संस्मरण और पत्र लेखक
एक साहित्यिक के रूप में मायाराम सुरजन का जो महत्वपूर्ण योगदान है, वह उनके संस्मरणों से है। ''मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के'' शीर्षक से उन्होंने जो लेखमाला लिखी, जो बाद में पुस्तक रूप में प्रकाशित हुई, में न सिर्फ प्रदेश का राजनैतिक इतिहास है, बल्कि वे दुर्लभ राजनैतिक संस्मरण भी हैं। इसके अलावा उन्होंने कुल मिलाकर शताधिक संस्मरण लिखे होंगे जो एक ओर लेखक की गहरी संवेदनशीलता को प्रतिबिंबित करते हैं तो दूसरी ओर उनके विराट अनुभव व सजग विश्व दृष्टि को। ''अंतरंग'' व ''इन्हीं जीवन घटियों में'' शीर्षक से प्रकाशित दो पुस्तकों में अधिकतर संस्मरण संकलित हैं, लेकिन अब भी अनेक वृत्तांत पुस्तक रूप में सामने आना बाकी हैं।मायाराम सुरजन उन कुछ संस्मरण लेखकों में हैं जिन्होंने अपने आसपास के जीवन से ऐसे पात्र उठाए हैं जिन पर गुणी लेखकों की नार सामान्यत: नहीं जाती। प्राथमिक शाला के शिक्षकगण मास्टर नब्बू खाँ, सन्नूलाल जैन, मदनगोपाल पुरोहित, भिड़े जी, कॉलेज के प्राध्यापक श्रीमन्नारायणजी, पन्नालाल बलदुआ, भगवत शरण अधौलिया- इस तरह से लगभग 10-12 गुरुओं को उन्होंने बहुत उदार एवं कृतज्ञ मन से भावभीनी श्रध्दांजलि दी है। वे बाबूसिंह पर भी लिखते हैं जो प्रेस में एक भृत्य के रूप में सेवाएं देते रहे और पं. रामाश्रय उपाध्याय पर भी जो देशबन्धु के संपादक थे। अपने ड्राइवर मारूति राव माने की वृध्द मां पर ''आई'' शीर्षक से उन्होंने जो मर्मस्पर्शी संस्मरण लिखा है, उसे पढ़कर मेरी ही आंखों में न जाने कितनी बार आंसू आए होंगे। बाबूजी ने जिनके संपर्क में आए ऐसे महामनाओं व साहित्यिक विभूतियों पर भी संस्मरण लिपिबध्द किए हैं। इन सब में निस्संग निश्छल तरलता का प्रवाह प्रारंभ से अंत तक देख सकते हैं।बाबूजी ने 50-60 के बीच अपने अनेक दिवंगत मित्रों पर भी लिखा जैसे जगदलपुर में जनसंपर्क अधिकारी रहे भगवानसिंह मुस्तंजर, नवभारत में सहयोगी कृष्णकुमार तिवारी उर्फ छोटे भैय्या, पुस्तक विक्रेता जोरजी, जबलपुर फुटबाल संघ के महबूब अली आदि। राजेंद्र प्रसाद अवस्थी 'तृषित' (आगे चलकर कादंबिनी के संपादक) तब नवभारत में साहित्य संपादक थे। उन्होंने नागपुर से, बाबूजी को पत्र लिखा कि आप ऐसे संस्मरण मत लिखा कीजिए जो रुला डालते हों। भोपाल के अस्पताल में कवि विपिन जोशी का निधन हुआ तो बाबूजी ने अखबार के लगभग पूरे पेज में ''विपिन जोशी के नाम स्वर्ग में चिट्ठी'' लिखी। इसमें उन्होंने हिंदी लेखक की जीवन स्थितियों का गहरा व सटीक चित्रण किया। मुझे लगता है कि हमारे समीक्षकों व साहित्यिक पत्रिकाओं का ध्यान मायाराम सुरजन के संस्मरण साहित्य पर जाना चाहिए।बाबूजी के गद्य लेखन में जो प्रवाह, सादगी व तरलता थी, उसे संस्मरणों के अलावा उनके लिखे पत्रों में भी देखा जा सकता है। हिन्दी और अंग्रेजी पर उनका समान रूप से अधिकार था तथा अपने उर्दूदां मित्रों के साथ खतो-किताबत करने में उन्हें कोई मुश्किल नहीं होती थी। मुझे हमेशा लगते रहा है कि प्रेमचंद की भाषा में जो सादगी है वही बाबूजी और उनके अनन्य मित्र परसाई जी के लेखन में है। बाबूजी ने अपने पचास वर्ष पूरे करने पर एक संस्मरणात्मक लेख लिखा था उस पर उनके और परसाई जी के बीच अखबार के माध्यम से ही जो पत्राचार हुआ वह बेहद रोचक है। इसे बाद में अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने परसाईजी के संस्मरणों के अन्तर्गत पुनर्प्रकाशित किया। सुप्रसिध्द गीतकार नईम के साथ उनका जो पत्र व्यवहार चलते रहा वह भी खासा दिलचस्प है। इसमें उर्दू भाषा और साहित्य पर उनकी गहरी समझ का परिचय मिलता है।उनके पत्र लेखन की खूबसूरती सिर्फ साहित्यकारों को लिखे पत्रों तक सीमित नहीं थी। एक अखबार के संचालक होने के नाते उन्होंने जो व्यवसायिक पत्र लेखन किया, वह भी उनकी भाषा सामर्थ्य व अभिव्यक्ति की अद्भुत क्षमता को दर्शाता है। 1975-80 तक पत्र के लिए विज्ञापन जुटाने हेतु महानगरों तक बाबूजी यात्राएं किया करते थे। वे एक-एक हफ्ते बाहर रहकर लौटते और आने के तुरंत बाद टाइपराइटर पर बैठ जाते। यात्रा में उन्होंने अगर तीस विज्ञापनदाताओं से भेंट की तो वे उनमें से हरेक को व्यक्तिगत धन्यवाद पत्र लिखते। अंग्रेजी में लिखे इन पत्रों का पहला पैराग्राफ कभी भी समान नहीं होता था याने बाबूजी तीस लोगों को तीस तरह से चिट्ठी लिखते थे।1970 में नेशनल हेराल्ड लखनऊ की एक पुरानी छपाई मशीन रायपुर संस्करण के लिए खरीदने की बात चली। इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र पंडित उमाशंकर दीक्षित नेशनल हेराल्ड का कामकाज देखते थे। बाबूजी ने उन्हें अंग्रेजी में पत्र लिखा और उसमें अपना परिचय देते हुए एक स्थान पर उल्लेख किया कि आप अगर मेरे बारे में ज्यादा जानकारी हासिल करना चाहते हैं तो पंडित डी.पी. मिश्रा या पी.सी. सेठी से पूछ सकते हैं। इस पत्र से दीक्षित जी बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने मशीन हमें उधार में दे दी। जिसका पैसा कुछ समय बाद चुकाया गया। यही नहीं उन्होंने बाबूजी को नेशनल हेराल्ड का डायरेक्टर बनने का प्रस्ताव तक दे दिया। एक बार बाबूजी के वरिष्ठ सहयोगी पंडित रामाश्रय उपाध्याय ने एक प्रभावशाली राजनैतिक परिवार से जुड़े राजनेता पर कोई व्यंग्यात्मक टिप्पणी कर दी जो नेताजी को नागवार गुजरी। उन्होंने उग्र स्वर में बाबूजी को शिकायती पत्र भेजा तथा सुसंस्कृत न होने का आरोप लगाया। बाबूजी ने बेहद संयत भाषा में उनको उत्तर लिखा। इसकी एक इबारत कुछ इस तरह थी- ''हम सामान्य लोग हैं। शिष्ट समाज के कायदे क्या जानें। संस्कृति और सम्पत्ति आपको तो विरासत में मिली है, लेकिन आपके पत्र में यदि उस संस्कृति का थोड़ा परिचय मिलता तो बेहतर होता।'' बाबूजी इसी तरह मजे में बड़े से बड़े वार झेल जाते थे और जब उत्तर देते थे तो ऐसे ही सधे तरीके से कि सामने वाला पानी-पानी हो जाए।
एक साहित्यिक के रूप में मायाराम सुरजन का जो महत्वपूर्ण योगदान है, वह उनके संस्मरणों से है। ''मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के'' शीर्षक से उन्होंने जो लेखमाला लिखी, जो बाद में पुस्तक रूप में प्रकाशित हुई, में न सिर्फ प्रदेश का राजनैतिक इतिहास है, बल्कि वे दुर्लभ राजनैतिक संस्मरण भी हैं। इसके अलावा उन्होंने कुल मिलाकर शताधिक संस्मरण लिखे होंगे जो एक ओर लेखक की गहरी संवेदनशीलता को प्रतिबिंबित करते हैं तो दूसरी ओर उनके विराट अनुभव व सजग विश्व दृष्टि को। ''अंतरंग'' व ''इन्हीं जीवन घटियों में'' शीर्षक से प्रकाशित दो पुस्तकों में अधिकतर संस्मरण संकलित हैं, लेकिन अब भी अनेक वृत्तांत पुस्तक रूप में सामने आना बाकी हैं।मायाराम सुरजन उन कुछ संस्मरण लेखकों में हैं जिन्होंने अपने आसपास के जीवन से ऐसे पात्र उठाए हैं जिन पर गुणी लेखकों की नार सामान्यत: नहीं जाती। प्राथमिक शाला के शिक्षकगण मास्टर नब्बू खाँ, सन्नूलाल जैन, मदनगोपाल पुरोहित, भिड़े जी, कॉलेज के प्राध्यापक श्रीमन्नारायणजी, पन्नालाल बलदुआ, भगवत शरण अधौलिया- इस तरह से लगभग 10-12 गुरुओं को उन्होंने बहुत उदार एवं कृतज्ञ मन से भावभीनी श्रध्दांजलि दी है। वे बाबूसिंह पर भी लिखते हैं जो प्रेस में एक भृत्य के रूप में सेवाएं देते रहे और पं. रामाश्रय उपाध्याय पर भी जो देशबन्धु के संपादक थे। अपने ड्राइवर मारूति राव माने की वृध्द मां पर ''आई'' शीर्षक से उन्होंने जो मर्मस्पर्शी संस्मरण लिखा है, उसे पढ़कर मेरी ही आंखों में न जाने कितनी बार आंसू आए होंगे। बाबूजी ने जिनके संपर्क में आए ऐसे महामनाओं व साहित्यिक विभूतियों पर भी संस्मरण लिपिबध्द किए हैं। इन सब में निस्संग निश्छल तरलता का प्रवाह प्रारंभ से अंत तक देख सकते हैं।बाबूजी ने 50-60 के बीच अपने अनेक दिवंगत मित्रों पर भी लिखा जैसे जगदलपुर में जनसंपर्क अधिकारी रहे भगवानसिंह मुस्तंजर, नवभारत में सहयोगी कृष्णकुमार तिवारी उर्फ छोटे भैय्या, पुस्तक विक्रेता जोरजी, जबलपुर फुटबाल संघ के महबूब अली आदि। राजेंद्र प्रसाद अवस्थी 'तृषित' (आगे चलकर कादंबिनी के संपादक) तब नवभारत में साहित्य संपादक थे। उन्होंने नागपुर से, बाबूजी को पत्र लिखा कि आप ऐसे संस्मरण मत लिखा कीजिए जो रुला डालते हों। भोपाल के अस्पताल में कवि विपिन जोशी का निधन हुआ तो बाबूजी ने अखबार के लगभग पूरे पेज में ''विपिन जोशी के नाम स्वर्ग में चिट्ठी'' लिखी। इसमें उन्होंने हिंदी लेखक की जीवन स्थितियों का गहरा व सटीक चित्रण किया। मुझे लगता है कि हमारे समीक्षकों व साहित्यिक पत्रिकाओं का ध्यान मायाराम सुरजन के संस्मरण साहित्य पर जाना चाहिए।बाबूजी के गद्य लेखन में जो प्रवाह, सादगी व तरलता थी, उसे संस्मरणों के अलावा उनके लिखे पत्रों में भी देखा जा सकता है। हिन्दी और अंग्रेजी पर उनका समान रूप से अधिकार था तथा अपने उर्दूदां मित्रों के साथ खतो-किताबत करने में उन्हें कोई मुश्किल नहीं होती थी। मुझे हमेशा लगते रहा है कि प्रेमचंद की भाषा में जो सादगी है वही बाबूजी और उनके अनन्य मित्र परसाई जी के लेखन में है। बाबूजी ने अपने पचास वर्ष पूरे करने पर एक संस्मरणात्मक लेख लिखा था उस पर उनके और परसाई जी के बीच अखबार के माध्यम से ही जो पत्राचार हुआ वह बेहद रोचक है। इसे बाद में अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने परसाईजी के संस्मरणों के अन्तर्गत पुनर्प्रकाशित किया। सुप्रसिध्द गीतकार नईम के साथ उनका जो पत्र व्यवहार चलते रहा वह भी खासा दिलचस्प है। इसमें उर्दू भाषा और साहित्य पर उनकी गहरी समझ का परिचय मिलता है।उनके पत्र लेखन की खूबसूरती सिर्फ साहित्यकारों को लिखे पत्रों तक सीमित नहीं थी। एक अखबार के संचालक होने के नाते उन्होंने जो व्यवसायिक पत्र लेखन किया, वह भी उनकी भाषा सामर्थ्य व अभिव्यक्ति की अद्भुत क्षमता को दर्शाता है। 1975-80 तक पत्र के लिए विज्ञापन जुटाने हेतु महानगरों तक बाबूजी यात्राएं किया करते थे। वे एक-एक हफ्ते बाहर रहकर लौटते और आने के तुरंत बाद टाइपराइटर पर बैठ जाते। यात्रा में उन्होंने अगर तीस विज्ञापनदाताओं से भेंट की तो वे उनमें से हरेक को व्यक्तिगत धन्यवाद पत्र लिखते। अंग्रेजी में लिखे इन पत्रों का पहला पैराग्राफ कभी भी समान नहीं होता था याने बाबूजी तीस लोगों को तीस तरह से चिट्ठी लिखते थे।1970 में नेशनल हेराल्ड लखनऊ की एक पुरानी छपाई मशीन रायपुर संस्करण के लिए खरीदने की बात चली। इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र पंडित उमाशंकर दीक्षित नेशनल हेराल्ड का कामकाज देखते थे। बाबूजी ने उन्हें अंग्रेजी में पत्र लिखा और उसमें अपना परिचय देते हुए एक स्थान पर उल्लेख किया कि आप अगर मेरे बारे में ज्यादा जानकारी हासिल करना चाहते हैं तो पंडित डी.पी. मिश्रा या पी.सी. सेठी से पूछ सकते हैं। इस पत्र से दीक्षित जी बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने मशीन हमें उधार में दे दी। जिसका पैसा कुछ समय बाद चुकाया गया। यही नहीं उन्होंने बाबूजी को नेशनल हेराल्ड का डायरेक्टर बनने का प्रस्ताव तक दे दिया। एक बार बाबूजी के वरिष्ठ सहयोगी पंडित रामाश्रय उपाध्याय ने एक प्रभावशाली राजनैतिक परिवार से जुड़े राजनेता पर कोई व्यंग्यात्मक टिप्पणी कर दी जो नेताजी को नागवार गुजरी। उन्होंने उग्र स्वर में बाबूजी को शिकायती पत्र भेजा तथा सुसंस्कृत न होने का आरोप लगाया। बाबूजी ने बेहद संयत भाषा में उनको उत्तर लिखा। इसकी एक इबारत कुछ इस तरह थी- ''हम सामान्य लोग हैं। शिष्ट समाज के कायदे क्या जानें। संस्कृति और सम्पत्ति आपको तो विरासत में मिली है, लेकिन आपके पत्र में यदि उस संस्कृति का थोड़ा परिचय मिलता तो बेहतर होता।'' बाबूजी इसी तरह मजे में बड़े से बड़े वार झेल जाते थे और जब उत्तर देते थे तो ऐसे ही सधे तरीके से कि सामने वाला पानी-पानी हो जाए।
No comments:
Post a Comment