चार आने की इज्जत
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गत साठ वर्षों में हिन्दी पत्रकारिता का जो विकास हुआ उसमें मायाराम सुरजन का योगदान अग्रणी रहा। उन्होंने नागपुर, जबलपुर और भोपाल में काम करते हुए पत्रकारिता को एक स्वस्थ व निरंतर विकासशील स्वरूप प्रदान किया तथा पत्रकारों की ऐसी कम से कम दो पीढ़ियां तैयार कर दीं जिन्होंने आगे चलकर न सिर्फ मध्यप्रदेश बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान कायम की। 1959 में जब बाबूजी रायपुर आए तब यहां से सिर्फ एक ही समाचार पत्र निकलता था- महाकौशल। लेकिन बाबूजी द्वारा अखबार शुरू करने के निर्णय से मानो तालाब के स्थिर जल में हलचल मच गई। आनन-फानन में नवभारत व युगधर्म भी यहां आ गए। यही नहीं, वर्षों बाद जब बाबूजी ने सतना जैसे एक छोटे नगर से अखबार निकालने का साहस जुटाया तो वह भी कुछ सालों के भीतर ही एक प्रमुख प्रकाशन केन्द्र बन गया। ग्वालियर से भी एक संपूर्ण समाचार पत्र निकालने की योजना उन्होंने बनाई थी। यद्यपि इस पर अमल होने के पूर्व ही उन्होंने योजना से अपने आपको पृथक कर लिया।
मुझे लगता है कि अपने प्रथम एवं एकमात्र नियोक्ता रामगोपाल माहेश्वरी की तरह बाबूजी की भी इच्छा थी कि उनके पांचों बेटों के पास पत्र के अपने-अपने संस्करण हाें। इसीलिए रायपुर और जबलपुर से देशबन्धु के प्रकाशन के बाद उन्होंने भोपाल से 1974 में पत्र का तीसरा संस्करण प्रारंभ किया जो विपरीत परिस्थिति के कारण 1979 में बंद करना पड़ा। इसके बाद 1985 में सतना संस्करण प्रारंभ हुआ तो उनकी इच्छा को ही मूर्तरूप देने के लिए भोपाल से देशबन्धु के पुर्नप्रकाशन एवं बिलासपुर से पांचवां संस्करण निकालने का उपक्रम मैंने किया। यद्यपि तब तक भोपाल से बाबूजी का मन उचट चुका था। उन्होंने मुझसे कहा- ''मुझे पूर्व में भोपाल दो बार छोड़ना पड़ा। यह शहर मुझे रास नहीं आता।'' यह विडंबना ही है कि उसी भोपाल में उनका देहावसान हुआ। 1974 में जब पहली बार भोपाल से देशबन्धु शुरू हुआ तो उन्होंने नवभारत के अपने पुराने सहयोगी स्वाधीनता सेनानी भाई रतनकुमार जी को पहला संपादक नियुक्त किया। भाई साहब को 1975 के उपचुनाव में कांग्रेस टिकिट भी मिला, लेकिन वे जीत नहीं सके एवं श्री बाबूलाल गौर के राजनैतिक जीवन का अभ्युदय यहीं से प्रारंभ हुआ। मैं उस दिन भोपाल में ही था जब चुनाव प्रचार करने निकले गौर साहब देशबन्धु कार्यालय आए और बाबूजी से शुभकामनाएं भी प्राप्त कीं। ऐसी राजनीति की आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। अपने एक और पुराने साथी श्यामसुंदर शर्मा को शासकीय सेवा से इस्तीफा दिलवाकर बाबूजी उन्हें सतना संस्करण का संपादक बनाकर लाए। वे फिर लगभग दस वर्ष तक हमारे साथ बने रहे।
देशबन्धु के अनेक शुभचिंतक अक्सर चिंता व्यक्त करते हैं कि आप लोगों को व्यापार करना नहीं आता। मित्रों की यह राय शायद सही हो क्योंकि बाबूजी ने पत्रकारिता को कभी व्यापार माना ही नहीं। हम लोगों से वे कहा करते थे कि जिस दिन पैसा कमाना होगा उस दिन किराने की दुकान खोल लेंगे। लेकिन बाबूजी के समय से ही एक और बात कही जाने लगी थी कि देशबन्धु पत्रकारिता का स्कूल है और यह बात सही भी है। बाबूजी ने एक आदर्श शिक्षक और अभिभावक की भूमिका निभाते हुए अपने युवतर सहकर्मियों को तैयार किया। उन्हें काम करने के लिए एक खुला व जनतांत्रिक वातावरण दिया तथा वे समाज में अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा बना सकें, इसके लिए भी सदैव प्रोत्साहित किया। पहले और आज भी अखबारों में जो दमघोंटू वातावरण देखने मिलता है, पत्रकारों पर जिस तरह की बंदिशें लगाई जाती हैं व संपादक संस्था का जिस तरह से ह्रास कर दिया है बाबूजी की कार्यशैली उसके ठीक विपरीत थी। इसीलिए सन् 63 में ''अब्बन'' के नाम से सुपरिचित के.आई. अहमद जब सेंट्रल सिल्क बोर्ड में चले गए तो वहां से उन्होंने बाबूजी को पत्र लिखा कि मैं यहां आ जरूर गया हूं, लेकिन मुझे आप ललित का बड़ा भाई समझिए। आपका जो भी आदेश होगा उसका मैं पालन करूंगा। यह ठीक है कि अपने-अपने कारणों से पत्रकारों का आना-जाना चलता रहा, लेकिन उनमें से अधिकतर बाबूजी को उसी भावना से देखते रहे जो अब्बन जी के पत्र में व्यक्त हुई।
दरअसल, बाबूजी उस दौर के पत्रकार थे जिसमें अधिकतर भाषाई पत्रकार स्वयं ही अपने अखबार निकाला करते थे। अंग्रेजी की बात अलहदा थी जहां व्यापारी घरानों द्वारा पत्रों का संचालन होता था। बाबूजी के अनेक समकालीन पत्रकारिता के गुरों को जानते थे तथा अधिकतर की पृष्ठभूमि स्वाधीनता संग्राम की होने के कारण उनमें एक सामाजिक दायित्व बोध भी था। इनमें से कईयों ने आगे चलकर पत्रकारिता को विशुद्ध व्यवसायिक रूप दे दिया लेकिन यह बाबूजी ही थे जिन्होंने अपना रास्ता नहीं छोड़ा। यह निश्चित रूप से एक कठिन साधना थी। एक व्यवसाय के रूप में अखबार का संचालन और दूसरी ओर पत्रकार के रूप में मूल्यों का संवर्धन। बाबूजी अगर चाहते तो देश की राजधानी में सुख सुविधाओं का भोग व आत्मप्रचार करते हुए महान पत्रकार बनने का गौरव पा सकते थे, लेकिन उन्होंने उस पक्ष को नहीं चुना। वे तो मानो अपने जैसे अनेक मायाराम तैयार कर देना चाहते थे। हम लोगों को वे बार-बार समझाया करते थे कि हमारी प्रति हर सुबह चार आने में बिकती है। उनका आशय था कि अखबार प्रतिदिन पच्चीस पैसे में बिकता है और इसे खरीदने वाला आपके बारे में अच्छी या बुरी कैसी भी राय बना सकता है। इसलिए एक पत्रकार को हमेशा सचेत व निर्लिप्त रहकर ही काम करना चाहिए। उनकी जैसी सीख ऐसे निर्मल भाव से देने वाले पत्रकार उस समय भी कम ही थे तथा आज तो उसकी कल्पना करना भी दूभर है।
(इस ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता के कुछ प्रसंग अगले अध्याय में)
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