्म का था। रायपुर के व्यापारी नेता लूनकरण पारख ने अपना नाम परिवर्तित कर लूनकरणसिंग पारख कर लिया। इसकी सूचना अखबारों में प्रकाशित हुई। यूं तो यह एक चर्चित व्यक्ति से जुड़ी छोटी सी खबर थी, लेकिन इसके राजनीतिक निहितार्थ क्या थे इसे बाबूजी ने ही समझा और शेक्सपियर के अंदाज में ''नाम में क्या रखा है'' की व्याख्या कर दी।
एक समय रायपुर में एक गंभीर स्थिति उत्पन्न हो गई। बंजारी बाबा के नाम से प्रसिध्द औघड फ़कीर के निधन के बाद उन्हें कहां दफनाया जाए उसे लेकर तनाव का वातावरण बन गया। जिले के स्वच्छ छवि वाले तेजतर्रार युवा कलेक्टर नजीब जंग पर धार्मिक पूर्वाग्रह से प्रेरित आरोप लगाए जाने लगे। उस कठिन समय में बाबूजी ने अपनी कलम उठाई और ''सबको सन्मति दे भगवान'' के नाम से दस दैनिक लेखों की एक श्रृंखला लिख डाली। इसका रायपुर के सार्वजनिक वातावरण पर अपेक्षित प्रभाव पड़ा तथा सौहार्द्र भाव टूटने से बच गया। उपरोक्त तीनों प्रसंग स्थानीय हैं लेकिन विषय अलग-अलग हैं। इनके अवलोकन से बाबूजी की विश्लेषण क्षमता और संपादकीय विवेक का अनुमान लगाया जा सकता है। दूसरी तरफ व्यापक मुद्दों पर भी वे लगातार लिखते रहे। अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव हो या कोरिया प्रायद्वीप में विमान गिराने की घटना या फिर संघ परिवार की एकात्मता यात्रा- बाबूजी की पैनी दृष्टि से कुछ भी बचता नहीं था। ''दरअसल'' के प्रकाशन से जुड़े हुए एक तथ्य का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। अपने लिखे पर असहमति को बाबूजी भरपूर सम्मान देते थे। छत्तीसगढ़ के बागबाहरा निवासी पुरुषोत्तमलाल व्यास उनके लेखों पर लंबी-लंबी प्रतिक्रियाएं भेजते थे। आवश्यक समझा तो बाबूजी ऐसे पत्र को अपने कॉलम में उद्धृत कर देते थे और नहीं तो व्यासजी को पत्र का जवाब अवश्य लिखकर भेजते थे। ऐसे सुधी पाठकों से संवाद बनाए रखना पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों के अनुकूल ही था।
''दरअसल'' के समानांतर एक और नियमित कॉलम लिखना बाबूजी ने 1985 में प्रारंभ किया। भोपाल से हमने ''साप्ताहिक देशबन्धु'' शीर्षक से एक पत्र इस वर्ष प्रारंभ किया। इसे लोकप्रिय बनाने के लिए बाबूजी अगर नियमित कॉलम लिख सकें तो बहुत अच्छा होगा, यह विचार मन में आया। यह संभवत: साप्ताहिक देशबन्धु के संपादक गिरिजाशंकर का ही सुझाव था कि बाबूजी के निकट संपर्क प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के साथ रहे हैं तो उन पर संस्मरण लिखने  का लाभ पत्र को मिलेगा। बाबूजी कॉलम लिखने राजी हो गए तथा इस तरह से ''मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के'' लेखमाला की शुरुआत हुई। नए और पुराने मध्यप्रदेश के हर मुख्यमंत्री के साथ बाबूजी का संपर्क रहा। 1939 से 94 तक विदर्भ, मध्यप्रदेश, विंध्यप्रदेश, मध्यभारत और भोपाल रियासत इन सबको मिलाकर पन्द्रह या सोलह मुख्यमंत्री हुए। इनमें से अंतिम याने दिग्विजय सिंह को छोड़कर बाबूजी ने बाकी सब पर लिखा। श्री सिंह के कार्यकाल का आकलन करने के लिए उन्हें पर्याप्त समय नहीं मिल पाया। पत्रकारिता के इतिहास की दृष्टि से यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि मायाराम सुरजन प्रदेश के अकेले पत्रकार थे, जिन्होंने डॉ. एन.बी. खरे से लेकर सुन्दरलाल पटवा और दिग्विजय सिंह तक के कार्यकाल का अध्ययन और विश्लेषण किया। इस नाते ''मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के'' (जो बाद में पुस्तकाकार भी प्रकाशित हुई) के लेख इस प्रदेश की राजनीति का अध्ययन करने के लिए अनिवार्य संदर्भ सामग्री बन चुके हैं।
इन लेखों में बाबूजी ने संस्मरण शैली का प्रयोग किया है। जिसके बारे में वे लिख रहे हैं उससे व्यक्तिगत भेटों के चित्र उन्होंने उकेरे हैं तथा समय विशेष की उल्लेखनीय घटनाओं को एक वृहत्तर पृष्ठभूमि में देखने की कोशिश उन्होंने की है। अपनी रचना के इन जीवंत पात्रों में से कुछ के साथ बाबूजी के संबंध कुछ ज्यादा निकटता के रहे तो कुछ के साथ काम चलाऊ। किंतु अपने अध्ययन में उन्होंने तटस्थता का ही परिचय दिया है। जब इन लेखों की पुस्तक तैयार हुई तब बाबूजी अपने पुराने मित्र डॉ. शंकरदयाल शर्मा से उसका लोकार्पण करवाना चाहते थे जो उस समय उपराष्ट्रपति थे। शर्मा जी ने पुस्तक देखी, अपने ऊपर लिखा अध्याय पढ़ा; अपने बारे में लिखी कुछ बातें उन्हें प्रतिकूल लगी, उन्हें हटाने का मंतव्य प्रगट किया, लेकिन बाबूजी इस पर राजी नहीं हुए तो उन्होंने लोकार्पण करने से असमर्थता प्रगट कर दी।

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