हस्तलिखित पत्रिका से शुरुआत
अपने पचास साल के पत्रकार जीवन में मायाराम सुरजन के विभिन्न राजनीतिक दलों और सत्ताधीशों के साथ अलग-अलग स्तर पर रिश्ते रहे। मुख्य बात यह है कि एक पत्रकार के रूप में बाबूजी ने राजनेताओं के साथ सदैव एक सम्मानजनक दूरी बनाई रखी। जिनके साथ उनकी वैचारिक सहमति थी, उन्होंने कभी भी उनके निकट होने का प्रयत्न नहीं किया, और न ही जिनसे व्यक्तिगत या वैचारिक मतभेद हुए उनके प्रति कोई दुर्भावना मन में रखी। वे स्वाधीनता संग्राम के दौर की उपज थे तथा देश प्रदेश की राजनीति में उनकी सक्रिय दिलचस्पी थी; वे मध्यप्रदेश की राजनीति को जितनी बारीकी में जानते थे वह बेमिसाल थी, लेकिन इसे आधार बनाकर उन्होंने पत्रकारिता से इतर कोई महत्वाकांक्षा मन में नहीं पाली।
मायाराम सुरजन के पत्रकार जीवन का प्रारंभ 1943 में होता है। वे वर्धा में बी.कॉम. के विद्यार्थी थे तथा मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने वर्धा नगर विद्यार्थी हिन्दी साहित्य परिषद का गठन किया था। इसमें उन्होंने ''प्रदीप'' नाम से एक हस्तलिखित पत्रिका भी प्रकाशित की जिसके दो अंक सौभाग्य से देशबन्धु लाइब्रेरी में सुरक्षित हैं। इस पत्रिका में उनके सहयोगी थे टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा और सुखचैन बासल। श्री टिकरिहा ने आगे चलकर छत्तीसगढ़ में एक लेखक पत्रकार के रूप में अपना स्थान बनाया व श्री बासल जबलपुर में वाणिज्य के प्राध्यापक बने। अच्छे सुन्दर नीले रंग के लाइन वाले कागज पर बाबूजी की हस्तलिपि में ही उस पत्रिका का ज्यादातर लेखन हुआ। विद्यार्थियों की इस पत्रिका से ही ज्ञात हो जाता है कि बाबूजी के राजनैतिक विचार किस दिशा में विकसित हो रहे थे।
मैंने जो दो अंक देखे उनमें से एक में यरवदा जेल में कस्तूरबा गांधी के अस्वस्थता पर चिंता प्रकट करते हुए संपादकीय है। दूसरे अंक में राष्ट्रमाता कस्तूरबा के निधन पर शोक विह्वल संपादकीय श्रध्दांजलि है। इन दोनों लेखों में ब्रिटिश सरकार की खुली आलोचना है। आश्चर्य नहीं कि इस कारण विद्यार्थी मायाराम पर सरकार की निगाहें टेढ़ी हुई हो लेकिन उन पर कोई कड़ी कार्रवाई नहीं हुई। इसके दो कारण हो सकते हैं- एक तो यह कि स्नेहिल प्राचार्य श्रीमन्नारायण जी ने उन्हें किसी तरह से वर्धा से अपने गांव भिजवा दिया और दूसरे यह कि वर्धा के उस समय के पुलिस अधीक्षक राय साहब करतारनाथ के हमउम्र बेटे प्रेमनाथ के साथ उनकी मित्रता हो गई थी। ये वही प्रेमनाथ हैं जिन्हें हम हिन्दी फिल्मों के एक चर्चित अभिनेता के रूप में जानते हैं। 1962 में पिता की मृत्यु के बाद प्रेमनाथ बंबई छोड़कर कुछ समय के लिए जबलपुर आ बसे थे। तब दोनों मित्र अरसे बाद फिर मिले।
वर्धा में अपने छात्र जीवन के दौरान बाबूजी, गांधीजी, पंडित नेहरू तथा अन्य महान स्वाधीनता सेनानियों के संपर्क में आए। लेकिन उन पर वैचारिक रूप से गांधी और नेहरू का ही प्रभाव पड़ा। मैंने बाबूजी की सुरुचि सम्पन्नता को देखा है और उसमें नेहरूजी की नफासत की झलक महसूस की है। दूसरी ओर उनमें भौतिक सुख सुविधाओं के प्रति वैसी ही निस्पृहता थी जो बापू की याद दिलाती थी। इस तरह अपने निजी आचरण और सिध्दांत दोनों में उन्होंने इन दो महान नेताओं की प्रेरणा ली, ऐसा मुझे अकसर महसूस होता है। वे 1945 में नौकरी करने नागपुर आ गए। यहां उन्होंने नौकरी के साथ-साथ लॉ कॉलेज में भी प्रवेश लिया। इस दौरान नवभारत में अपने वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी शैलेन्द्र कुमार के कारण वे वामपंथियों के नजदीक आए तथा इसी दौर में उन्हें ए.बी. वर्धन जैसे मित्र भी मिले। बाबूजी स्टूडेंट फेडरेशन में सक्रिय हुए तथा प्रगतिशील लेखक संघ में भी राजीव सक्सेना आदि उनके मित्र बने। इस तरह अपनी तरूणाई में ही उन्होने वाम रुझान के साथ मध्यमार्ग (लैफ्ट ऑफ सेंटर) को अपनाया तथा तमाम झंझावातों के बीच भी उन्होंने इस पथ को नहीं छोड़ा।
उनके जीवनकाल में पहले सीपी एवं बरार और फिर नए मध्यप्रदेश में अधिकतर समय कांग्रेस का ही शासन रहा। कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के साथ उनके परस्पर विश्वास के संबंध रहे। दूसरी तरफ साम्यवादियों ने भी उन्हें अपने निकट समझा। कांग्रेस से टूटकर निकले समाजवादियों के साथ भी उनके आत्मीय संबंध बने रहे। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि जनसंघ अथवा भाजपा के नेताओं के साथ भी उनके संबंध सदैव सौजन्यपूर्ण बने रहे। यहां एक प्रसंग का उल्लेख करना उचित होगा। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी। मुख्यमंत्री कैलाश जोशी राजकीय यात्रा पर पहली बार रायपुर आए। विमानतल पर देशबन्धु के तत्कालीन चीफ रिपोर्टर गिरिजाशंकर उनसे मिले तो जोशी जी ने सवाल किया- मायाराम जी कहां हैं? गिरिजा ने बताया कि - वे जबलपुर में हैं तो जोशी जी बोले- ये क्या बात हुई। मैं तो आज उनके साथ भोजन करने की सोचकर आया था। जब जोशी जी दुबारा रायपुर आए तो हमारे घर भोजन करने आए। राजनीति और पत्रकारिता दोनों ही क्षेत्रों में संबंधों का ऐसा निर्वाह बिरले ही देखने मिलता है।
1977-80 के बीच प्रदेश में जनता पार्टी के तीन मुख्यमंत्री हुए। कैलाश जोशी के अलावा सुन्दरलाल पटवा के साथ बाबूजी और देशबन्धु के संबंध सौजन्यपूर्ण ही रहे। श्री वीरेन्द्र कुमार सखलेचा इसका अपवाद थे। 1978 में किरंदुल गोलीकांड की जैसी रिपोर्ट देशबन्धु में छपी एवं सखलेचा सरकार की जो मर्यादित आलोचना अन्य प्रश्नों पर हुई वह मुख्यमंत्री को नागवार गुजरी। श्री सखलेचा ने इस तथ्य पर गौर नहीं किया कि बाबूजी ने अपने लेखों में उनकी प्रशासनिक क्षमता की सराहना भी की थी तथा काम के बदले अनाज जैसी योजना को पत्र का पूरा समर्थन दिया था। उनके कार्यकाल में देशबन्धु के विज्ञापनों में भारी कटौती हुई तथा हमें अपना भोपाल संस्करण मजबूरन बंद करना पड़ा। अनेक वर्षों बाद संसद के सेंट्रल हॉल में सखलेचा जी से मेरी भेंट हुई तब उन्होंने स्वीकार किया कि देशबन्धु को समझने में उनसे चूक हुई थी।
अपने पचास साल के पत्रकार जीवन में मायाराम सुरजन के विभिन्न राजनीतिक दलों और सत्ताधीशों के साथ अलग-अलग स्तर पर रिश्ते रहे। मुख्य बात यह है कि एक पत्रकार के रूप में बाबूजी ने राजनेताओं के साथ सदैव एक सम्मानजनक दूरी बनाई रखी। जिनके साथ उनकी वैचारिक सहमति थी, उन्होंने कभी भी उनके निकट होने का प्रयत्न नहीं किया, और न ही जिनसे व्यक्तिगत या वैचारिक मतभेद हुए उनके प्रति कोई दुर्भावना मन में रखी। वे स्वाधीनता संग्राम के दौर की उपज थे तथा देश प्रदेश की राजनीति में उनकी सक्रिय दिलचस्पी थी; वे मध्यप्रदेश की राजनीति को जितनी बारीकी में जानते थे वह बेमिसाल थी, लेकिन इसे आधार बनाकर उन्होंने पत्रकारिता से इतर कोई महत्वाकांक्षा मन में नहीं पाली।
मायाराम सुरजन के पत्रकार जीवन का प्रारंभ 1943 में होता है। वे वर्धा में बी.कॉम. के विद्यार्थी थे तथा मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने वर्धा नगर विद्यार्थी हिन्दी साहित्य परिषद का गठन किया था। इसमें उन्होंने ''प्रदीप'' नाम से एक हस्तलिखित पत्रिका भी प्रकाशित की जिसके दो अंक सौभाग्य से देशबन्धु लाइब्रेरी में सुरक्षित हैं। इस पत्रिका में उनके सहयोगी थे टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा और सुखचैन बासल। श्री टिकरिहा ने आगे चलकर छत्तीसगढ़ में एक लेखक पत्रकार के रूप में अपना स्थान बनाया व श्री बासल जबलपुर में वाणिज्य के प्राध्यापक बने। अच्छे सुन्दर नीले रंग के लाइन वाले कागज पर बाबूजी की हस्तलिपि में ही उस पत्रिका का ज्यादातर लेखन हुआ। विद्यार्थियों की इस पत्रिका से ही ज्ञात हो जाता है कि बाबूजी के राजनैतिक विचार किस दिशा में विकसित हो रहे थे।
मैंने जो दो अंक देखे उनमें से एक में यरवदा जेल में कस्तूरबा गांधी के अस्वस्थता पर चिंता प्रकट करते हुए संपादकीय है। दूसरे अंक में राष्ट्रमाता कस्तूरबा के निधन पर शोक विह्वल संपादकीय श्रध्दांजलि है। इन दोनों लेखों में ब्रिटिश सरकार की खुली आलोचना है। आश्चर्य नहीं कि इस कारण विद्यार्थी मायाराम पर सरकार की निगाहें टेढ़ी हुई हो लेकिन उन पर कोई कड़ी कार्रवाई नहीं हुई। इसके दो कारण हो सकते हैं- एक तो यह कि स्नेहिल प्राचार्य श्रीमन्नारायण जी ने उन्हें किसी तरह से वर्धा से अपने गांव भिजवा दिया और दूसरे यह कि वर्धा के उस समय के पुलिस अधीक्षक राय साहब करतारनाथ के हमउम्र बेटे प्रेमनाथ के साथ उनकी मित्रता हो गई थी। ये वही प्रेमनाथ हैं जिन्हें हम हिन्दी फिल्मों के एक चर्चित अभिनेता के रूप में जानते हैं। 1962 में पिता की मृत्यु के बाद प्रेमनाथ बंबई छोड़कर कुछ समय के लिए जबलपुर आ बसे थे। तब दोनों मित्र अरसे बाद फिर मिले।
वर्धा में अपने छात्र जीवन के दौरान बाबूजी, गांधीजी, पंडित नेहरू तथा अन्य महान स्वाधीनता सेनानियों के संपर्क में आए। लेकिन उन पर वैचारिक रूप से गांधी और नेहरू का ही प्रभाव पड़ा। मैंने बाबूजी की सुरुचि सम्पन्नता को देखा है और उसमें नेहरूजी की नफासत की झलक महसूस की है। दूसरी ओर उनमें भौतिक सुख सुविधाओं के प्रति वैसी ही निस्पृहता थी जो बापू की याद दिलाती थी। इस तरह अपने निजी आचरण और सिध्दांत दोनों में उन्होंने इन दो महान नेताओं की प्रेरणा ली, ऐसा मुझे अकसर महसूस होता है। वे 1945 में नौकरी करने नागपुर आ गए। यहां उन्होंने नौकरी के साथ-साथ लॉ कॉलेज में भी प्रवेश लिया। इस दौरान नवभारत में अपने वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी शैलेन्द्र कुमार के कारण वे वामपंथियों के नजदीक आए तथा इसी दौर में उन्हें ए.बी. वर्धन जैसे मित्र भी मिले। बाबूजी स्टूडेंट फेडरेशन में सक्रिय हुए तथा प्रगतिशील लेखक संघ में भी राजीव सक्सेना आदि उनके मित्र बने। इस तरह अपनी तरूणाई में ही उन्होने वाम रुझान के साथ मध्यमार्ग (लैफ्ट ऑफ सेंटर) को अपनाया तथा तमाम झंझावातों के बीच भी उन्होंने इस पथ को नहीं छोड़ा।
उनके जीवनकाल में पहले सीपी एवं बरार और फिर नए मध्यप्रदेश में अधिकतर समय कांग्रेस का ही शासन रहा। कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के साथ उनके परस्पर विश्वास के संबंध रहे। दूसरी तरफ साम्यवादियों ने भी उन्हें अपने निकट समझा। कांग्रेस से टूटकर निकले समाजवादियों के साथ भी उनके आत्मीय संबंध बने रहे। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि जनसंघ अथवा भाजपा के नेताओं के साथ भी उनके संबंध सदैव सौजन्यपूर्ण बने रहे। यहां एक प्रसंग का उल्लेख करना उचित होगा। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी। मुख्यमंत्री कैलाश जोशी राजकीय यात्रा पर पहली बार रायपुर आए। विमानतल पर देशबन्धु के तत्कालीन चीफ रिपोर्टर गिरिजाशंकर उनसे मिले तो जोशी जी ने सवाल किया- मायाराम जी कहां हैं? गिरिजा ने बताया कि - वे जबलपुर में हैं तो जोशी जी बोले- ये क्या बात हुई। मैं तो आज उनके साथ भोजन करने की सोचकर आया था। जब जोशी जी दुबारा रायपुर आए तो हमारे घर भोजन करने आए। राजनीति और पत्रकारिता दोनों ही क्षेत्रों में संबंधों का ऐसा निर्वाह बिरले ही देखने मिलता है।
1977-80 के बीच प्रदेश में जनता पार्टी के तीन मुख्यमंत्री हुए। कैलाश जोशी के अलावा सुन्दरलाल पटवा के साथ बाबूजी और देशबन्धु के संबंध सौजन्यपूर्ण ही रहे। श्री वीरेन्द्र कुमार सखलेचा इसका अपवाद थे। 1978 में किरंदुल गोलीकांड की जैसी रिपोर्ट देशबन्धु में छपी एवं सखलेचा सरकार की जो मर्यादित आलोचना अन्य प्रश्नों पर हुई वह मुख्यमंत्री को नागवार गुजरी। श्री सखलेचा ने इस तथ्य पर गौर नहीं किया कि बाबूजी ने अपने लेखों में उनकी प्रशासनिक क्षमता की सराहना भी की थी तथा काम के बदले अनाज जैसी योजना को पत्र का पूरा समर्थन दिया था। उनके कार्यकाल में देशबन्धु के विज्ञापनों में भारी कटौती हुई तथा हमें अपना भोपाल संस्करण मजबूरन बंद करना पड़ा। अनेक वर्षों बाद संसद के सेंट्रल हॉल में सखलेचा जी से मेरी भेंट हुई तब उन्होंने स्वीकार किया कि देशबन्धु को समझने में उनसे चूक हुई थी।
प्रिय ललित भैया
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर "उसमे प्राण जगाओ साथी "पढ़कर बहुत अच्छा लगा |बाबूजी मायाराम जी सुरजन पिपरिया तो अक्सर आते रहते थे परन्तु हमारे साथियों ने दो बार पिपरिया के विभिन्न कार्यक्रमों में उन्हें अतिथि के रूप में बुलाया था
अन्य युवा मित्रो को उनसे चर्चा करने में संकोच हो रहा था ..तब मैंने ही हिम्मत करके उनसे चर्चा कि शुरुआत की और विभिन्न प्रसंगो पर लम्बी चर्चा हुई थी | बाबूजी के संस्मरणों को हम तक पहुचाने के लिए शुक्रिया |
पूज्य बाबूजी स्मृति को प्रणाम |
गोपाल राठी
सांडिया रोड, पिपरिया 461775
मोबाइल न.09425608762, 09425408801