विदेशों में कालाधन
हम भारत के लोग एक मायने में दुनिया के तमाम लोगों से अनूठे हैं। हर छठे-छैमासे हमें किसी न किसी ऐसे मुद्दे की जरूरत पड़ जाती है जिस पर सार्वजनिक रूप से हल्ला मचाया जा सके।
मजे की बात है कि ऐसे मुद्दे हमें आराम से मिल भी जाते हैं। अपना बहुत सा कीमती वक्त हम इन पर बहसों में बीता देते हैं और फिर एक दिन सब कुछ भूल-भालकर वापिस अपने कामधाम में लग जाते हैं। ऐसे मुद्दों पर जब बहस होती है तो उसमें कल्पना की असीमित उड़ान भरने की छूट रहती है और तथ्यों व तर्कों से कोई खास वास्ता नहीं रखा जाता। ये बहसें हमें एक संशयग्रस्त समाज के रूप में प्रस्तुत करती हैं जिसका अपने आप पर से विश्वास उठ चुका है। इन दिनों जो मुद्दा गरमागरम समोसों की तरह हमें लुभा रहा है वह है विदेशी बैंकों में जमा देश का धन।
ऐसा बताया जा रहा है कि भारत का जो धन विदेशों में जमा है वह अरबों-खरबों में है तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का लगभग पचास प्रतिशत है। इस धन को वापिस लाने की मांग उठ रही है तथा देश को यह समझाने की कोशिश हो रही है कि जिस दिन यह पैसा वापिस आ जाएगा, उस दिन भारत एक सुखी सम्पन्न देश बन जाएगा। एक तरह से देशवासियों की भावनाओं को भड़काने का काम चल रहा है एवं वास्तविकता क्या है, इसे जानने-समझने के प्रयत्न नहीं के बराबर हो रहे हैं। इस विषय को थोड़ा-बहुत समझने में मुझे दो जिम्मेदार -जानकार नागरिकों से मदद मिली। पहले सुरजीत भल्ला जो देश में आर्थिक मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ हैं तथा जिन पर कांग्रेस या सरकार से सहानुभूति रखने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। दूसरे हैं छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ कर-विशेषज्ञ किशोर देशपांडे जिनके राजनैतिक विचार वर्तमान सरकार से मेल नहीं खाते। आशय यह है कि दोनो सरकार के तरफदार नहीं हैं।
सुरजीत भल्ला ने कुछ दिन पहले एक लेख में बताया कि विदेशों में जमा काले धन को लेकर बढ़-चढ़कर दावे किए जा रहे हैं, लेकिन वास्तविकता में वह धन राष्ट्रीय सकल उत्पाद के एक-डेढ़ प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। इसी तरह किशोर देशपांडे ने रायपुर की एक सभा में अपने व्याख्यान में बताया कि विदेशी बैंकों में भारतवासियों का पैसा जमा तो है, लेकिन उसका आकार क्या है यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। धन जितना भी है उसे वापिस लाना आसान नहीं है। इसके लिए यह साबित करना होगा कि उन देशों के कानून के अनुसार अपराध करके यह पैसा लाया गया है। यह धन अगर वापस आता भी है तो इससे टैक्स के रूप में सरकारी खजाने को होने वाली प्राप्ति बहुत ज्यादा नहीं होगी। इन दोनों विशेषज्ञों के विचारों का जो सार मैं ग्रहण कर पाया वह यही है कि बात जितनी बड़ी है उसे कई गुना बड़ा करके बताया जा रहा है।
इस बारे में मैं अभी तक जितना कुछ समझ पाया हूं उसके अनुसार विदेशी बैंकों में गुप्त खाते खोलकर धन जमा करने की यह प्रवृत्ति सिर्फ भारत में ही नहीं, दुनिया के लगभग हर देश में है तथा यह सिलसिला सौ साल से भी ज्यादा समय से चले आ रहा है। सच तो यह है कि स्विट्जरलैण्ड जैसे देशों की अर्थव्यवस्था इसी पर टिकी हुई है। दुनिया के सबसे सम्पन्न माने जाने वाले देश अमेरिका के नामीगिरामी फिल्मी सितारे, गायक, कलाकार, लेखक, खिलाड़ी इत्यादि भी टैक्स बचाने के लिए दूसरे देशों के नागरिक बन जाते हैं। प्रशांत महासागर के अनेक द्वीप देशों का सारा दारोमदार इन सम्पन्न अमेरिकी नागरिकों पर है। भारत की ही बात लें तो जैसा कि श्री देशपांडे ने अपने भाषण में बताया आजादी के समय राजे-महाराजाओं ने अपना पैसा बाहर भेज दिया था यह सोचकर कि जनतांत्रिक भारत में पता नहीं उनका गुजारा हो पाएगा या नहीं। दूसरे, जब इंदिरा जी के कार्यकाल में एक समय आयकर की दर 97 प्रतिशत तक पहुंच गई थी तब भी धनिकों ने अपनी आय बाहर भेज दी हो, तो कोई आश्चर्य नहीं।
विदेशों में जमा धन को वापिस लाने की जो मुहिम चल रही है वह मुख्य तौर पर और शायद जानबूझकर, वर्तमान सरकार को कटघरे में खड़ा करती है। ऐसा आभास दिया जा रहा है कि विदेशी बैंकों में यदि भारतीय धन है तो वह कांग्रेस नेतृत्व के चलते है। विपक्ष के लिए सत्तारूढ़ गठबंधन पर आक्रमण करने का यह एक और अच्छा मौका है, लेकिन विपक्ष से जिस जिम्मेदारी और ईमानदारी की अपेक्षा की जाती है, उसका यहां अभाव परिलक्षित होता है। एक तो ज्ञातव्य है कि जिन भारतीयों ने विदेशी बैंकों में पैसा जमा किया है वे एनआरआई अथवा पीआईओ हो सकते हैं और भारत के कानून संभवत: इस मामले में लागू उन पर न होते हों। दूसरे, राजनीतिक दलों का जो पैसा इस तरह से जमा होगा वह मुख्य रूप से सैन्य सामग्री की खरीद पर मिले कमीशन का होगा, जिसका एक अच्छा-खासा हिस्सा आम चुनावों के समय किसी न किसी तरीके से देश में आता होगा। तीसरे, अनेकानेक वाणिज्यिक प्रतिष्ठान आयात-निर्यात की प्रक्रिया में विदेशों में गुप्त रूप से लेनदेन करते हैं तथा स्वीट्जरलैण्ड या अन्यत्र जमाधन में बहुत बड़ा हिस्सा इस तरह से बनाया गया होगा। चौथे, भारत ने मॉरीशस तथा कुछ अन्य देशों के साथ दोहरे कराधन से बचने के लिए संधियां की हैं, उसके माध्यम से जो काला धन आज आ रहा है वह पूरी तरह से वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों का ही है। पांचवी बात यह है कि क्या देश के भीतर कालाधन नहीं है और क्या हर रोज देश के भीतर ही कालाबाजारी, जमाखोरी, गबन और घूस के नए-नए प्रकरण रोज सामने नहीं आ रहे हैं! सरकारी एजेंसियों के द्वारा छापे मारे जाते हैं, संपत्तियां जब्त की जाती हैं और फिर चुपचाप कुछ दिनों बाद सब कुछ सामान्य हो जाता है।
मुझे यह देखकर हैरत होती है कि विदेशों में जमाधन वापिस लाने की मुहिम का नेतृत्व बाबा रामदेव कर रहे हैं। उनके साथ श्री श्री रविशंकर भी जुड़ गए हैं और किरण बेदी जैसे अनेक भूतपूर्व नौकरशाह भी। ये जो आरोप लगा रहे हैं उसकी पुष्टि में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल तथा ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी जैसी संस्थाओं की रिपोर्ट्स को आधार बनाते हैं। ट्रांसपेरेंसी का कामकाज भारत में पूर्व नौसेना अध्यक्ष एडमिरल टहलियानी संभालते हैं। ऐसे तमाम लोगों का एक मंच पर आना मुझे चकित करता है। मैं देखता हूं कि भारत का अपराधबोध से ग्रस्त उच्च मध्यम वर्ग समय-समय पर ऐसे प्रतीक खड़े कर लेता है जिनके वक्तव्यों व उद्गारों पर तालियां बजाकर ग्लानि मुक्त हो सके। महाकवि तुलसीदास कह गए हैं''एक घड़ी, आधी घड़ी आधी में पुनि आध, तुलसी संगत साधु की, हरै कोटि-कोटि अपराध।''
भारत के नागरिकों ने यदि अवैध रूप से धनसंचय किया है तो वह विदेशी बैंक में हो या देशी बैंक के लॉकर में, वह चाहे बेनामी संपत्ति के रूप में, या कम मूल्य पर रजिस्ट्री की गई सम्पत्ति के रूप में हो, चाहे कथित रूप से पत्नी या बहू को मायके से मिले आभूषणों के रूप में हो, सबका खुलासा होना चाहिए। सेवानिवृत्त नौकरशाहों के बारे में क्या कहें, उन्हें तो किसी न किसी रूप में शक्ति चाहिए ही; लेकिन जब साधु-महात्मा ऐसे आन्दोलनों की अगुवाई करें तो सबसे पहले उन्हें अपने भक्तों का कालाधन खुले में लाने के लिए प्रेरणा देना चाहिए।
गुरू नानकदेव के बारे में एक कथा प्रचलित है- उन्होंने गरीब की रोटी स्वीकार की और अमीर की नहीं। कारण पूछने पर उन्होंने गरीब की रोटी को दबाया तो उसमें से दूध की बूंदें टपकीं और अमीर की रोटी दबाने पर खून की बूंदें। बाबा रामदेव ने यह कथा जरूर सुनी होगी!
10 फ़रवरी 2011 को प्रकाशित
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