आन्दोलन से उभरती तस्वीर
भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के द्वारा अलग-अलग चलाए गए आंदोलनों से जो तस्वीर बनती है
उससे भारत के सामाजिक, राजनीतिक जीवन में व्याप्त अंतर्विरोध के बहुत से नए पहलू उद्धाटित होते हैं। सबसे पहले कांग्रेस की ही चर्चा करें। 2004 से अब तक पार्टी और सरकार के बीच एक परिपक्व तालमेल नजर आ रहा था। अभी ऐसा कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं है कि इस तालमेल में सर्वोच्च स्तर पर कोई कमी आई हो, लेकिन मैदानी स्तर पर मिलने वाले संकेत कुछ और ही कहानी कहते हैं। ऐसा लगता है कि अपने दूसरे कार्यकाल में डॉ. मनमोहन सिंह अपने पद के प्रति ज्यादा सजग हैं और अपने विश्वस्त सहयोगियों के माध्यम से वे संगठन से दूरी बनाने का संदेश दे रहे हैं; दूसरी तरफ संगठन भी अपने विश्वस्तों के माध्यम से शासन की नकेल कसने की कोशिश कर रहा है। दिग्विजय सिंह के वक्तव्य, खासकर प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखने का सुझाव, इसकी पुष्टि करते हैं। इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण संकेत ए.के. एंटोनी ने यह कहकर दिया है कि शासनतंत्र में पारदर्शिता आज के समय की मांग है। मेरा मानना है कि श्री एंटोनी का वक्तव्य श्रीमती सोनिया गांधी की सहमति के बिना नहीं दिया गया है। (मौका लगा तो वे अगले प्रधानमंत्री हो सकते हैं) इस तरह अब एक तरफ मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह, चिदम्बरम, कपिल सिब्बल व आनंद शर्मा आदि हैं तो दूसरी तरफ सोनिया गांधी, राहुल गांधी, एंटोनी, दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश व मणिशंकर अय्यर इत्यादि हैं। इन दोनों के बीच प्रणव मुखर्जी की निगाह संभवत: अगले साल राष्ट्रपति की कुर्सी पर है।
भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के दौरान भारतीय जनता पार्टी की आंतरिक कमजोरी भी उभरकर सामने आई है। यह दुर्भाग्य की बात है कि भाजपा के सबसे बड़े एवं एकमात्र सर्वमान्य नेता अटलबिहारी वाजपेयी अपनी अशक्तता के कारण दृश्य से ओझल हो चुके हैं। उनके बाद अडवानी जी का ही नंबर आता है। वे पिछले सात साल में जिस तरह बार-बार उतावलापन व्यक्त करते नजर आए उसका खामियाजा बार-बार पार्टी को भुगतना पड़ रहा है। जैसा कि जगजाहिर है भाजपा बहुत बड़ी हद तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के निर्देशों से संचालित होती है। लेकिन ऐसा लगता है कि संघ का वर्तमान नेतृत्व उस वैश्विक परिदृश्य से बिल्कुल अपरिचित है जिसका असर भारत की राजनीति पर भी पड़ता है। बहुत से अध्येताओं को उम्मीद थी कि एक बार केन्द्रीय सत्ता पर काबिज हो जाने के बाद भाजपा में गुणात्मक परिवर्तन आएगा और वह कांग्रेस का राष्ट्रव्यापी विकल्प बनने में समर्थ हो सकेगी, लेकिन यह उम्मीद पूरी नहीं हुई। भाजपा की यह द्विविधा इस दौरान खुलकर सामने आई कि एक ओर उसके व्यापक जनाधार-विहीन शीर्ष नेतृत्व में गहरे मतभेद हैं और दूसरी ओर जनाधार मजबूत करने के लिए उमा भारती जैसे उग्र नेतृत्व मानो अनिवार्य हो गया है। पार्टी ने बाबा रामदेव को भले ही तन और धन से समर्थन दिया हो, लेकिन उसका मन वहां नहीं था। अधिकतर भाजपाई आपसी बातचीत में यह स्वीकार करते नजर आए कि इन अनशन से कुछ होना-जाना नहीं है।
इन दोनों आंदोलनों ने संवेदी समाज याने सिविल सोसायटी, जिसमें मुख्यत: एनजीओ शामिल हैं, के भविष्य के प्रति भी संशय उत्पन्न कर दिया है। आज यह प्रश्न पूछना लाजिमी है कि संवेदी समाज की भूमिका कहां तक होना चाहिए। लोक महत्व के विषयों पर सिविल सोसायटी सवाल उठाए, यहां तक तो बात बिल्कुल ठीक है। यदा-कदा वह परामर्शदाता का काम करे, वह भी स्वीकार्य है, लेकिन क्या वह संवैधानिक सत्ता का विकल्प हो सकती है! सिविल सोसायटी को सीमित समय के लिए ही सत्ता में भागीदारी क्यों करना चाहिए! यह हमारी मांग हो सकती है कि एक कारगर लोकपाल बिल बने; उसके लिए हमारे सुझाव भी हो सकते हैं, लेकिन यह सिविल सोसायटी के लिए किसी भी रूप में उचित नहीं है कि वह संसद की सार्वभौमिकता को चुनौती दे अथवा उसका विकल्प बनने की कोशिश करे। इस प्रसंग में स्वयं अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने जो सार्वजनिक बयान दिए हैं उनसे संवेदी समाज की साख कम हुई है। मुझे शंका होती है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर आरोप लगाकर, चुनाव प्रक्रिया पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े करके कहीं राष्ट्रपति प्रणाली के लिए जमीन तो तैयार नहीं की जा रही है! इसी तरह मेरे सुपरिचित, कृषि विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा का बाबा रामदेव के साथ सक्रिय व प्रत्यक्ष रूप में जोड़ना मुझे समझ नहीं आया। यदि राजनीति में हमारी दिलचस्पी है तो उसके लिए सीधे-सीधे राजनीति में आना चाहिए, यह मेरा मानना है।
इन आंदोलनों को लेकर भ्रष्टाचार बनाम साम्प्रदायिकता का मुद्दा अब उछाला जा रहा है। जाहिर है कि दोनों बिल्कुल अलग-अलग बुराईयाँ हैं और परस्पर विकल्प नहीं हैं। लेकिन अगर ऐसा हो रहा है तो इसका दोष बाबा रामदेव और अन्ना हजारे दोनों को ही जाता है। पहले अन्ना हजारे ने अपने अनशन के दौरान नरेन्द्र मोदी की खुलकर प्रशंसा की जिसकी कोई जरूरत नहीं थी। इसके बाद बाबा रामदेव के मंच पर साध्वी ऋतंभरा पहुंच गईं। यदि बाबा की स्वतंत्र राजनीतिक सोच होती तो वे साध्वी को मंच पर आने से रोक देते, किंतु ऐसा नहीं हुआ और इसका कारण यही है कि बाबा संघ के विचारों से अनुप्राणित हैं। उन्होंने चालीस-बयालिस पेज की जो पुस्तिका प्रकाशित की है उसमें वे अखण्ड भारत की कल्पना करते हैं। इन दोनों आंदोलनों ने मीडिया, खासकर टीवी, की विश्वसनीयता पर भी एक और प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। कल तक जो मीडिया अन्ना और बाबा का गुणगान करते नजर आ रहा था, अब वही उनकी गलतियां गिना रहा है।
इस दौरान साधु-संतों की जो भूमिका रही वह भी गौरतलब है। बाबा रामदेव का अनशन तुड़वाने के लिए श्रीश्री रविशंकर और मुरारी बापू ही नहीं, तांत्रिक चन्द्रास्वामी तक देहरादून पहुंच गए और पेजावर स्वामी शायद पहुंचते-पहुंचते रह गए। ये साधु महात्मा प्रवचन करें, योग सिखाएं, भक्त बनाएं, मंदिरों का निर्माण करें, इसमें किसी को क्या आपत्ति होगी! लेकिन क्या बात है कि देश में संतों की इतनी भारी भीड़ के बावजूद न तो कुशासन समाप्त हो रहा है, न भ्रष्टाचार में कमी आ रही है और न गरीबी, बीमारी ही दूर हो पा रही है! सुनते हैं कि ये संतगण लोककल्याण का काम भी करते हैं, लेकिन इनके पास जो ऐश्वर्य है उसका शायद अंश मात्र भी इस प्रयोजन से खर्च नहीं होता। इसे क्या कहा जाए कि साधु-महात्मा यह नश्वर लोक छोड़ने के पहले अपने भाई-भतीजों को ही अपना उत्तराधिकारी बनाते हैं और फिर उनके बीच इस वैभव के बंटवारे को लेकर झगड़े होते रहते हैं! ऐसे महामनाओं के वाग्जाल और चमत्कारों में जनता बार-बार फँसने के लिए तैयार हो जाती है, इस पर कहां तक अफसोस करें?
भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के दौरान भारतीय जनता पार्टी की आंतरिक कमजोरी भी उभरकर सामने आई है। यह दुर्भाग्य की बात है कि भाजपा के सबसे बड़े एवं एकमात्र सर्वमान्य नेता अटलबिहारी वाजपेयी अपनी अशक्तता के कारण दृश्य से ओझल हो चुके हैं। उनके बाद अडवानी जी का ही नंबर आता है। वे पिछले सात साल में जिस तरह बार-बार उतावलापन व्यक्त करते नजर आए उसका खामियाजा बार-बार पार्टी को भुगतना पड़ रहा है। जैसा कि जगजाहिर है भाजपा बहुत बड़ी हद तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के निर्देशों से संचालित होती है। लेकिन ऐसा लगता है कि संघ का वर्तमान नेतृत्व उस वैश्विक परिदृश्य से बिल्कुल अपरिचित है जिसका असर भारत की राजनीति पर भी पड़ता है। बहुत से अध्येताओं को उम्मीद थी कि एक बार केन्द्रीय सत्ता पर काबिज हो जाने के बाद भाजपा में गुणात्मक परिवर्तन आएगा और वह कांग्रेस का राष्ट्रव्यापी विकल्प बनने में समर्थ हो सकेगी, लेकिन यह उम्मीद पूरी नहीं हुई। भाजपा की यह द्विविधा इस दौरान खुलकर सामने आई कि एक ओर उसके व्यापक जनाधार-विहीन शीर्ष नेतृत्व में गहरे मतभेद हैं और दूसरी ओर जनाधार मजबूत करने के लिए उमा भारती जैसे उग्र नेतृत्व मानो अनिवार्य हो गया है। पार्टी ने बाबा रामदेव को भले ही तन और धन से समर्थन दिया हो, लेकिन उसका मन वहां नहीं था। अधिकतर भाजपाई आपसी बातचीत में यह स्वीकार करते नजर आए कि इन अनशन से कुछ होना-जाना नहीं है।
इन दोनों आंदोलनों ने संवेदी समाज याने सिविल सोसायटी, जिसमें मुख्यत: एनजीओ शामिल हैं, के भविष्य के प्रति भी संशय उत्पन्न कर दिया है। आज यह प्रश्न पूछना लाजिमी है कि संवेदी समाज की भूमिका कहां तक होना चाहिए। लोक महत्व के विषयों पर सिविल सोसायटी सवाल उठाए, यहां तक तो बात बिल्कुल ठीक है। यदा-कदा वह परामर्शदाता का काम करे, वह भी स्वीकार्य है, लेकिन क्या वह संवैधानिक सत्ता का विकल्प हो सकती है! सिविल सोसायटी को सीमित समय के लिए ही सत्ता में भागीदारी क्यों करना चाहिए! यह हमारी मांग हो सकती है कि एक कारगर लोकपाल बिल बने; उसके लिए हमारे सुझाव भी हो सकते हैं, लेकिन यह सिविल सोसायटी के लिए किसी भी रूप में उचित नहीं है कि वह संसद की सार्वभौमिकता को चुनौती दे अथवा उसका विकल्प बनने की कोशिश करे। इस प्रसंग में स्वयं अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने जो सार्वजनिक बयान दिए हैं उनसे संवेदी समाज की साख कम हुई है। मुझे शंका होती है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर आरोप लगाकर, चुनाव प्रक्रिया पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े करके कहीं राष्ट्रपति प्रणाली के लिए जमीन तो तैयार नहीं की जा रही है! इसी तरह मेरे सुपरिचित, कृषि विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा का बाबा रामदेव के साथ सक्रिय व प्रत्यक्ष रूप में जोड़ना मुझे समझ नहीं आया। यदि राजनीति में हमारी दिलचस्पी है तो उसके लिए सीधे-सीधे राजनीति में आना चाहिए, यह मेरा मानना है।
इन आंदोलनों को लेकर भ्रष्टाचार बनाम साम्प्रदायिकता का मुद्दा अब उछाला जा रहा है। जाहिर है कि दोनों बिल्कुल अलग-अलग बुराईयाँ हैं और परस्पर विकल्प नहीं हैं। लेकिन अगर ऐसा हो रहा है तो इसका दोष बाबा रामदेव और अन्ना हजारे दोनों को ही जाता है। पहले अन्ना हजारे ने अपने अनशन के दौरान नरेन्द्र मोदी की खुलकर प्रशंसा की जिसकी कोई जरूरत नहीं थी। इसके बाद बाबा रामदेव के मंच पर साध्वी ऋतंभरा पहुंच गईं। यदि बाबा की स्वतंत्र राजनीतिक सोच होती तो वे साध्वी को मंच पर आने से रोक देते, किंतु ऐसा नहीं हुआ और इसका कारण यही है कि बाबा संघ के विचारों से अनुप्राणित हैं। उन्होंने चालीस-बयालिस पेज की जो पुस्तिका प्रकाशित की है उसमें वे अखण्ड भारत की कल्पना करते हैं। इन दोनों आंदोलनों ने मीडिया, खासकर टीवी, की विश्वसनीयता पर भी एक और प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। कल तक जो मीडिया अन्ना और बाबा का गुणगान करते नजर आ रहा था, अब वही उनकी गलतियां गिना रहा है।
इस दौरान साधु-संतों की जो भूमिका रही वह भी गौरतलब है। बाबा रामदेव का अनशन तुड़वाने के लिए श्रीश्री रविशंकर और मुरारी बापू ही नहीं, तांत्रिक चन्द्रास्वामी तक देहरादून पहुंच गए और पेजावर स्वामी शायद पहुंचते-पहुंचते रह गए। ये साधु महात्मा प्रवचन करें, योग सिखाएं, भक्त बनाएं, मंदिरों का निर्माण करें, इसमें किसी को क्या आपत्ति होगी! लेकिन क्या बात है कि देश में संतों की इतनी भारी भीड़ के बावजूद न तो कुशासन समाप्त हो रहा है, न भ्रष्टाचार में कमी आ रही है और न गरीबी, बीमारी ही दूर हो पा रही है! सुनते हैं कि ये संतगण लोककल्याण का काम भी करते हैं, लेकिन इनके पास जो ऐश्वर्य है उसका शायद अंश मात्र भी इस प्रयोजन से खर्च नहीं होता। इसे क्या कहा जाए कि साधु-महात्मा यह नश्वर लोक छोड़ने के पहले अपने भाई-भतीजों को ही अपना उत्तराधिकारी बनाते हैं और फिर उनके बीच इस वैभव के बंटवारे को लेकर झगड़े होते रहते हैं! ऐसे महामनाओं के वाग्जाल और चमत्कारों में जनता बार-बार फँसने के लिए तैयार हो जाती है, इस पर कहां तक अफसोस करें?
16 जून 2011 को प्रकाशित
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