Sunday, 22 April 2012

भ्रष्टाचार-7

अन्ना हजारे का अनशन 


इस टी.वी. समय में जो न हो जाए सो कम है!अन्ना हजारे दिल्ली में अनशन पर बैठे तो जैसे पूरा देश हिल गया! और अनशन समाप्त हुआ तो जैसे देश रातोंरात बदल गया! इंडिया गेट पर विजय जुलूस निकल गया और मोमबत्तियां बुझाकर सारे आन्दोलनकारी अपने-अपने घर लौट गए। अब लोकपाल का विधेयक आएगा और जैसे देश से भ्रष्टाचार का नामोनिशान मिट जाएगा!
चार दिन खूब शगल रहा और वर्ल्डकप और आईपीएल के बीच लगभग इतना ही वक्त खाली जा रहा था।  ''अंधा क्या मांगे, दो ऑंखें''। अन्ना देवदूत की तरह आए और चमत्कार दिखाकर छोटे परदे से फिलहाल विदा हो गए। 
रायपुर में अंतिम संस्कार करनेवाली एक संस्था ने अन्ना हजारे को कलयुग का गांधी की उपाधि दी (गोया महात्मा गांधी सतयुग में पैदा हुए थे)।  कितने ही लोगों को जयप्रकाश नारायण याद आने लगे। किसी ने उनके सिपाही से संत बनने की बात कही। लेकिन अन्ना हजारे न तो गांधी हैं, न जेपी और न कोई संत। उनकी अगर दस-बीस प्रतिशत तुलना किसी से की जा सकती है तो शायद सिर्फ विनोबा भावे से। यह इसलिए कि इंदिरा जी ने आपातकाल लगाया तो विनोबा जी ने उसका औचित्य ''अनुशासन पर्व'' कहकर प्रतिपादित किया। अन्ना हजारे ने उनकी पुत्रवधु याने सोनिया जी को भ्रष्टाचार से निपटने के लिए अपने अनशन के द्वारा कुछ वक्त मुहैया करवा दिया है। बाकी तो विनोबा भावे बहुत बड़े विद्वान थे, विचारक थे, रचनात्मक कार्यकर्ता थे, गांधी के पट्टशिष्य थे। जबकि अन्ना हजारे की सर्वोपरि योग्यता उनका एक निष्ठावान रचनात्मक कार्यकर्ता होना है। महात्मा गांधी के साथ उनकी तुलना का कोई औचित्य नहीं बनता। इसे एक भावोच्छवास ही माना जा सकता है। इसी तरह जेपी के साथ उनकी तुलना करना तर्कसंगत नहीं होगा।
बहरहाल इस अनशन के निहितार्थ क्या हैं और इससे क्या हासिल हुआ है, इस पर गौर किया जाए। देश में भ्रष्टाचार है, यह एक खुला रहस्य है, लेकिन क्या इसे एक और नया कानून बनाकर दूर किया जा सकता है? पहले हमारे यहां राजनैतिक व प्रशासनिक भ्रष्टाचार की जांच करने के लिए सीबीआई एकमात्र संस्था थी। तमाम आरोपों के बावजूद आज भी कोई पेचीदा प्रकरण आने पर सीबीआई को केस सौंपने की मांग उठाई जाती है। इस सीबीआई पर विश्वास का संकट जब उत्पन्न हुआ तो सीवीसी की संस्था खड़ी कर दी गई।  उसका  यह हश्र हुआ कि सीवीसी थॉमस को पद छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। वैसे उनके पहले वालों ने भी कौन से तीर मार लिए थे! एन.एन. वोहरा कमेटी की रिपोर्ट का क्या हुआ, किसको याद है? चुनाव में प्रत्याशियों के सम्पत्ति के ब्यौरे उजागर होने लगे इससे क्या फर्क पड़ा? अब यदि लोकपाल बिल बनकर लागू भी हो गया तो उससे हम किस चमत्कार की आशा करते हैं? हम आज भी अपनी अदालतों पर काफी विश्वास रखते हैं लेकिन कितने सारे न्यायाधीश भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुए हैं! राज्यों में सर्वत्र लोकायुक्त की संस्था पिछले कई साल से विद्यमान हैं लेकिन न्यायमूर्ति संतोष हेगडे ज़ैसा लोकायुक्त अपवाद स्वरूप ही सामने आता है। क्या यह कहना गलत होगा कि लोकायुक्त और राज्य सरकार के बीच इतनी गहरी सांठ-गांठ है कि यह संस्था अधिकतर प्रदेशों में अपनी साख गंवा चुकी है! इन सच्चाईयों से सारा देश वाकिफ है। अन्ना हजारे को तो दूसरों से कुछ ज्यादा ही पता है: अपनी उावल छवि का उपयोग वे महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने पहले भी कर चुके हैं; लेकिन प्रदेश स्तर पर किए गए उनके आन्दोलनों का अंतिम नतीजा क्या निकला। उन्हें अपनी मुहिम में आंशिक सफलता तो मिली, लेकिन महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार पनपने की परिस्थितियां पहले की तरह कायम रहीं। ऐसे में उन्होंने अनशन पर बैठने का निर्णय क्यों लिया, इसमें उनके साथ कौन लोग जुड़े, आन्दोलन को ताकत कैसे मिली और चार दिन के भीतर ही सरकार कथित रूप से क्यों झुक गई, इन सारे सवालों के जवाब आना अभी बाकी है।
इस पूरे परिदृश्य में बाबा रामदेव अनशन टूटने तक रहस्यमय ढंग से अनुपस्थित रहे; जबकि कुछ दिन पहले दिल्ली के रामलीला मैदान से उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ शंखनाद किया था, जिसमें अन्ना हजारे नेतृत्व की दूसरी पंक्ति में नजर आ रहे थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि अन्ना सामने आ गए और बाबा पीछे ढकेल दिए गए! क्या इसलिए कि बाबा की राजनीतिक महत्वाकांक्षा अन्य प्रमुखजनों यथा स्वामी अग्निवेश, मेधा पाटकर, किरण बेदी व प्रशांत भूषण इत्यादि को पसंद नहीं आई! क्या ऐसा माना जाए कि अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में एक सेक्युलर मंच के नेता के रूप में स्थापित किया जा रहा है! यह तो तय है कि अन्ना के अनशन को सफल बनाने में चैनलों के अलावा यदि किसी और ने मुख्य भूमिका निभाई तो वह संघ परिवार है; तभी लालकृष्ण आडवानी, सुषमा स्वराज, रमन सिंह, तरूण विजय सब उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कल तक कर रहे थे। 
लेकिन ऐसा लगता है कि बाजी कांग्रेस के हाथ में चली गई है। इसलिए बाबा रामदेव क्षुब्ध नजर आ रहे हैं और संघ परिवार कुछ कहने की स्थिति में नहीं है। कांग्रेस पार्टी में इतना लचीलापन इसके पहले कभी नहीं देखा गया। कांग्रेस के नेता हर समय सत्ता के अहंकार में तने जो रहते हैं। फिर इस बार क्या हुआ? सोनिया गांधी ने एक अपील की और देखते ही देखते बात बन गई। आज कांग्रेस यह दावा करने की स्थिति में है कि उसने ए. राजा, अशोक चव्हाण, सुरेश कलमाणी आदि पर ही कार्रवाई नहीं की, बल्कि कई कदम आगे बढ़कर भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए अन्ना हजारे का नुस्खा स्वीकार करने में संकोच नहीं किया। अभी एक हफ्ते पहले तक जिस पार्टी की छाती आरोपों के तीरों से छलनी हो रही थी वह अब दूसरों पर वार करने की स्थिति में आ गई है। क्या आसन्न विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को इसका कोई लाभ मिलेगा कहा नहीं जा सकता, लेकिन इतना अवश्य है कि मानसून सत्र के दौरान यूपीए के तेवर बदले हुए रहेंगे। अभी देखना यह भी है कि सोनिया गांधी पार्टी, सरकार और देश की राजनीति में अपनी पकड़ और मजबूत करने के लिए इस स्थिति का लाभ किस तरह उठाएंगी।


  14 अप्रैल 2011 को प्रकाशित 

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