Friday, 20 April 2012

उसमें प्राण जगाओ साथी- 19

संपादक सम्मेलन में सक्रियता
मायाराम सुरजन अपने पत्रकार जीवन की शुरूआती दौर से ही पत्रकारिता से संबंधित संगठनों में दिलचस्पी लेने लगे थे। इंडियन एंड ईस्टर्न न्यूजपेपर्स सोसायटी (आईईएनएस, आजकल आईएनएस) भारतीय भाषायी समाचार पत्र संगठन, (इलना) व अखिल भारतीय समाचार पत्र संपादक सम्मेलन (एआईएनईसी) की बैठकों व सम्मेलनों में वे नवभारत के प्रतिनिधि के रूप में अक्सर शामिल हुआ करते थे। उन दिनों याने 1945-55 के बीच आयोजित ऐसी बैठकों में वे संभवत: सबसे कम उम्र के प्रतिनिधि हुआ करते थे। इस नाते उन्हें जहां अपने अनुभव और ज्ञान को विकसित करने के अवसर मिले वहीं वे अनेक वरिष्ठ संपादकों या संचालक संपादकों का स्नेहपात्र भी सहज ही बन सके। इन कार्यक्रमों के दौरान ही देवदास गांधी, रामनाथ गोयनका, दुर्गादास जैसे प्रतिष्ठित पत्रकारों के साथ उनके संबंध बने।

इन तीन संगठनों के अलावा जब 1962-63 में प्रेस इंस्टीटयूट ऑफ इंडिया की स्थापना हुई तो बाबूजी उसके साथ भी जुड़े। यद्यपि उस समय ऐसी कुछ आपाधापी थी कि वे इस संस्था में सक्रिय नहीं हो सके। आगे चलकर प्रेस इंस्टीटयूट में प्रशिक्षण पाने के लिए उन्होंने मुझे देशबन्धु की ओर से तीन-चार बार भेजा। बहरहाल इन संस्थाओं के बीच जिस एक संस्था से उनका जीवनभर जुड़ाव रहा वह संपादक सम्मेलन याने एआईएनईसी ही थी। इसके लगभग हर कार्यक्रम में वे शामिल होते थे। ऐसा शायद ही कोई वार्षिक अधिवेशन हो जिसमें उन्होंने शिरकत न की हो। अनेक वर्षों तक वे सम्मेलन की कार्यकारिणी में भी विभिन्न जिम्मदारियां निभाते रहे। दो प्रसंगों का उल्लेख यहां अवश्य करना होगा। एक सम्मेलन का पचमढ़ी अधिवेशन व दूसरा लघु व मध्यम समाचार पत्रों की दशा पर तैयार की गई रिपोर्ट। यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि इन दोनों से सम्मेलन की गरिमा व प्रतिष्ठा बढ़ी।

1966 के अप्रैल माह में पचमढ़ी में अखिल भारतीय समाचार पत्र संपादक सम्मेलन का अधिवेशन आयोजित हुआ। तत्कालीन केन्द्रीय सूचना मंत्री राजबहादुर इसमें मुख्य अतिथि के रूप में आए। मुख्य मंत्री पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र उद्धाटनकर्ता के तौर पर उपस्थित थे। बाबूजी इस अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष थे। मेरी एम.ए. अंतिम की परीक्षा कुछ दिन पहले ही समाप्त हुई थी और एक जिज्ञासु युवा पत्रकार के बतौर मुझे इस अधिवेशन में भाग लेने का सुयोग मिला था। 1958 में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन के भोपाल अधिवेशन के ही समतुल्य यह अधिवेशन भी बाबूजी के जीवन का गौरवपूर्ण क्षण था। सारे देश से हिन्दी, अंग्रेजी तथा अनेक भारतीय भाषाओं के पत्रकार पचमढ़ी में जुटे थे। अक्षय कुमार जैन, कुलदीप नैय्यर, इंद्रजीत, कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी, डोरीलाल अग्रवाल, सतीशचंद्र काकती, बालेश्वर अग्रवाल जैसे कुछ नाम ही अभी याद आ रहे हैं। तीन दिन का सम्मेलन चला। उसके बाद राज्य सरकार के सौजन्य से अतिथि संपादकों के भेड़ाघाट भ्रमण आदि का कार्यक्रम भी बना। एक सप्ताह तक खूब गहमागहमी रही। प्रतिनिधियों का ऐसा स्वागत सत्कार न इसके पहले कहीं हुआ और न बाद में। मेरी मित्रता अपने से उम्र में कुछ बड़े एक युवक के साथ इसी सम्मेलन में हुई। जनसंपर्क विभाग में कुछ ही दिन पहले नियुक्त यह नवयुवा अधिकारी चकरघिन्नी की तरह घूम-घूम कर काम कर रहा था और मिनिट-मिनिट पर उसे कोई पुकार लेता था- रज्जू ये करो, रज्जू वो करो। ये रज्जू और कोई नहीं, हमारे सुपरिचित डॉ. सुशील त्रिवेदी हैं जो आगे चलकर छत्तीसगढ़ के राज्य निर्वाचन अधिकारी बने। थोड़ा विषयांतर हो गया लेकिन इस प्रसंग का उल्लेख करने का यह उचित मौका जान पड़ा।

यह स्वाभाविक था कि सम्मेलन के साथियों के बीच बाबूजी की धाक इससे और मजबूत हुई। कुछ सालों के बाद बाबूजी के प्रस्ताव पर ही लघु व मध्यम समाचार पत्रों की स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक उपसमिति गठित की गई तथा प्रस्तावक को ही उसका संयोजक बना दिया गया।  मुझे स्मरण आता है कि इस समिति के काम को अंजाम देने के लिए बाबूजी ने एक साल से भी ज्यादा समय दिया। यह वह समय था जब भाषायी समाचार पत्र भीषण संकट से गुजर रहे थे। बाबूजी ने एक वृहत प्रश्नावली तैयार की। उसे देश के तमाम समाचार पत्रों को भेजा। बारम्बार संपर्क कर प्रश्नावली को भरवाया। सरकारी-गैरसरकारी सूत्रों से अन्य आवश्यक आंकड़े जुटाए। दो-तीन बार उपसमिति की बैठकें हुईं। कड़ी मशक्कत के बाद रिपोर्ट तैयार होकर छपी और 1972 में जालंधर अधिवेशन में मुख्य अतिथि इंद्रकुमार गुजराल को सौंपी गई। इस अधिवेशन में अपने मित्र श्री गुजराल से बाबूजी की कुछ तकरार भी हुई। गुजराल जी का कहना था कि संपादक सम्मेलन में पत्र के व्यवस्था संबंधी प्रश्नों को क्यों उठाया जा रहा है। जबकि बाबूजी का उत्तर था कि जिन लघु व मध्यम समाचार पत्रों की समस्या पर यह रिपोर्ट केन्द्रित है उनमें पत्र के संचालन व संपादक के बीच कोई फर्क नहीं है। बहरहाल इस रिपोर्ट में जो सिफारिशें की गई थीं उनमें से अनेक पर आगे चलकर केन्द्र सरकार ने अनुकूल कार्रवाई की तथा समाचार पत्र उद्योग में, कम से कम उस समय, एकाधिकारवाद पनपने से बचा लिया।

ऐसे सक्रिय व्यक्ति को सम्मेलन का अध्यक्ष बनाया जाए, यह इच्छा बाबूजी के अनेक साथियों की थी। लेकिन इस बीच किसी पुरानी चोट के कारण रीढ़ की हड्डी में टी.बी. हो जाने के कारण बाबूजी को कई माह बिस्तर पर रहना पड़ा। उन्होंने अपने स्थान पर वरिष्ठ पत्रकार प्रेम भाटिया का नाम सामने किया। लेकिन कांग्रेसी राजनीति की दखलंदाजी के चलते भाटिया जी चुनाव नहीं जीत पाए। कांग्रेस नेता विश्वबंधु गुप्ता उस समय जो अध्यक्ष बने तो पच्चीस साल से बने ही हुए हैं।    

1 comment:

  1. श्री सुरजन जी,
    "उसमे प्राण जगाओ साथी." श्रृंखला के आलेख, श्रद्धेय बाबूजी के व्यक्तित्व और कृतित्व की गहराई को अन्वेषित करने का एक अनुपम और अभिनंदनीय प्रयास है.
    आज जब समूचा परिवेश संसय और अविश्वास से ग्रस्त है. समाज में नैतिकता के सारे मानक जब धवस्त हो रहे है, लोकतंत्र का चेहरा हर दिन और भी विद्रूप हो रहा हो,
    आम आदमी हर दिन और भी हताश और भी निरुपाय महसूस कर रहा हो. जब सत्ता का बहुमत लोकसेवा के छद्म में, अपने बहुमत को नैसर्गिक संसाधनों की खुली लुट के वैधानिक जनादेश में परिभाषित कर रहा हो,और लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो, समय के इस मुकाम पर पत्रकारिता के उस शिखर पुरुष को याद करना प्रासंगिक भी है और कहीं उनकी पुन्य स्मृतियों के आलोक में, इस गहन अँधेरे में नई राह और उर्जा की तलाश भी है , बाबूजी के जीवन दर्शन और पत्रकारिता के प्रति उनके समर्पण की छाया देशबंधु को आज भी दूसरो से अलग करती है.
    ''जो जीवन से हार गया हो, उसमें प्राण जगाओ साथी'' काश की समग्र कविता साथ में होती,
    साहित्य वही है जो समय से संवाद करे. और शायद यही लेखन की सार्थकता भी है.
    मेरी विनम्र शुभकामनाये.

    युगल गजेन्द्र

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