जनता के लिए कुछ सुझाव
अन्ना हजारे के अनशन को लेकर बहुत तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं और उसने बहुत सारे नए विवादों को भी जन्म दिया।
समाज के एक वर्ग ने इस मुद्दे पर अन्ना हजारे की आलोचना की कि जो बहस संसद में होना चाहिए, वे उसे सड़क पर ला रहे हैं: इसे लोकतांत्रिक संस्थाओं पर मंडराते एक खतरे के रूप में निरूपित किया गया। यह तर्क मुझे समझ नहीं आया। हम जिन्हें चुनकर भेजते हैं उनसे सुशासन की ही अपेक्षा करते हैं। यदि वे जब अपेक्षा पर खरे न उतरें तो उसकी अनदेखी क्यों की जाए? सहज बुध्दि कहती है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों से सवाल पूछना हमारा अधिकार है तथा इसके लिए जनतांत्रिक तरीके से यदि आन्दोलन करना पड़े तो वह जायज है। ऐसे किसी जन आन्दोलन की आलोचना तभी होना चाहिए जब वह जनतांत्रिक रास्ते से भटक जाए अथवा उससे जुड़े लोगों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा हो। अन्ना हजारे ने अपना अनशन तोड़ते समय नरेन्द्र मोदी को जो प्रमाणपत्र दिया, उससे उनकी साख में कमी आई, यह एक उदाहरण है।
बहरहाल लोकपाल बिल जिस भी रूप में आए उसकी उपयोगिता सीमित होगी जबकि भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। इसलिए आज हम लोकपाल बिल से आगे बढ़कर कहां तक जा सकते हैं, इस पर नागरिकों के बीच विचार करना आवश्यक हो गया है। हमें उन फैशनेबल लोगों का अनुसरण नहीं करना है जो हर मौकेपर मोमबत्तियां जलाने खड़े हो जाते हैं, बल्कि यह देखना है कि गांव के चौपाल से लेकर शहर के नुक्कड़ पर इस सर्वग्रासी प्रश्न पर गंभीर विचार मंथन कैसे हो। गौरतलब है कि भ्रष्टाचार दो हाथों के बीच हुआ लेन-देन है, जिसमें लेने वाला हाथ तो दिखाई देता है लेकिन देने वाले हाथ पर किसी का ध्यान नहीं जाता। जिन लोगों ने लाइसेंस परमिट राज अथवा नियंत्रित अर्थव्यवस्था को पचास-साठ साल तक जी भर कर कोसा, वे आज इस बात का जवाब दें कि उदारीकृत अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार क्यों पनप रहा है। दूसरे शब्दों में जिन प्रतिष्ठानों और व्यक्तियों ने पिछले बीस साल के दौरान अकूत कमाई की है, उन पर कब, कैसे, क्या कार्रवाई होगी, यह प्रश्न जनता को उठाना चाहिए। यह तो एक बात हुई। मैं कुछ और सुझाव बिन्दुवार देना चाहता हूं।
1. जगजाहिर है कि हमारे राजनेता चुने जाने के बाद अपनी जवाबदेही से बचने लगते हैं। मेरा मत है कि चाहे पंचायत का वार्ड हो, चाहे लोकसभा क्षेत्र, हर स्तर पर कांग्रेस मतदाता मंडल या भाजपा मतदाता मंडल जैसे समूह गठित हों। मेरे वोट से जो व्यक्ति जीता है, मैं उससे अधिकारपूर्वक पूछूं कि तुमने अब तक क्या किया है और क्या नहीं किया है। अपने ही वोटर के प्रश्नों को खारिज करना किसी भी निर्वाचित प्रतिनिधि के लिए आसान नहीं होगा। ऐसा होने पर ''विपक्ष का षड़यंत्र'' आदि जुमलों की आड़ लेना उसके लिए संभव नहीं रह जाएगा। दूसरी तरफ जो जन प्रतिनिधि अपने मतदाताओं के प्रति जवाबदेही के साथ काम करेगा, अगले चुनाव में उसे समर्थन मिलने की संभावनाएं बेहतर हो जाएगी। इसमें नागरिक भी पांच साल में एक बार के मतदाता के रोल से बाहर निकलकर अपने आपको एक बेहतर और सकारात्मक भूमिका निभाते हुए पाएगा।
2. मैं कुछ बड़े परिवर्तनों का सुझाव भी देना चाहता हूं। इसमें सबसे पहले हमें उस व्यवस्था की ओर लौटना चाहिए जिसमें राज्यसभा में राज्य के निवासी ही चुने जा सकते थे। कांग्रेस और भाजपा ने बड़े नेताओं के दबाव के चलते तथा क्षेत्रीय दलों ने धन्ना सेठों से चंदा बटोरने की दृष्टि से इस व्यवस्था को परिवर्तित किया और उस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी न जाने क्या सोचकर अपनी मुहर लगा दी। इससे निश्चित रूप से राजनीतिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है और इसे खारिज करने जनमत बनाने की आवश्यकता है।
3. प्रधानमंत्री अनिवार्य रूप से लोकसभा का सदस्य होना चाहिए ताकि पिछले दरवाजे से कोई भी प्रधानमंत्री न बन सकें।
4. विचारणीय है कि देश की लगातार बढ़ती आबादी के कारण जनप्रतिनिधियों का कार्यक्षेत्र इतना व्यापक हो गया है कि वे उसे चाहकर भी नहीं संभाल सकते। पहले आठ-दस लाख की आबादी पर एक लोकसभा सदस्य होता था, अब यह संख्या बढ़कर पच्चीस-तीस लाख तक पहुंच गई है। एक लोकसभा क्षेत्र की आबादी दस लाख और विधानसभा क्षेत्र की आबादी एक लाख से अधिक नहीं होनी चाहिए। इसके लिए यदि लोकसभा की सीटें 543 से बढ़ाकर एक हजार भी करनी पड़े तो कोई बुराई नहीं है। जनप्रतिनिधि और मतदाता के बीच संपर्क अधिक जीवंत होगा तो बिचौलियों का रोल कम होगा और प्रशासन की बेरुखी और लापरवाही में भी कमी आएगी।
5. संसद सदस्यों व विधायकों को जितना वेतन देना हो दीजिए, लेकिन उनसे बाकी सारी सुविधाएं छीन लीजिए। दिल्ली, भोपाल, रायपुर में उनका डेरा सिर्फ सत्र के दौरान रहना चाहिए। बाकी अपनी जेब से किराया देकर अपना मकान रखना हो तो रखें। अपना बिजली, पानी, टेलीफोन व यात्रा का खर्च भी वे स्वयं उठाएं।
6. दलबदल विधेयक को एक बार और संशोधित किया जाए। वह सिर्फ एक पंक्ति का हो कि ''जो भी सदस्य पार्टी छोड़ेगा उसकी सदस्यता स्वमेव समाप्त हो जाएगी।'' इससे खरीद-फरोख्त पर तुरंत रोक लगेगी।
7. सांसद निधि व विधायक निधि को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए।
8. मंत्री, सांसद, विधायक, अफसर ये इफरात कमाई की संभावना वाले गैर-सरकारी उपक्रम यथा खेल संगठन आदि में किसी भी रूप में पदाधिकारी न बन सकें, संरक्षक भी नहीं।
9. हर स्तर के शासकीय कर्मी की सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष कर दी जाए। इसके बाद उसे किसी भी आयोग, मंडल आदि का सदस्य बनने की इजाजत न हो। दरअसल, ऐसे बहुत से आयोगों आदि की जरूरत ही नहीं है।
10. इन शासकीय कर्मियों को भी वेतन व महंगाई भत्ते के अलावा और किसी तरह की सुविधा न दी जाए। उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद निजी कम्पनी में नौकरी करने की इजाजत किसी भी रूप में न हो, यही लोग सरकारी सेवा में रहते हुए निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाते हैं और बाद में उन कंपनियों में जाकर गुल खिलाते हैं। (छठे वेतनमान के बाद इन्हें पेंशन से जो राशि मिल रही है, वह पर्याप्त से अधिक है।)
11. सत्ता का सुपरिभाषित एवं सुस्पष्ट विकेन्द्रीकरण हो। मसलन जहां टाउन इंस्पेक्टर को सिपाही की डयूटी लगाने का अधिकार हो, वहां एसपी का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए: यही बात हर विभाग में लागू होती है।
12. देश में भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा कारण यह है कि आवश्यकताएं असीमित हो गई हैं। जनता के सामने निजी उपभोग के लिए नित नए प्रलोभन आते हैं। इससे जो असंतुलन पैदा हो रहा है इसे दूर करने के लिए कराधान प्रणाली में व्यापक सुधार की आवश्यकता है। विलासिता तथा ठाठबाट पर भारी टैक्स लगाना चाहिए जिससे जनता सादगीपूर्ण जीवनशैली की ओर अग्रसर हो सके।
13. एक नियम है कि शासकीय कर्मी एयर इंडिया से ही वायु यात्रा कर सकते हैं। यह नियम अस्पताल व स्कूल आदि के बारे में भी लागू किया जाए। जब कलेक्टर की बेटी सरकारी स्कूल में पढ़ेगी और कमिश्नर की मां का इलाज सरकारी अस्पताल में होगा तो वहां अपने आप सुधार हो जाएगा।
ये कुछ सुझाव हैं। पाठक आगे विचार करें।
21 अप्रैल 2011 को प्रकाशित
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