Wednesday 11 April 2012

उसमें प्राण जगाओ साथी


''उसमें प्राण जगाओ साथी'' - 1
(12:40:07 PM) 25, Oct, 2009, Sunday
ललित सुरजन


स्व. मायाराम सुरजन

इस साल जबकि ''देशबन्धु'' अपनी स्वर्ण जयंती मना चुका है, यह विचार स्वाभाविक ही मन में उठता है कि यह समाचार पत्र जिस व्यक्ति की कल्पना व आदर्शों का प्रतिफल है उसके जीवन की भी एक मुक्कमल छवि पाठकों के सामने प्रस्तुत की जाए। कहने की आवश्यकता नहीं कि मेरा आशय अपने पिता स्व. मायाराम सुरजन से है, जो हमारे ही नहीं, एक बहुत बड़े दायरे में बाबूजी के नाम से ही जाने जाते थे। मेरे अनुरोध पर उन्होंने अपने जीवनकाल में ही ''धूप छाँह के दिन'' शीर्षक से अपनी आत्मकथा लिखी थी जो देशबन्धु में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुई थी। मध्यप्रदेश के राजनैतिक इतिहास पर लिखी उनकी पुस्तक ''मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के'' तथा संस्मरण पर लेखों के दो संकलनों ''अंतरंग'' तथा ''इन्हीं जीवन घाटियों में'' में भी उनका आत्मपरिचय मिलता है। फिर भी मुझे लगता है कि बाबूजी के जीवन और कृतित्व का समग्र मूल्यांकन होना अभी बाकी है।
बाबूजी की मंडली के सदस्य व सागर विश्वविद्यालय में हिन्दी के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. कांतिकुमार जैन ने लगभग बीस साल पहले इस दिशा में सर्वप्रथम पहल की थी। उनकी एक शोध छात्रा तृप्ति जैन (शायद यही नाम था) ने बाबूजी के संस्मरण लेखों पर लघु शोध प्रबंध तैयार किया था। इधर अभी हाल में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल उन पर मोनोग्राफ प्रकाशित करने जा रहा है तथा महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा में भी उनके कृतित्व पर काम हो रहा है। यह जानकर संतोष मिलता है कि पत्रकारिता के अध्येताओं के बीच निधन के पन्द्रह वर्ष बाद भी उन्हें स्मरण किया जा रहा है।  इसी सिलसिले में मन में विचार उठा कि मेरे पास उनके जो संस्मरण और छवियां हैं उन्हें अगर लिपिबध्द कर सकूं तो बाबूजी को जानने में बेहतर मदद मिलेगी। लेखमाला का शीर्षक उनकी एक कविता ''जो जीवन से हार गया हो, उसमें प्राण जगाओ साथी'' से लिया है।

सीखने की शुरुआत
मैं पिपरिया (पचमढ़ी का रेलवे स्टेशन) में अपने दादा-दादी के साथ रहकर प्राथमिक शाला की पढ़ाई कर रहा था। यह 1952 की बात है। मैं दूसरी कक्षा में था और अक्षर जोड़ कर पढ़ना मुझे आ गया था। जबलपुर से बाबूजी याने मेरे पिता स्व. मायाराम सुरजन ने उन्हीं दिनों नवभारत की पार्सल में मेरे लिए ''चंदामामा'' भिजवाना शुरू किया। शब्द और साहित्य के संसार से यही मेरा पहला परिचय था। कुछ माह बाद 1953 में शायद गर्मी की छुट्टियों में मैं जबलपुर आया। बाबूजी अपने मित्र सेन्ट्रल टॉकीज के मालिक शिखरचंद जैन से किसी कार्यवश मिलने गए तो मुझे साथ ले लिया। मुझे उन्होंने वहां हाल में भेज दिया। सोहराब मोदी की फिल्म 'झांसी की रानी' चल रही थी। उसका कुछ हिस्सा शायद टैक्नीकलर था।  मुझे दौड़ते हुए घोड़े और चमकती हुई तलवारें ही याद रहीं। यह फिल्मों से मेरा पहला परिचय था।


उन दिनों चौथी में ही बोर्ड परीक्षा होती थी। उत्तीर्ण होकर आगे की पढ़ाई के लिए मैं जबलपुर आ गया। घर के पास नवीन विद्या भवन में पांचवीं में दाखिला हुआ। मकान मालिक और वकील मित्र एन.पी. श्रीवास्तव के समवयस्क पुत्र वीरेन्द्र और नरेन्द्र भी वहीं पढ़ते थे। एन.पी. कक्का आगे चलकर मध्यप्रदेश विधानसभा के उपाध्यक्ष बने। स्कूल में गणेशोत्सव मनाया जा रहा था। अपने चंचल स्वभाववश मैंने कक्षा में नाम लिखवा दिया कि कल गणेश जी पर कविता पढ़ूंगा। शाम को दफ्तर से बाबूजी घर आए। उन्हें मैंने बताया कि मुझे कल कविता पढ़ना है। बाबूजी ने थोड़ी ही देर में मुझे दो पैराग्राफ की एक कविता गणेश जी पर लिखकर दे दी। कक्षा में मेरी धाक जम गई। अफसोस कि कविता को मैं संभाल कर नहीं रख सका। लेकिन यह कविता से और बाबूजी के कवि रूप से मेरा पहला परिचय था।


जबलपुर के घर में पुस्तकों के लिए खासकर बनाई दो अलमारियां थीं। वे आज साठ वर्ष बाद भी देशबन्धु लाइब्रेरी की शोभा बढ़ा रही हैं। इनमें ढेर सारी पुस्तकें थीं- हिन्दी और अंग्रेजी की। बाबूजी ने अपने इस घरेलू लाइब्रेरी को ''ग्रंथ चयन'' का नाम दिया था। उसकी बाकायदा सील बनाई थी व हरेक पुस्तक की आवक-जावक के लिए लाइब्रेरी की तरह इन्डेक्स कार्ड बनाए थे। बाबूजी के अनेक मित्र उनसे पुस्तकें लेकर पढ़ा करते थे। डॉ. मदन श्रीवास्तव व, डॉ. बी.पी. गुप्ता जैसे गैर-साहित्यिक मित्र घर पुस्तक लेने आते थे, यह मुझे याद है। बाबूजी ने मुझे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया और छठवीं कक्षा पास होते न होते तक मैंने प्रेमचंद रचित ''मानसरोवर'' आठों भाग, पंडित सुदर्शन की ''तीर्थ यात्रा'' व ''पत्थरों का सौदागर'' एवं हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर मुंबई से प्रकाशित संपूर्ण शरत् साहित्य को पढ़ लिया था। समझा कितना था, यह कहना कठिन है। लेकिन बाबूजी ने पुस्तकों की दुनिया के दरवाजे मेरे लिए खोल दिए थे।


अगर मुझे ठीक याद है तो गोंदिया में 1955 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ था। शायद बाबूजी भी उसमें गए होंगे। गोंदिया से लौटकर पटना जाते हुए रामवृक्ष बेनीपुरी जबलपुर आए। हमारे घर पर उनके सम्मान में प्रीतिभोज रखा गया। मुझे इतना स्मरण है कि हॉलनुमा बड़े से कमरे में खूब सारे लेखक पाटे पर बैठकर भोजन कर रहे हैं और साहित्य चर्चा चल रही है। इसके आस-पास ही सोवियत संघ से हिन्दी के परम विद्वान व रामचरित मानस के अनुवाद प्रोफेसर प्यौत्र वारान्निकोव जबलपुर आए। रामेश्वर गुरू के घर उनके लिए भोज का आयोजन हुआ। बाबूजी मुझे वहां ले गए। प्रोफेसर वारान्निकोव ने बघारी हुई दाल में जीरा देखकर पूछा- क्या इसी को दाल में काला कहते हैं? अगले दिन नवभारत में पहले पन्ने पर बाक्स में यह रोचक टिप्पणी छप गई। ऐसे अनुभवों ने मुझे रचनाकार और रचनाशीलता का सम्मान करना सिखाया।


ऐसी कुछ स्थितियां बनीं कि 1957 की 14 अक्टूबर को जबलपुर छोड़कर मैं सातवीं का विद्यार्थी नागपुर आ गया। अपने नए स्कूल में छमाही परीक्षा का नतीजा आने के बाद शायद पहली बार मैंने बाबूजी को पत्र लिखा। तीन-चार दिन के भीतर ही बाबूजी का प्यार भरा उत्तर आया। उन्होंने मेरे मूल पत्र को साथ में वापिस किया। कापी के पन्ने पर लिखे गए मेरे पत्र में सबसे ऊपर लाल स्याही से निशान लगा था। शेष पत्र में भी भाषा की त्रुटियों पर गोल निशान लगे थे। बाबूजी ने अपने पत्र में समझाया कि पत्र लिखते समय सबसे पहले हमेशा स्थान और तारीख लिखना चाहिए और यह कि लिखने में भाषा पर ध्यान देना चाहिए। मेरे लिए अगर यह पत्रकारिता का पहला पाठ नहीं तो भला और क्या था?


मैं जबलपुर के स्कूली दिनों के एक मार्मिक प्रसंग का उल्लेख करना चाहता हूं। मैं अपनी शाला में बालचर दल याने स्काउट का सदस्य था और उसमें बहुत उत्साह के साथ भाग लेता था। मेरे एक सहपाठी के पास स्काउट के लिए अनिवार्य खाकी कमीज नहीं थी। संभवत: उसकी आर्थिक स्थिति भी इस योग्य नहीं थी। अपनी दो कमीजों में से एक मैंने अपने मित्र को दे दी। कुछ दिन बाद सहमते-सहमते मैंने बाबूजी से एक और कमीज लेने की बात की। उन्होंने कारण पूछा और फिर नाराज हुए कि तुमने अपने दोस्त को पुरानी कमीज क्यों दी? वे फिर हम दोनों मित्रों को लेकर बाजार गए तथा दोनों के लिए एक-एक नई कमीज खरीदवा कर दी। बाबूजी की इस उदारता के सैकड़ों प्रसंग उनके संपर्क में आने वालों के पास हैं। मेरे लिए उनसे कुछ सीखने का यह एक और अवसर था।


एक और प्रसंग कुछ अलग मिजाज का। जबलपुर में लियोनार्ड थियॉसाफिकल कॉलेज के प्राचार्य श्री मैकवॉन के घर रोटरी क्लब की बैठक हुई। मुझे भी बाबूजी के साथ वहां जाने का अवसर मिला। मैकवॉन साहब का बेटा मेरी ही आयु का था। हम लोग खेलते-बतियाते रहे। चलते वक्त उसने मुझे 'गुडनाइट' कहा तो मैं उसका जवाब नहीं दे सका। पिपरिया से नया-नया आया था। गांव का लड़का गुडमार्निंग-गुडनाइट क्या समझता! बाबूजी पहले थोड़ा नाराज हुए कि तुम्हें भी अभिवादन करना चाहिए था। फिर मुझे शिष्टाचार के ये शब्द बहुत धीरज के साथ उन्होंने सिखाए। उन दिनों के बारे में सोचते हुए लगता है कि सचमुच नन्ही सी उम्र में कितना कुछ सीखने मिला।

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