दीना पाठक के ''बाबूजी''
इसके आगे उन्होंने मुझे समझाया कि सफलता प्राप्त व्यक्ति सब एक जैसे नहीं होते। गुरबत और मुसीबतों का सामना तो बहुतों ने किया होगा, लेकिन उनमें से बहुत ऐसे होते हैं जो अतीत को याद करके घबराते हैं और हाथ खींचकर चलते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो संघर्षों से जीवन-शक्ति ग्रहण करते हैं। आत्मविश्वास पाते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि बाबूजी इस दूसरी श्रेणी के ही व्यक्ति थे। बचपन और बाद के संघर्षों का जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा ''धूप-छाँह के दिन'' में किया है, लेकिन वह भी निस्संग होकर। न कोई अतिरंजित बखान और न प्रदर्शन कर सहानुभूति बटोरने की कोशिश।
मायाराम सुरजन ने जीवन में प्राप्त सफलताओं पर कभी अनावश्यक अभिमान नहीं किया तथा समाज व भाग्य को ही वे इसका श्रेय देते रहे। असफलताओं को भी उन्होंने भाग्य-देवता का प्रसाद ही माना। उन्होंने जो कुछ भी अर्जित किया, उसे बाँटने में उन्हें संतोष मिलता था। यह सिलसिला 1945 से ही शुरू हो गया था, जब उन्होंने बी.कॉम. की उपाधि हासिल कर नौकरी शुरू कर दी थी। नागपुर, जबलपुर, भोपाल या रायपुर- बाबूजी जहाँ भी रहे, हमारा घर हमेशा मित्रों, परिचितों व संबंधियों का आशियाना बना रहा। कोई प्रेस में प्रशिक्षण लेने आ रहा है। कोई शहर में रहकर पढ़ाई पूरी करना चाहता है। किसी कन्या का विवाह नहीं हो रहा है सो भैयाजी या बाबूजी के संपर्कों से हो जाएगी। कोई उनके बेटे का मित्र है तो कोई मित्र के मित्र का पुत्र। किसी को बेहतर चिकित्सा की जरूरत है। और यह भी कि गर्मी की छुट्टी के बाद कोई बच्चा अपने घर वापिस लौट रहा है। यहां उसके समवयस्क बच्चे रो रहे हैं तो तय कर लिया- अच्छा तुम भी यहीं रहो। हम तुम्हारे बाबूजी से बात कर लेते हैं। ऐसी उदारता, ऐसी निश्छलता और ऐसी वत्सलता। शायद इसी को देखकर थोड़ी देर के लिए घर पधारी सुप्रसिद्ध अभिनेत्री दीना पाठक ने कहा- मैं भी आपको अब मायाराम नहीं, बाबूजी ही कहूंगी। शायद इसीलिए 1986 में मुंबई में रीढ़ की हड्डी का ऑपरेशन हुआ तो डॉ. ए.बी. बावडेक़र ने डिस्चार्ज करते वक्त बिल मांगने पर लेटर हैड पर ''विद् कॉम्प्लीमेंट्स'' लिखकर दे दिया। इतने बड़े डॉक्टर। वे भी पहिली बार मिले अपने इस मरीज को तीसरे दिन से बाबूजी का संबोधन देने लगे।
यह बाबूजी का समुद्र जैसा विशाल हृदय ही था जिसमें सबके लिए जगह थी और अपने पराए जैसी कोई भावना नहीं थी। प्रेस में पहले तो सब उन्हें भैय्या जी कहकर ही संबोधित करते थे, लेकिन जब मैंने भी काम करना प्रारंभ किया तो वे धीरे-धीरे सबके लिए बाबूजी बन गए। उनके उदात्त मन की छोटी सी झलक एक प्रसंग से मिलती है। 1970 में श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री थे। जबलपुर में छात्रों ने उनके प्रवास पर आने पर उग्र प्रदर्शन किया। लाठी चार्ज में बहुत से छात्र घायल हुए जिनमें शरद यादव, रामेश्वर नीखरा आदि शामिल थे। नीखरा विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष थे। बाबूजी कुलपति प्रभुदयाल अगि्होत्री के पास गए। अनुरोध किया कि घायल बच्चों को देखने आपको अस्पताल चलना चाहिए। आश्वस्त किया कि मैं साथ में हूं,कोई गड़बड़ी नहीं होगी। कुलपति ने उनकी बात मानी और इस तरह विद्यार्थियों का आक्रोश ठंडा पड़ा। इसके बाद बाबूजी ने छात्रों को भोपाल मुख्यमंत्री से मिलने भेजा। उनके नाम एक व्यक्तिगत पत्र भी लिखा। शुक्ल जी ने छात्रों की बातें सुनी और संतोषजनक समाधान किया। आंदोलन समाप्त हो गया। शरद यादव और रामेश्वर नीखरा दोनों राजनीति में बहुत ऊपर तक पहुंचे लेकिन उनकी स्मृतियों में बाबूजी आज भी जीवित हैं।
एक छोटा लेकिन मनोरंजक वाकया रायपुर में देखने मिला। बाबूजी अस्वस्थ थे और अस्पताल में थे। राजनारायण मिश्र याने हम लोगों के ''दा'' से किसी बात पर वे बेहद नाराज हुए। अस्पताल में दा को बुलाकर कहा कि कोई दूसरी जगह ढूंढ लो। दा सुनकर चुपचाप चले आए। उन्हें अगले दिन फिर तलब किया गया। ''सुना है बहू बीमार है। उसके ठीक होते तक तुम काम कर सकते हो।'' दा मुस्कुराते हुए वापिस आए। दा की पत्नी याने ममता भाभी सचमुच अस्पताल में भर्ती थीं। यह जानकारी पाकर बाबूजी का गुस्सा उतर गया और पारिवारिक चिंता ने उसका स्थान ले लिया। इसी तरह एक बार कुछ लोग शिकायत लेकर पहुंचे- ''आपके यहां दीपचंद काम करता है, उसने हमारी लड़की को छेड़ा है।'' बाबूजी ने उनको आश्वस्त किया कि ऐसा दुबारा नहीं होगा। दीपचंद के बड़े भाई फोरमैन दुलीसिंह को बुलाया- ''लड़का बड़ा हो गया है। इसके लिए जल्दी से लड़की ढूंढो और शादी करवा दो।'' अपने आसपास के लोगों की इस तरह की जो फिक्र उन्होंने की, वह बेजोड़ ही कही जाएगी।
जब उन्होंने रायपुर से अखबार निकालने का इरादा किया तो उनके साथ काम करने वालों में ऐसे चालीस लोग थे जो बिना किसी गारंटी के एक नितांत अपरिचित स्थान में आकर काम करने के लिए स्वेच्छा से सामने आ गए। इन सबका यही कहना था कि आप सुख-दु:ख में जैसा भी रखेंगे हम रहेंगे। कालांतर में इनमें से कुछ लोग परिस्थितिवश अन्यत्र ारूर गए, लेकिन अधिकतर रिटायरमेंट की उम्र तक और कुछ तो अपने अंतिम समय तक बाबूजी के साथ जुड़े रहे। ''देशबन्धु'' की नींव के पत्थर यही लोग थे।
मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूं कि बाबूजी के रूप में ऐसे पिता व मार्गदर्शक मिले जो अप्रतिम मानवीय संवेदनाओं से भरपूर थे तथा जिन्होंने कभी गरीब-अमीर, ऊंच-नीच, छुआछूत या स्वधर्म-विधर्म की धारणा में विश्वास नहीं रखा। मैं अन्यत्र लिख चुका हूं कि मेरे आत्मीय मित्र जमालुद्दीन ने बेटी का विवाह तय किया तो उनके स्वर्गवासी माता-पिता के रिक्त स्थान पर बाबूजी के नाम से निमंत्रण पत्र जारी हुआ। कुल मिलाकर यह बाबूजी की ही देन है कि मानवीय संबंधों के पालन में हमारा परिवार संकीर्णता और पूर्वाग्रहों से काफी हद तक बचा रहा है।
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