आपातकाल के कुछ प्रसंग 25 जून 1975 को सारे देश को चौंकाते हुए आपातकाल लागू हुआ। इसका असर समाचार पत्रों पर भी पड़ा। मध्यप्रदेश में संघ परिवार के मुखपत्र युगधर्म के सभी संस्करणों का प्रकाशन शासकीय आदेश से रुकवा दिया गया। प्रदेश शासन का यह निर्णय बाबूजी को नागवार गुजरा। जिस व्यक्ति ने अपने छात्र जीवन में पत्रकार कलम का उपयोग अंग्रेज सरकार के खिलाफ लिखने में किया हो उसे स्वतंत्र देश में अखबार पर बंदिश भला क्यों पसंद आती! वे भोपाल में मुख्यमंत्री प्रकाशचंद्र सेठी से मिले और अपनी आपत्ति दर्ज करवाई, कि जनतांत्रिक देश में किसी भी अखबार पर अंकुश लगाना एक गलत कदम है। बाबूजी ने युगधर्म के कर्मचारियों की रोजी-रोटी छिन जाने की चिंता भी व्यक्त की। मुख्यमंत्री ने बाबूजी की बात को समझा। उत्तर दिया कि प्रतिबंध लग गया है तो तीन महीने तक तो जारी रहेगा ही, लेकिन उसके बाद उठा लिया जाएगा। वैसा ही हुआ।देशबन्धु को सामान्य तौर पर कांग्रेस समर्थक अखबार माना जाता रहा है। दरअसल इस पत्र की परंपराएं नेहरूवादी रही हैं। आपातकाल के पूर्व जो अराजकता की स्थिति थी वह हमारी दृष्टि से चिंताजनक थी और जब आपातकाल लागू हुआ तो शुरुआती समय में देशबन्धु ने उसका स्वागत ही किया था। इसके बावजूद मायाराम सुरजन ने विरोधी विचार के एक अखबार को बचाने के लिए अपनी ओर से प्रयत्न किया तो इसे पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों के रक्षा के एक प्रयत्न के रूप में देखा जा सकता है। उस दौर में आगे चलकर जब संजय गांधी का प्रादुर्भाव हुआ तो उसका समर्थन इस पत्र ने नहीं किया। डेढ़ साल के उस दौर में संजय गांधी की एकाध तस्वीर छपी हो तो छपी हो वरना उनके कार्यक्रमों व कारनामों को देशबन्धु ने समर्थन नहीं दिया। दरअसल, बीस सूत्रीय कार्यक्रम के क्रियान्वयन पर भी बाबूजी के मार्गदर्शन में इस पत्र द्वारा लगातार प्रश्न उठाए जाते रहे। आपातकाल के दौरान ही सेठी जी की जगह श्यामाचरण शुक्ल दुबारा प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए थे। 1976 में रायपुर में संभवत: होली मिलन के कार्यक्रम में शुक्ल जी ने देशबन्धु के संपादक पं. रामाश्रय उपाध्याय से मजाक के लहजे में ही कहा होगा कि आपातकाल है, आप संभल कर लिखिए वरना मुश्किल में पड़ जाएंगे। उनकी इस बात से पंडित जी बेहद कुपित हुए और बाबूजी से चर्चा कर अगले ही दिन शुक्ल जी की शिकायत करने इंदिरा गांधी से मिलने रवाना हो गए। उन अठारह महीनों में समय-समय पर ऐसे और भी प्रसंग घटित होते रहे। छोटे-मोटे अफसरों ने सेंसरशिप को आधार बनाकर कुछ एक बार धमकाने की कोशिश की लेकिन हम लोग इससे अविचलित रहे आए। राज्य सरकार के स्तर पर हमारे विरुध्द कदम शायद इसलिए भी नहीं उठाया गया कि देशबन्धु किसी राजनीतिक एजेंडे के तहत काम नहीं कर रहा था और यह बात सत्ताधीश भी जानते थे। बाबूजी ने वैचारिक प्रतिबध्दता को व्यक्तिगत संबंधों के आड़े नहीं आने दिया और न व्यक्तिगत संबंधों को पत्र की नीतियों पर हावी होने का अवसर दिया। 1969 में हमारे यहां कम्पोजिंग के लिए इंग्लैण्ड से मोनोटाइप मशीन आयात की गई। बैंक से ऋण स्वीकृत हुआ ही था कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो गया व आयात प्रक्रिया खटाई में पड़ गई। उस समय संघ परिवार के नागपुर स्थित मराठी मुखपत्र तरूण भारत के प्रबंध संचालक भैय्या साहब खांडवेकर से मित्रता काम आई। उन्होंने बैंक ऑफ महाराष्ट्र के महाप्रबंधक से बातचीत की और रुकी हुई प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में मददगार हुए। इसी मोनोटाइप मशीन से जुड़ा हुआ एक और प्रसंग है। चूंकि यह छत्तीसगढ़ में ऐसी पहली मशीन थी तो स्थानीय प्रेसों में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जो इस मशीन को चला सके। इसलिए बाबूजी ने कम्पोजिंग विभाग के कुछ सुयोग्य कर्मचारियों को कलकत्ता के मोनोटाइप स्कूल में प्रशिक्षण लेने भेजा। एक साल बाद नवभारत रायपुर में भी यही मशीन आई तो उसके तत्कालीन संपादक गोविंदलाल वोरा के अनुरोध पर बाबूजी ने अपने दो ऑपरेटरों फेरहाराम व लीलूराम साहू को दूसरी शिफ्ट में काम करने के लिए नवभारत भेजा कि ये दोनों उनके कर्मियों को प्रशिक्षण दे सकेंगे। बाद में ऐसा कुछ हुआ कि नवभारत प्रबंधन ने इन दोनों को कुछ ज्यादा आकर्षक प्रस्ताव देकर अपने यहां रोक लिया। फेरहाराम वहीं के हो के रह गए, लेकिन लीलूराम का मन नहीं लगा और अपने आप घर लौट आए। वे कालांतर में प्रेस विभाग में मेरे सबसे सुयोग्य सहयोगी सिध्द हुए। लीलूराम को कोई काम सौंप देना याने बिल्कुल निश्चिंत हो जाना था। जब नित नई बदलती टेक्नालॉजी के साथ कदम मिलाकर चलना संभव नहीं रहा तभी वे रिटायर हुए। बात थोड़ी भटक गई। मुख्य मुद्दा तो यही था कि व्यापार में प्रतिस्पर्धा करते हुए भी सौजन्यपूर्ण संबंध कैसे निभ सकते हैं, इसकी मिसाल बाबूजी ने पेश कर दी थी। पत्रकार मायाराम सुरजन के मूल्यबोध का एक और उदाहरण दिया जा सकता है। देशबन्धु के भवन निर्माण हेतु शासन से जो भूखण्ड आबंटित हुआ उससे काफी लोगों को तकलीफ पहुंची। 1977 में दशहरे के दिन रायपुर के सारे समाचार पत्रों में खबर छपी कि देशबन्धु को कांग्रेस शासन द्वारा जमीन आबंटित की गई थी; अब जनता पार्टी का राज है तो इसे निरस्त कर देना चाहिए। यह खबर दैनिक महाकौशल में भी छपी जो प्रदेश में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता का अखबार था। मैंने दु:खी मन से सारे संपादकों को फोन किए। युगधर्म के संपादक बबन प्रसाद मिश्र को फोन पर मैंने याद दिलाया कि युगधर्म को कांग्रेस के जमाने में भूखण्ड मिला था और युगधर्म ने जो कंपनी बनाई थी उसके शेयर खरीदने वालों में कांग्रेसी भी शामिल थे तो फिर हम पर आघात करने से क्या हासिल हो रहा है। मैंने शुक्ल जी को भी फोन किया और नागपुर फोन कर अपने समवयस्क विनोद माहेश्वरी को भी। बहरहाल हम लोगों के मन में यह धारणा बनी कि यह समाचार गोविन्दलाल वोरा की प्रेरणा से प्रकाशित हुआ है। इसलिए जब अर्जुनसिंह जी ने उन्हें ''अमृतसंदेश'' के लिए जमीन आबंटित की तो सारे संपादकीय साथी बाबूजी के पास पहुंचे कि हम लोग अब बदला लेंगे तथा वोरा जी को आबंटित जमीन के खिलाफ अभियान चलाएंगे। बाबूजी ने बहुत शांत भाव से पूछा कि खबर छापने से तुम्हारा क्या नुकसान हुआ। थोड़ी मानसिक वेदना, थोड़ी भागदौड़, थोड़ी कानूनी लड़ाई,लेकिन जमीन तुम्हारे भाग्य में थी तो तुम्हें मिलकर रही। जो उनके भाग्य में है उन्हें मिलेगा। अपना दिमाग इन फालतू कामों में लगाने की जरूरत नहीं है। उनकी इस समुद्र जैसी गंभीरता के सामने हम क्या कहते। वापिस लौट आए। लेकिन इस निस्संगता का लाभ यही मिला कि आगे चलकर वोरा परिवार के साथ हमारे सौजन्यपूर्ण संबंध बने जो तीसरी पीढ़ी तक निभ रहे हैं। |
Friday, 20 April 2012
उसमें प्राण जगाओ साथी- 13
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