माला की माया, मेम्बरी की मणि
इस लेख के शीर्षक में यूं तो उलटबासी नजर आती है, लेकिन यह आप जान ही गए हैं कि आज की चर्चा किस दिशा में बढ़ रही है। अगर शीर्षक को बढ़ाने की गुंजाइश होती तो मैं इसमें एक अंश और जोड़ता जो शायद इस तरह होता-मनमर्जी के मंत्री अथवा मर्यादा का मंत्रित्व। शीर्षक के इन तीनों हिस्सों का एक दूसरे से संबंध स्पष्ट है और देश के वर्तमान राजनीतिक माहौल पर अपने आप में एक टिप्पणी है।
वैसे तो कहा जा रहा है कि मायावती ने मालाएं पहनीं, लेकिन हम तो कहेंगे कि मालाओं ने मायावती का वरण किया। वे किसी और के गले में न जाकर मायावती के गले में ही क्यों पड़ीं, इस पर विचार करने की जरूरत है। इस सच्चाई से सब वाकिफ हैं कि राजनीति चलाने के लिए धन की जरूरत होती है। जितनी बड़ी राजनीतिक इच्छा, उतनी ही बड़ी धन की जरूरत। राजाओं और तानाशाहों के धन उगाही के तरीके अलग किस्म के थे। उसमें केंद्रीकरण और किसी हद तक क्रूरता होती थी। जनतंत्र की जरूरतें विकेंद्रीकृत हैं और धन संग्रह की प्रक्रिया संकोच के आवरण में चलती है। यह धनसंग्रह आज की जरूरतों के लिए तो होता ही है, भविष्य की अनहोनियों का भी ध्यान इसमें रखा जाता है। यह डर सबको बना रहता है कि कल अगर पद न रहा तो काम कैसे चलेगा।
हमारे छत्तीसगढ क़े ही एक मंत्री थे। यह मध्यप्रदेश के दिनों की बात है। उनके बेटे या बेटी के विवाह में उनके विधानसभा क्षेत्र से भेंट स्वरूप हजारों मनीआर्डर पहुंचे। जानकारों ने शंका जतलायी कि इस बहाने मंत्री जी ने अपने काले धन को सफेद कर लिया। मंत्री जी का मासूम उत्तर था कि मतदाता मुझे चाहते हैं इसलिए उन्होंने मुझे ये मनीआर्डर भेजे। ऐसा ही तर्क तो मायावती जी का है। उनकी द्विविधा हमें समझ आती है। देश की दो बड़ी पार्टियों के पास लंबे अनुभव के चलते भांति-भांति की व्यवस्थाएं हैं। उनका पैसा विदेशी बैंकों में जमा हो सकता है; उद्योगपतियों के पास चल सकता है; यहां तक कि घर में बोरों में भरकर भी रखा जा सकता है। उन्हें कोई कुछ नहीं कहता। यदि मायावती भी ऐसा करने लगें तो मुसीबतें ही मुसीबतें होंगी। उन्हें स्विस बैंक का रास्ता नहीं मालूम; उद्योगपतियों के साथ अभी तक शायद उनके परस्पर विश्वास के रिश्ते नहीं होंगे; घर में रखेंगी तो आयकर नहीं तो प्रवर्तन निदेशालय, नहीं तो सीबीआई-कोई न कोई आ धमकेगा। सबसे अच्छा है कि जो चुनावी चंदा आ रहा है, उसे अपने नाम से बैंक में जमा रखो। टैक्स देना है तो वह भी भर दो। राशि सुरक्षित तो हुई। मायावती के आयकर वकील जो भी हों, उनके दिमाग की दाद देनी होगी। जो लोग फूल की माला पहनते हैं उनके यहां नोटों के सूटकेस और बोरे बिना जांच पड़ताल के सुरक्षित पहुंच जाते हैं। बसपा के लिए दिया गया चंदा अगर माला की शक्ल में मायावती के पास पहुंच रहा है तो इसमें इतनी हाय तौबा मचाने की क्या जरूरत है। जो मायावती को दौलत की बेटी कहकर धिक्कार रहे हैं वे गलती कर रहे हैं। दलित की बेटी को यदि लंबे समय तक राजनीति करना है तो दौलत जिस रूप में भी आए लेना ही पड़ेगी। नैतिकता की दुहाई देना सिर्फ ढकोसला है।
इस किस्से को यही छोड़ दूसरी बात करें। राष्ट्रपति जी ने राज्यसभा की मेंबरी मणिशंकर अय्यर को दे दी, इस पर हो हल्ला हो रहा है, लेकिन ऐसा क्या गलत हो गया? हमारी राजनीतिक परंपराएं ही इस रूप में विकसित हो रही हैं कि जो सत्ता में है वह जैसा चाहे वैसा कर ले। परिपाटियों को मानने की तो बात ही नहीं है। कानून आड़े आए तो उसको भी बदल देते हैं। मनमोहन सिंह बिना चुनाव लड़े प्रधानमंत्री बने हुए हैं। राज्यसभा की सदस्यता के नियम बदल दिए गए। सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष जैसे बड़ी कुर्सी पर बैठकर भी शांति निकेतन विकास प्राधिकरण की अध्यक्षता का मोह नहीं छोड़ पाए। जनप्रतिनिधित्व कानून में परिवर्तन कर दिया गया। अकेली सोनिया गांधी ने इस्तीफा देकर दुबारा चुनाव लड़ने की हिम्मत जुटाई। आज भी किसी ने यह नहीं पूछा कि शबाना आजमी के बाद जावेद अंख्तर को ही राज्यसभा के लिए मनोनीत क्यों किया गया। क्या यह वंशवाद को बढ़ावा देना नहीं है? क्या वे भारतीय साहित्य के प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं! मणिशंकर अय्यर का अपराध सिर्फ इतना है कि अतीत में मंत्री रह चुके हैं। वरना कांग्रेस और भाजपा दोनों ने राष्ट्रपति के कोटे से मनोनयन में अपनी मनमानी करने में कमी नहीं की। मणिशंकर अय्यर राज्यसभा में रहेंगे तो कुछ ठीक-ठिकाने की बात ही करेंगे।
तीसरी बात। छत्तीसगढ़ के मंत्री रामविचार नेताम ने कथित तौर पर बिलासपुर के प्रोटोकॉल अधिकारी को तमाचा मार दिया। नेताम जी का क्या दोष। वे ऐसा करने वाले पहले राजनेता नहीं हैं। उनकी अपनी पार्टी में उनके ही वरिष्ठ नेता अतीत में ऐसा कर चुके हैं। सत्ता मद के ऐसे प्रदर्शन से कोई भी पार्टी ऐसी बची नहीं है। यहां तक कि साम्यवादी दल भी नहीं। अफसोस इस बात का कि पीड़ित अधिकारी ने तमाचा मारने के लिए उठा हाथ बीच में ही क्यों नहीं रोक लिया। यह घटना जांच की नहीं, व्याख्या की मांग करती है। राजनेताओं और अधिकारियों के बीच किस तरह के संबंध बन रहे हैं और क्यों बन रहे हैं। दोनों के बीच जो सम्मानजनक दूरी होनी चाहिए वह क्यों कर खत्म हो गई है। 1977-78 के दौरान इंदौर में मंत्री रामानंद सिंह ने निगम आयुक्त सुदीप बैनर्जी पर साबुन-तौलिए के इंतजाम को लेकर रुतबा झाड़ने की कोशिश की थी और सुदीप ने मंत्री जी को वहीं के वहीं मर्यादा में रहने का पाठ सिखा दिया था। ज़ाहिर है कि डिप्टी कलेक्टर देवांगन या उनके जैसे अन्य में सुदीप बनर्जी की राह पर चलने का नैतिक बल नहीं है।
ऐसे किस्से हजार हैं। इन पर चटखारे लेकर चर्चा करने के बजाय यह विचार करना होगा कि स्वस्थ परंपराएं विकसित करने के लिए क्या उपाय किए जाएं।
25 मार्च 2010
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