Saturday, 21 April 2012

भ्रष्टाचार- 2

असत्य का पारावार-2


सत्यम घोटाले ने देश के प्रधानमंत्री से लेकर छोटे शेयरधारक तक को अच्छी खासी परेशानी में डाल दिया है। देश के कॉरपोरेट इतिहास के इस सबसे बड़े अपराध का असर विदेशों में भी पड़ा है। जैसे-जैसे बातें खुल रही हैं समझ आ रहा है कि यह लंबे समय से चला आ रहा एक योजनाबध्द अपराध है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि विदेश में जेल न भुगतना पड़े इस डर से कंपनी के मालिक राजू ने स्वदेश की जेल में समय काटना बेहतर समझा और इसीलिए एक मासूम सा दिखने वाला पत्र लिखकर अपना अपराध स्वीकार कर लिया। अब लोग जानना चाहते हैं कि राजू को अपने किए की सजा कैसे मिलती है। वे सत्यम कंपनी के भविष्य के बारे में भी कयास लगा रहे हैं। लेकिन इनसे बढ़कर जनता की उत्सुकता यह जानने में भी है कि इस अपराध में राजू के साथी कौन-कौन थे। साथियों से मतलब कंपनी के अफसर, ऑडिटर, बैंक अधिकारी, निवेशक मंडल के सदस्य के अलावा प्रशासन और राजनीति में शीर्ष स्थानों पर बैठे व्यक्तियों से भी है। एक तरफ जनता की सोच है तो दूसरी तरफ कारपोरेट जगत के नेताओं, प्रवक्ताओं और उससे हित साधन करने वाली जमात की सोच है। सत्यम पर सुबह-शाम बहसें हो रही हैं और इसमें इस जमात का जनविरोधी चरित्र खूब खुलकर सामने आ रहा है। यह देख-सुनकर हैरत होती है कि कारपोरेट जगत के लोग अब अपनी तुलना बाकी देशवासियों से करने लगे हैं। इन दिनों वे यह कहते नजर आते हैं कि जैसा बाकी समाज है, वैसे ही उद्योगपति हैं। वे बड़े भोले अंदाज में कहते हैं कि राजू बाकी लोगों से अलग नहीं है। ये वही लोग हैं जो कल तक स्वयं के श्रेष्ठ होने का दावा करते थे।शेष समाज से अपने आपको अलग रखते थे, और क्लबों और कॉकटेल पार्टियों में राजनीतिज्ञों को कोसते जिनकी जबान नहीं थकती थी। ये देश को ठीक करने के लिए नेताओं को गोली मार देने की बात शराब या पैसे के नशे में धुत होकर किया करते थे। अब जब इन पर आन पड़ी है तो ये एकाएक आम जनता बन गए हैं।


इस अपराध पर और भी जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं वे अचरज में डालती   है। सबको पता है कि इस अपराध पर सीधी-सीधी कानूनी कार्रवाई चलना चाहिए और वह जितनी गति से चले उतना अच्छा है। लेकिन हम देख रहे हैं कि रामलिंगा राजू पुलिस की हिरासत की बजाय पहले कई हफ्तों तक न्यायिक हिरासत में रखे गए। कोई छोटी चोरी करे तो पुलिस की हिरासत और थर्ड डिग्री की मारपीट। अरबों का घोटाला करे तो न्यायिक अभिरक्षा याने पुलिस के हाथों से दूर। इस पर भी बहुत लोगों को दुख है कि राजू को कारागार में सी श्रेणी दी गई है और जेल की पतली दाल खाने को उन्हें मजबूर होना पड़ रहा है। राजनीतिक पार्टियों को इस प्रकरण पर जिस गंभीरता का परिचय देना चाहिए था उसका भी अभाव साफ-साफ परिलक्षित हो रहा है। यद्यपि प्रधानमंत्री कठोर शब्दों में इस पर बेबाक राय दे चुके हैं, लेकिन कांग्रेस, भाजपा और तेलगुदेशम के नेता व प्रवक्ता इसे भी एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने के सुनहरे अवसर के रूप में देख रहे हैं। यह तय है कि इन तीनों पार्टियों को राजू ने समय-समय पर उपकृत किया होगा। अगर ऐसा न होता तो भारत रत्न के योग मैट्रोमैन श्रीधरन के आरोपों पर कार्रवाई करने के बजाय आंध्र सरकार उन पर मानहानि का मुकदमा क्यों चलाती। अब शामत आई है तो सब अपना पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं। 

एक मुद्दा सत्यम के कर्मचारियों के भविष्य का है। कारपोरेट जगत के बहुत से लोग अब कर्मचारियों के हित की दुहाई दे रहे हैं। उनकी मदद के लिए कुछ एक केन्द्रीय मंत्री भी सामने आ गए। इसे मुख्य मुद्दा बनाकर बेल आउट पैकेज देने की वकालत की जा रही है। पुरानी कहावत है- ''मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन''। सरकार पैसा दे और कंपनी को बचाए, लेकिन कंपनी में जो पैसा आया था वह कहां गया? इस पर ये लोग मौन साध लेते हैं। भाकपा के राष्ट्रीय सचिव डी राजा ने उचित ही कहा है कि अगर कंपनी को धनराशि की आवश्यकता है तो वह उसकी सम्पत्ति बेचकर जुटाई जाए। यह तो दिख ही रहा है कि कंपनी से अवैध रूप से धनराशि निकाल-निकालकर ही राजू परिवार ने अनेक नई कंपनियां खड़ी की और उनका उपयोग निजी मुनाफा कमाने के लिए किया। इसलिए सरकार को सत्यम और राजू परिवार की सारी कंपनियों का बेहिचक अधिग्रहण कर लेना चाहिए। दूसरे शब्दों में अगर कंपनी का राष्ट्रीयकरण करना पड़े तो इसमें डॉ. मनमोहन सिंह को पीछे नहीं हटना चाहिए।

मैं यहां अमरीका के एक ताजा प्रसंग को याद करना चाहूंगा। आर्थिक मंदी का दौर शुरू होने पर डेट्रायट की तीनों बड़ी कार कंपनियों ने सरकार से बेल आउट पैकेज मांगा। सीनेट कमेटी के सामने उनकी सुनवाई हुई। तीनों कंपनियों के अध्यक्ष इस गिरी अवस्था में भी अपने-अपने चार्टर विमान लेकर वाशिंगटन गए। इस पर सीनेट के सदस्यों ने उन्हें बेहद खरी-खोटी सुनाई और उम्मीद की कि वे अब शेयर धारकों के धन का बेजा इस्तेमाल करने से बचेंगे। यानी इसी तर्ज पर भारत में भी बड़ी कंपनियों द्वारा सार्वजनिक धन का निजी उपयोग में अपव्यय करने पर पाबंदी लगना चाहिए। इतना याद करना प्रासंगिक व आवश्यक है कि पहले भी हमारे यहां उद्योगपति इसी तरह से कंपनी की जमा पूंजी पर ऐश करते रहे हैं। एक दौर में तमाम कपड़े कारखाने बीमार घोषित कर दिए गए और तब इंदिरा गांधी ने साहसिक कदम उठाते हुए नेशनल टेक्सटाइल्स कंपनी का गठन कर उनका राष्ट्रीयकरण किया। निजी क्षेत्र की अन्य कंपनियों के मामले में भी इसी तरह के कदम उठाए गए। अगर आगे ये ठीक से नहीं चल सके तो वह मिलीभगत के कारण। अगर सरकार सच में चाहे तो सत्यम को इस उपाय से अभी भी बचाया जा सकता है। सत्यम के ऑडिटर प्राइस वॉटरहाऊस कूपर का भी जिक्र करना यहां लाजिमी है। इस फर्म ने सार्वजनिक पत्र जारी किया है कि उसकी ऑडिट रिपोर्ट पर एतबार ना किया जाए। यह विचित्र तर्क है। अगर इसे मान लें तो फर्म अनेकानेक सवालों के घेरे में आ जाती है। हमारी चिंता इस बिन्दु पर है कि ऐसा अनेक फर्मों को विभिन्न केन्द्रीय विभागों और विभिन्न प्रदेश सरकारों ने तगड़ी फीस देकर परामर्शदाता नियुक्त किया हुआ है। हम मांग करना चाहेंगे कि इनके द्वारा दी गई रिपोर्टों पर जो भी काम चल रहा हो उसे तत्काल रोक दिया जाए। कल इनके सुझाए रास्ते पर चलकर कोई गड़बड़ होगी तो ये अपना पल्ला झाड़ लेंगे कि हमारी रिपोर्ट पर विश्वास ना किया जाए।
मुझे सबसे ज्यादा चिंता उन नौजवानों के बारे में है जो ऊंची-ऊंची डिग्रियां हासिल करते हैं और फिर सत्यम या प्राइसवॉटर हाऊस कूपर जैसी कंपनियों में आकर्षक पैकेज की नौकरी पाकर अपने जीवन को धन्य मानते बैठते हैं, जबकि इस तरह की कंपनियां इन युवाओं को बेईमान बना रही हैं, पैसे का गुलाम बना रही हैं और इनके आत्मिक बल को खोखला कर रही हैं। स्वर्णमृग के पीछे भागने से कितने दुख मिलते हैं- यह नए सिरे से याद करने का अवसर है। 

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