Wednesday, 11 April 2012

उसमें प्राण जगाओ साथी- 4







हिन्दी साहित्य सम्मेलन


हिन्दी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में बाबूजी की सक्रियता वर्धा में उनके कॉलेज के दिनों में ही शुरू हो गई थी। उन्होंने वर्धा विद्यार्थी हिन्दी साहित्य परिषद नामक संस्था का गठन किया था जिसका जिक्र हम बाद में भी करेंगे। वे जब नागपुर आए तो म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा प्रगतिशील लेखक संघ दोनों से वे सक्रिय रूप से जुड़े। प्रगतिशील पत्रिका ''नया पथ'' के संपादक समवयस्क राजीव सक्सेना से उनकी मित्रता हो गई थी और नागपुर में पत्रिका के लिए ग्राहक जुटाने का काम उन्होंने इस दौरान किया। सम्मेलन की गतिविधियों में भी वे बराबर हिस्सा लेते रहे। नागपुर उस समय राजधानी थी। वहां साहित्यकारों का अच्छा खासा जमघट था और इस मंडली में ऐसे अनेक मित्र थे जिन्होंने हिन्दी जगत में मध्यप्रदेश को प्रतिष्ठा दिलाई।
म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन के साथ उनकी बेहद सक्रिय भूमिका की शुरूआत नया राज्य गठित होने व भोपाल के राजधानी बनने से होती है। नए प्रदेश में स्वाभाविक तौर पर सम्मेलन का पुनर्गठन किया जाना था। 1957 में यह तय हुआ कि अगले वर्ष एक प्रदेश-स्तरीय सम्मेलन से नए अध्याय की शुरुआत की जाए। इसके लिए एक स्वागत समिति बनी। पंडित कुंजीलाल दुबे स्वागताध्यक्ष व मायाराम सुरजन स्वागतमंत्री निर्वाचित हुए। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को मुख्य अतिथि आमंत्रित करने का निर्णय हुआ। अपनी दैनंदिन व्यस्तताओं को संभालते हुए बाबूजी सम्मेलन को सफल बनाने के लिए सालभर तक लगे रहे। जैसा कि ऐसे आयोजनों में हमेशा होता है धन राशि का प्रबंध करना सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यहां भी था। इसके बाद स्मारिका के लिए सामग्री और विज्ञापन इकट्ठा करना दूसरा बड़ा काम था। यह सब कुछ होकर सम्मेलन का ऐतिहासिक अधिवेशन भोपाल की सदर मंजिल में सम्पन्न हुआ। यह बाबूजी के जीवन का एक गौरवपूर्ण क्षण था।
इसके बाद बाबूजी लगातार सम्मेलन की कार्यकारिणी में बने रहे। एक समय उन्होंने प्रधानमंत्री का दायित्व भी संभाला। उनके ही मार्गदर्शन में 1972 में राजनांदगांव में भव्य अधिवेशन हुआ। उस समय ही लगभग सर्वानुमति बन गई कि अगले अधिवेशन में मायाराम सुरजन सम्मेलन के अध्यक्ष होंगे। यद्यपि म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रदेश की सबसे पुरानी साहित्यिक संस्था थी लेकिन इसके कामों में कोई बहुत ज्यादा गति नहीं थी। 1972 तक राज्य सरकार से नाममात्र को तीन हजार रुपए का अनुदान मिलता था तथा अध्यक्ष का घर ही सम्मेलन का कार्यालय होता था। अधिकतर साहित्यकार सिर्फ इसलिए जुड़े थे कि एक चली आ रही परंपरा का निर्वाह करना था। यहां-वहां सम्बध्द संस्थाएं छुटपुट कार्यक्रम कर लेती थीं। बाबूजी जब प्रधानमंत्री बने तब एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया कि जबलपुर विश्वविद्यालय की बीए की परीक्षा में हिन्दी में सार्वधिक अंक पाने वाले विद्यार्थी को सुभद्राकुमारी चौहान स्वर्णपदक दिया जाएगा। इसे 1964 से प्रारंभ होना था। उधर मध्यभारत व विंध्यप्रदेश में क्षेत्रीय इकाईयां चल रही थीं जो लगभग स्वायत्त थीं और संभवत: समानांतर रूप से काम कर रही थी।
यह समूचा परिदृश्य 1976 में पूरी तरह से बदल गया था। सम्मेलन का मानो कायाकल्प हो गया। 1976 की मई में चिलचिलाती गर्मी के बीच विदिशा में अधिवेशन हुआ। बाबू जगजीवनराम मुख्य अतिथि बन कर आए। पहिली बार लगभग साढ़े तीन सौ प्रतिनिधियों ने अपना पंजीयन कराया। ठहरने की जगह कम पड़ गई और भोजन व्यवस्था भी। स्थानीय आयोजन समिति को अनुमान नहीं था कि इतना बड़ा अधिवेशन हो जाएगा। तीन दिन तक वैचारिक सत्रों में धुआंधार चर्चाएं हुर्इं और रात को पारंपरिक कवि सम्मेलन कोई डेढ़ सौ कवि मंच पर विराजमान होने के कठिन प्रयत्न में लगे हुए थे। ऐसे अपूर्व उत्साह का वातावरण सिर्फ एक तथ्य के कारण बना कि बाबूजी अध्यक्ष बन रहे थे और हिन्दी प्रेमियों तथा लेखकों के मन में विश्वास था कि अब कुछ नई बात बनेगी। और यही हुआ।
अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद बाबूजी ने बहुत तटस्थ भाव से अपनी कार्यकारिणी का गठन किया। उसमें युवाओं को भरपूर स्थान मिला। सम्मेलन से सम्बध्द होने वाली संस्थाओं में अभूतपूर्व वृध्दि हुई। बाबूजी ने राज्य शासन से सम्मेलन के लिए कार्यालय के लिए जगह मांगी। यथासमय सदर मंजिल के सामने शीशमहल में कार्यालय के लिए एक अच्छा खासा स्थान मिल गया, और विधिवत कार्यालय प्रारंभ हो गया। पहली बार पूर्णकालिक प्रबंध मंत्री की नियुक्ति हुई। अलमारियां, टाइपराइटर आदि खरीदे गए। टेलीफोन लगा। कार्यालय सहायक व भृत्य आदि भी नियुक्त हुए। इस सबकी व्यवस्था के लिए बाबूजी ने निरंतर भाग दौड़ कर समुचित अनुदान राशि राज्य सरकार से स्वीकृत कराई। तीन हजार की अनुदान राशि कालांतर में तीन लाख रुपए वार्षिक तक पहुंच गई। इसके बावजूद बाबूजी ने सम्मेलन अथवा साहित्यिक उद्देश्य के लिए की गई यात्राओं में कभी यात्रा व्यय नहीं लिया। इसे उन्होंने मातृभाषा का ऋण शोधन करना ही माना। अपने अध्यक्ष काल में बाबूजी ने सम्मेलन के निजी भवन के लिए भी दौड़-धूप की तथा भदभदा रोड पर अंतत: उन्होंने जो प्लाट आरक्षित कराया उसी पर उनकी मृत्यु के दस साल बाद सम्मेलन के लिए भवन बना।
वे 1974 से 1996 तक अपनी मृत्यु तक सम्मेलन के अध्यक्ष रहे। इस बीच उन्होंने जब भी पदमुक्त होने की इच्छा व्यक्त की वह सम्मेलन के साथियों द्वारा हर बार खारिज कर दी गई। उनके इस कार्यकाल की सांगठनिक दृष्टि से एक जो बड़ी उपलब्धि रही वह थी सम्मेलन को एक सूत्र में बांधना। म.प्र. के विभिन्न भौगोलिक घटकों में जो भावात्मक दूरी थी वह सम्मेलन के क्षेत्रीय इकाईयों में भी दिखती थी। अत्यंत धीरज के साथ उन्होंने सबको जोड़ने का काम किया। उनके कार्यकाल के पहले महामंत्री कोमलसिंह सोलंकी ने इस मुहिम में खूब साथ निभाया। 1976 में अध्यक्ष बनने के चार माह के भीतर ही उनके प्रयत्नों से सम्मेलन का अपना प्रतिनिधि मंडल मॉरीशस से द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में शिरकत करने भेजा गया। बाबूजी ने स्वयं जाने के बदले मुझे भेजा और मेरा मार्ग व्यय सम्मेलन के खाते में नहीं डाला गया।
म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन को सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा मिली अपने रचना शिविरों के कारण। अपनी टीम में जिन युवा लेखकों को उन्होंने जोड़ा था उन पर पूरा विश्वास करते हुए उन्हीं पर इन शिविरों के आयोजन की जिम्मेदारी डाली गई। ऐसा जनतांत्रिक रवैया हिन्दी की किसी भी अन्य संस्था में नहीं होगा। पचमढ़ी में कविता शिविर, अमरकंटक में कहानी शिविर, शिवपुरी में नाटय शिविर ऐसे अनेक आयोजन हुए जिनमें प्रदेश की उभरती प्रतिभाओं ने बहुत उत्साह के साथ भागीदारी की। आज हिन्दी कहानी, कविता में पचास-पचपन के आयु वर्ग में जिन लेखकों के नाम सुने जाते हैं उनमें से अनेक के व्यक्तित्व का निर्माण सम्मेलन के इन शिविरों में ही हुआ।

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